देश में रोजगार की बड़ी-बड़ी बातों के बीच तेजी से लोगों की आत्महत्याओं का बढ़ता ग्रॉफ

देश में रोजगार की बड़ी-बड़ी बातों के बीच तेजी से लोगों की आत्महत्याओं का बढ़ता ग्रॉफ

भारत सरकार एक ओर जहां साल 2023 के अंत तक 10 लाख़ युवाओं को नौकरी देने की बात कर रही है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘रोज़गार मेला’ नाम से इसकी शुरुआत कर चुके हैं, वही दूसरी तरफ बेरोजगार युवाओं की आत्महत्या की घटनाओं में लगातार इजाफ़ा होता जा रहा है. गौरतलब है कि पीएम मोदी ने

भारत सरकार एक ओर जहां साल 2023 के अंत तक 10 लाख़ युवाओं को नौकरी देने की बात कर रही है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘रोज़गार मेला’ नाम से इसकी शुरुआत कर चुके हैं, वही दूसरी तरफ बेरोजगार युवाओं की आत्महत्या की घटनाओं में लगातार इजाफ़ा होता जा रहा है. गौरतलब है कि पीएम मोदी ने गत शनिवार को पहले चरण के तहत 75,000 युवाओं को सरकारी नौकरी के नियुक्ति पत्र सौंपे. बताया गया है कि ये भर्तियां यूपीएससी, एसएससी और रेलवे सहित केंद्र सरकार के 38 मंत्रालयों या विभागों में दी जाएगी. यानी इस मेगा प्लान में रेलवे, डिफ़ेंस, बैंकिंग, डाक और इनकम टैक्स जैसे विभाग शामिल हैं.
भारतीय रेल के प्रवक्ता अमिताभ शर्मा ने बीबीसी को बताया था कि इस दौरान क़रीब 8,000 युवाओं को रेलवे में नौकरी का ऑफ़र लेटर दिया जाएगा. इसमें अनुकंपा के आधार पर नौकरी पाने वाले भी शामिल हैं. इससे पहले रोज़गार के मुद्दे पर विपक्ष ने लगातार केंद्र सरकार पर हमला किया है. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव तक मोदी सरकार को बेरोज़गारी के मुद्दे पर घेरते रहे हैं. यानी मौजूदा समय में बेरोज़गारी की समस्या विपक्ष के लिए केंद्र सरकार को घेरने का एक बड़ा मुद्दा रहा है.
बढ़ती बेरोज़गारी का मुद्दा उत्तर से लेकर दक्षिण भारत और पूर्व से लेकर पश्चिम भारत तक विपक्ष को सरकार पर हमले का हथियार देता रहा है. सरकारी नौकरी की चाह रखने वालों में बड़ी तादाद बिहार के युवाओं की होती है. बीते कुछ साल में भारत में सरकारी नौकरी बहुत बड़ा चुनावी मुद्दा रहा है. बिहार में आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने तो 2020 के विधानसभा चुनावों के दौरान बिहार में सरकार बनने पर 10 लाख युवाओं को नौकरी देने का वादा तक किया था. बीते अगस्त महीने में जेडीयू और आरजेडी गठबंधन की सरकार बनने के बाद तेजस्वी यादव ने कम-से-कम चार-पाँच लाख़ लोगों को नौकरी देने की बात कही थी. नौकरी को लेकर यूपी, बिहार, झारखंड समेत तमाम राज्यों के अपने वादे और दावे रहे हैं. वहीं विपक्ष दलों के शासन वाले हर राज्य सरकार ने बढ़ती बेरोज़गारी को लेकर मोदी सरकार पर लगातार आरोप लगाया है.
दरअसल साल 2019 में ही भारत में 45 साल की सबसे बड़ी बेरोज़गारी के आंकड़े सामने आए थे. उस साल आम चुनावों से पहले इन आंकड़ों के लीक होने पर काफ़ी विवाद हुआ था. ख़बरों के मुताबिक़, बाद में सरकार ने इसके आंकड़े ख़ुद जारी किए और माना कि भारत में बेरोज़गारी दर पिछले चार दशक में सबसे ज़्यादा हो गई है. सरकार ने पहले लीक हुई रिपोर्ट को यह कहते हुए ख़ारिज किया था कि बेरोज़गारी के आंकड़ों को अभी अंतिम रूप नहीं दिया गया है लेकिन विपक्ष इस ख़बर के सामने आने के बाद से ही रोज़गार के मुद्दे पर केंद्र सरकार की नीतियों पर लगातार सवाल उठाती रही है.
सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में 20 अक्टूबर, 2022 को बेरोज़गारी दर 7.8 फ़ीसदी है. इसमें शहरी बेरोज़गारी दर 7.5 फ़ीसदी, जबकि गांवों के लिए यह आंकड़ा 7.9 फ़ीसदी है. इस साल केंद्र सरकार ने संसद में बताया है कि अप्रैल 2014 से मार्च 2022 के बीच आठ साल में केंद्र सरकार के विभागों में स्थायी नौकरी पाने के लिए क़रीब 22 करोड़ लोगों ने आवेदन किया था. इस दौरान केंद्र सरकार में महज़ 7.22 लाख लोगों को स्थायी नौकरी मिली. आसान शब्दों में कहें तो जितने लोगों ने नौकरी के लिए आवेदन किया, उसमें से केवल 0.32 प्रतिशत लोगों को नौकरी मिली. इस मुद्दे पर ख़ुद बीजेपी सांसद वरुण गांधी केंद्र सरकार पर सवाल उठा चुके हैं. वरुण गांधी ने एक ट्वीट कर सरकार से सवाल किया था, “जब देश में लगभग एक करोड़ स्वीकृत पद ख़ाली हैं, तब इस स्थिति के लिए कौन ज़िम्मेदार है?”
भारत में बेरोज़गारी से बनी स्थिति का ये सिर्फ़ एक उदाहरण है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार की तरफ़ से अगले क़रीब डेढ़ साल में 10 लाख़ लोगों को नौकरी देने का वादा विपक्ष से बेरोज़गारी का मुद्दा भी छीन सकता है. सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के एमडी महेश व्यास कहते हैं, “सरकार का वादा बहुत बड़ा है. केंद्र सरकार 10 लाख़ लोगों को नौकरी देने की जो पहल कर रही है वह बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण है.” बढ़ती बेरोज़गारी को लेकर युवाओं का आक्रोश भी कई बार सड़कों पर दिखा है. बिहार, यूपी, तेलंगाना, राजस्थान और हरियाणा जैसे कई राज्यों में नौकरी की मांग में प्रदर्शन हो चुके हैं. नौकरी की तलाश में युवाओं का आक्रोश सड़कों पर दिखा है. भारत में नौकरी की मांग को लेकर ज़्यादा आंदोलन नहीं होते. बिहार या यूपी जैसे राज्यों में पिछले दिनों जो हंगामा हुआ, वो नियमों में बदलाव की वजह से था. चाहे रेलवे की एनटीपीसी परीक्षा के नियमों का मामला हो चाहे अग्निवीर स्कीम का, इस दौरान जो हंगामा हुआ वो नियमों में बदलाव को लेकर हुआ था. बच्चे कुछ समझकर नौकरी की तैयारी करते हैं, फिर उन्हें पता चलता है कि उन्हें चार साल के लिए नौकरी मिलेगी और इसी बात को लेकर उन्होंने प्रदर्शन किया था.
पिछले साल का कोरोना काल आपको याद होगा। ऑक्सीजन, दवाइयों, बेड की कमी के कारण लोग मारे जा रहे थे। गंगा तक इन्सानों की लाशों से अट गयी थी और श्मशानों के आगे लम्बी-लम्बी क़तारें लगी थीं। इसमें मौत के गर्त में समाने वाले ज़्यादातर मेहनतकश तबक़े के लोग थे। मोदी सरकार आपदा में अवसर निकालने में लगी हुई थी। इसके साथ ही पूरी पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मज़दूरों की जा रही हत्याओं के आँकडों में और इज़ाफ़ा हो गया। हाल ही में जारी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में यह सामने आया है कि साल 2021 में भारत में जिन 1,64,033 लोगों ने आत्महत्या की उसमें से 25.6 प्रतिशत दिहाड़ी मज़दूर थे। एनसीआरबी की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2021 में कुल 42,004 दिहाड़ी मज़दूरों ने आत्महत्या की, इनमें 4,246 महिलाएँ भी शामिल थीं। रिपोर्ट के मुताबिक़ 42,004 दिहाड़ी मज़दूरों की आत्महत्याओं में सबसे ज़्यादा मामले तमिलनाडु (7673), महाराष्ट्र (5270), मध्य प्रदेश (4657), तेलंगाना (4223), केरल (3345) और गुजरात (3206) से थे। 2020 में कुल 37,666 दिहाड़ी मज़दूरों ने आत्महत्या की थी। इस साल इस वर्ग में हुई आत्महत्या की घटनाओं में क़रीब 11 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है।
