सारा जोर ‘राज’ पर, ‘नीति’ लगभग ग़ायब : अशोक वाजपेयी

सारा जोर ‘राज’ पर, ‘नीति’ लगभग ग़ायब : अशोक वाजपेयी

आज की सत्तारूढ़ राजनीति के सिलसिले में सब कुछ ‘राज’ पर इतना एकाग्र हो चला है कि ‘नीति’ लगभग ग़ायब हो गई है. नीति के राजनीति से लोप के चलते उसके लिए कोई नया शब्द गढ़ना चाहिए. इसी बीच, राज और बाज़ार का संबंध बहुत गाढ़ा हुआ है और वे एक-दूसरे के पोषक हो गए

आज की सत्तारूढ़ राजनीति के सिलसिले में सब कुछ ‘राज’ पर इतना एकाग्र हो चला है कि ‘नीति’ लगभग ग़ायब हो गई है. नीति के राजनीति से लोप के चलते उसके लिए कोई नया शब्द गढ़ना चाहिए. इसी बीच, राज और बाज़ार का संबंध बहुत गाढ़ा हुआ है और वे एक-दूसरे के पोषक हो गए हैं. समय और स्थिति ऐसी है कि आज की सत्तारूढ़ राजनीति के सिलसिले में नैतिकता जैसे पद का प्रयोग बहुत बेढब लगने लगा है. इस राजनीति ने सब कुछ राज पर इतना एकाग्र कर दिया है कि नीति लगभग ग़ायब हो गई है. नीति के राजनीति से लोप के चलते हमें उसके लिए कोई नया शब्द गढ़ना चाहिए.
इधर राज और बाज़ार का संबंध बहुत गाढ़ा हुआ है और वे एक-दूसरे के पोषक हो गए हैं- बाज़ार ने एक तरह से समाज को अपदस्थ कर दिया है. इसलिए अब शब्द सूझता है ‘राजबाज़ारी.’ अब हम राजनीति के समय में नहीं, राजबाज़ारी के युग में हैं. एक बेहद सशक्त राजनेता ने पुलिस अधिकारियों को संबोधित करते हुए उनसे न डरने का आग्रह किया क्योंकि ‘हमने देश का चित्त बदल दिया है.’ यह दुर्भाग्य से, निरा दावा नहीं है, इसमें काफ़ी सचाई भी है: अगर देश का नहीं हो उसके एक बड़े हिस्से, निर्णायक और प्रभावशाली हिस्से का चित्त तो बदल गया लगता है.
इस बदले चित्त के लिए एक नई राजनीतिक-सामाजिक नैतिकता तैयार की गई है. उसका पहला सूत्र यह है कि अपनी धार्मिक-राजनीतिक आस्था के लिए हिंसा का उपयोग किया जा सकता है. गोरक्षा के नाम पर, ‘भारत माता की जय’, ‘जयश्री राम’ आदि न बोलने पर निरपराधों को मारने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए. अव्वल तो उस पर कोई पुलिस कार्रवाई होगी नहीं. पर अगर हो गई तफ़्तीश इतनी कमज़ोर होगी कि आखि़र में किसी को कोई सज़ा नहीं मिलेगी.
हिंसा, हत्या, बलात्कार-घृणा और झूठ अभिव्यक्ति के लगभग उचित माध्यम हैं. किसी तरह की वैचारिक, सैद्धांतिक या राजनीतिक असहमति सत्ता से द्रोह है. प्रतिपक्ष के नेताओं को जेल में डालना लोकतांत्रिक कर्तव्य और ज़िम्मेदारी है और यह ज़िम्मेदारी सीबीआई, ईडी आदि संस्थाएं निभाएं इसका सुनिश्चय किया जा रहा है. हत्यारों और बलात्कारियों का सार्वजनिक सम्मान उनके योगदान का इज़हार भर है. राजनेताओं, धर्मनेताओं द्वारा घृणा-उपजाऊ वक्तव्य बेखटके देना सामाजिक धर्म निभाने जैसा है.
इस नई नैतिकता में क़ानून के शासन और संविधान के प्रावधानों और आत्मा से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि उनका दबाव, वैसे भी, जनहित में, शिथिल किया जा रहा है. कुछ कहना और उससे उलट कुछ करना पाखंड नहीं है: यह राजनीतिक आवश्यकता है. किसानों के कर्जे बरक़रार रखना और बड़े उद्योगपतियों के भारी कर्जे माफ़ करना आर्थिक जगत का सुघर प्रबंधन है.
विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त और दल-बदल भ्रष्ट आचरण नहीं है- यह राजनीतिक संतुलन के लिए की गई ज़रूरी कार्रवाई है. अपने धर्म, संप्रदाय, जाति के पक्ष में झूठ बोलना बुरी बात नहीं है- यह सिर्फ़ नई व्यावहारिकता है. नए लोकतंत्र में हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति पर शक करता है: हम सभी एक-दूसरे की जासूसी में लगे हैं. ऐसी जासूसी अशांति फैलाने वाली शक्तियों को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक है.
इन नैतिकता की सूची में और बहुत जोड़ा जा सकता है क्योंकि वह अपनी व्याप्ति में विशद और प्रभाव में विशाल है. वह नागरिक बहादुरी, आचरण, ज़िम्मेदारी, अनुगमन आदि के नए प्रतिमान स्थापित कर रही है. उसका समर्थन भी लगातार बढ़ रहा है. इस समय तो लगता है कि यह नई नैतिकता भारत को तोड़कर भी शायद दम नहीं लेगी.