ऐसे में कुछ लोग सोच सकते हैं (जो कि पक्के तौर पर मूर्ख और कूपमण्डूक कहे जा सकते हैं) कि यह तो आत्महत्या है, इसमें सरकार या व्यवस्था का क्या लेना देना। पर यहाँ असल सवाल यह है कि उन्हें इस हालात तक पहुँचाने के लिए दोषी कौन है? यह सरकार और पूँजीवादी निज़ाम जो मज़दूरों की बुनियादी ज़रूरतों तक को छीनकर, उन्हें भूखों मरने के लिए छोड़ देता है। आज महँगाई, बेरोज़गारी जो अपने चरम पर है, इसका सबसे ज़्यादा असर दिहाड़ी मज़दूरों पर होता है।
लेबर चौक पर जब मज़दूर खड़े होते हैं, मुश्किल से कभी कोई काम आता है तो सभी मज़दूर उसे किसी भी हाल में हासिल करना चाहते हैं। पर अन्त में काम मिलता है किसी एक को ही बाक़ी ख़ाली हाथ लौट जाते हैं। कभी पन्द्रह दिन कभी बीस दिन, इससे अधिक काम मिलना मुश्किल हो जाता है। दिहाड़ी भी 300-400 ही है, उसी में पूरे परिवार का पेट पालना होता है, ज़रूरतें पूरी करनी होती हैं। पर आज तो सिलेण्डर भरवाने और सब्ज़ी ख़रीदने में ही सारे पैसे ख़त्म हो जाते हैं। फिर कुछ दिन काम नहीं मिलता तब स्थिति उधार लेने वाली आ जाती है। फिर धीरे-धीरे क़र्ज़ कम होने की बजाय बढ़ता जाता है। फिर इन कारणों से लड़ाई-झगड़े, तनाव बढ़ता जाता है। इस स्थिति से देश की बड़ी मज़दूर आबादी गुज़र रही है। पर इसमें से कुछ मज़दूर अकेले होने के कारण इस स्थिति का सामना नहीं कर पाते और उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसलिए इसके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ यह पूँजीवादी व्यवस्था ही ज़िम्मेदार है जो मज़दूरों की ज़िन्दगी लील लेती है।
इसके साथ ही राजनीतिक कूपमण्डूकों को भी आइना दिखाने के लिए एक तथ्य और जुड़ गया जो इस तर्क की पुष्टि करता है कि धनी किसान ही खेतिहर मज़दूरों का शोषण करने में सबसे आगे हैं। इस रिपोर्ट में “कृषि क्षेत्र में लगे व्यक्तियों” की श्रेणी भी थी, जिसमें खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्या के आँकडें थे, जिसकी संख्या में पिछले साल के मुक़ाबले वृद्धि हुई है। “कृषि क्षेत्र में लगे व्यक्तियों” की श्रेणी में साल 2021 में 10,881 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें से 5,318 किसान थे और 5,563 खेतिहर मज़दूर। इन खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्या का कारण धनी किसानों-कुलकों द्वारा किया गया भयंकर और अमानवीय शोषण ही है, जो उन्हें मुनाफ़े, सूद, लगान हर तरीक़े से लूटते हैं। खेतिहर मज़दूरों को न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता, बाक़ी कोई श्रम क़ानून लागू होंगे ये बात तो भूल जाइए। कई “कामरेडगण” बड़े ही “यथार्थवादी” तरीक़े से ‘ललकारते’ हुए ‘फ़ार्मर-मज़दूर एकता ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाते थे, पर जब उन्हीं खेतिहर मज़दूरों के अधिकार छीने जाते हैं तो वे चुप्पी साधकर बैठ जाते हैं! यही कारण था कि किसान आन्दोलन में खेतिहर मज़दूरों के अधिकार व उनकी माँगों को कोई तवज्जो नहीं दी गयी। इससे यही बात साबित होती है कि बड़े किसान-कुलकों व खेतिहर मज़दूरों में कोई एकता नहीं बन सकती, क्योंकि एक शोषक वर्ग का हिस्सा है तो दूसरा शोषित वर्ग का। आत्महत्याओं का बढ़ना पूँजीवाद के जर्जर होते जाने की निशानी है।

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