‘बच्चे और चंद्रमा’
ऐसे अनुवादक हिन्दी में कम हैं जो अपने लगभग समवयसी किसी विदेशी की कविताओं का अनुवाद करें. ऐसे भी बहुत कम हैं जो हल्द्वानी के, 1966 में जन्मे, कवि-चित्रकार अशोक पाण्डे की तरह बहुत जतन, अध्यवसाय और लगन से अनुवाद करें. लगभग 11 बरस पहले उन्होंने 1965 में जन्मीं ईराकी कवयित्री दून्या मिख़ाइल की कुछ कविताओं का हिन्दी अनुवाद ‘तनाव’ के 118वें अंक में प्रकाशित किया था. इधर उस पर फिर ध्यान गया. दून्या अपनी एक कविता ‘कुछ भी पर्याप्त नहीं है यहां’ में कहती हैं कि ‘मुझे एक तोते की ज़रूरत है/एक से दिनों की/बहुत सारी सुइयां/और कृत्रिम स्याही/ताकि मैं इतिहास बना सकूं. उनकी और कविता ‘बच्चे और चंद्रमा के रूपांतरण’ में यह अंश है:

बच्चा नदी तक गया
और जैसे किसी आईने की मानिंद
नदी में डूब रहे चांद के भीतर
उतर गया

इसी कविता का तीसरा और अंतिम अंश इस प्रकार है:

दौड़ता गया बच्चा समुद्र तट पर
आकाश की गिरती गेंद का पीछा करता हुआ
जबकि रेत गिर रही थी
चंद्रमा के पैरों के निशान
जो बच्चे को स्वर्ग लेकर जा रहा था

एक और कविता ‘मैं जल्दी में थी’ का आरंभ होता है इन लगभग हृदयविदारक पंक्तियों से:

कल मैंने खो दिया एक मुल्क
मैं जल्दी में थी,
और ग़ौर नहीं कर सकी कब वह अलग हुआ मुझसे
किसी भुलक्कड़ पेड़ की टूटी शाख़ की मानिंद
कृपा करके, अगर कोई इसके पास से गुज़रे
और इससे टकरा जाए…

वाल्मीकि का ‘उपरांत’

इतालो काल्वीनो ने कभी कहा था कि क्लासिक वे ग्रंथ होते हैं जिनकी चर्चा हर कोई करता है पर जिन्हें पढ़ता कोई नहीं है. वाल्मीकि की ‘रामायण’ हमारी लगभग ऐसी ही क्लासिक है जिसे, इन दिनों भी, जब बहुत राम-राम होता रहता है, बहुत कम ने पढ़ा है.
एक कठिनाई तो यह है कि वह मूलतः संस्कृत में है. दूसरी शायद यह है कि प्रायः कर भारतीय भाषा में रामायण का ठीक-ठीक अनुवाद नहीं पर रूपांतरण हुआ है. अक्सर रूपांतकरकार ने मूल से कुछ विचलन अपनी भाषिक परंपरा के अनुरूप और अपने समय के अनुसार किया है और कई बार उसे नए प्रसंग और चरित्र भी जोड़े हैं.
यह याद करना भी दिलचस्प है कि ललित कला में जिसे मुग़ल शैली कहते हैं उसका जन्म अकबर द्वारा कराए गए ‘रामायण’ के फ़ारसी अनुवाद को अलंकृत करने के प्रयत्न से हुआ था.
विवेक नारायण भारतीय मूल के कवि हैं जो अमेरिका में रहते और पढ़ाते हैं. उन्होंने लगभग वर्ष लगाकर ‘रामायण’ का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है जो ‘आफ़्टर’ शीर्षक से हार्पर कालिंस ने प्रकाशित किया है. 600 से भी अधिक पृष्ठों की यह पुस्तक अपने आकार, आकांक्षा और नवाचार में उचित ही महाकाव्यात्मक है. यह सिर्फ़ रूपांतर नहीं है बल्कि रूपांतरकर्ता कवि की अंतर्यात्रा का भी साक्ष्य उसमें जहां-तहां है. उसकी संरचना ‘रामायण’ से उत्प्रेरित कविताओं के एक बृहद समुच्चय के रूप में है. अनुवाद के रूप में नहीं, इस पुस्तक को इस बृहद समुच्चय के रूप में इन दिनों पढ़ना शुरू किया.

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