स्कूलों का कारपोरेटीकरण संविधान का मखौल और शिक्षा के मौलिक अधिकारों का हनन

स्कूलों का कारपोरेटीकरण संविधान का मखौल और शिक्षा के मौलिक अधिकारों का हनन

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि शिक्षा के अधिकार से छोटे गांवों में बच्चों को वंचित नहीं किया जा सकता है. एक महत्वपूर्ण वाद एन. कोमोन बनाम मणिपुर राज्य मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि ऐसा गांव, जहाँ आबादी कम है एवं 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को दूर गांव

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि शिक्षा के अधिकार से छोटे गांवों में बच्चों को वंचित नहीं किया जा सकता है. एक महत्वपूर्ण वाद एन. कोमोन बनाम मणिपुर राज्य मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि ऐसा गांव, जहाँ आबादी कम है एवं 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को दूर गांव के स्कूल में भेजा जा रहा है, जिससे वे जाने में असमर्थ हैं या उनको दूर पहुंचने की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं, तो सरकार का कर्तव्य है कि छोटे गांव में ही स्कूल खोला जाए क्योंकि शिक्षा प्राप्त करना बालकों का मौलिक अधिकार के साथ यह सरकार का कर्तव्य अनुच्छेद 39,41,42 एवं 51 क(ट) के अंतर्गत विवेचित है। इस निर्णय के आधार पर माना गया है कि छोटे गांव के स्कूलों को सरकार मनमाने ढंग से किसी दूर शहर के स्कूलो में मर्ज नहीं कर सकती है.
यह भी उल्लेखनीय है कि शिक्षा में कॉर्पोरेट संस्कृति अब भारत में बहुत तेज़ी से फैल रही है. पिछले पांच वर्षों के दौरान खोले गए सभी प्री-स्कूलों में से लगभग 99% विशुद्ध रूप से व्यावसायिक उद्यम हैं. कई शिक्षाविदों ने उन्हें “एजुकेशन शॉप या शिक्षा की दुकान” की संज्ञा दी है. भारतीय समाज सामाजिक स्थिति और आय के वितरण के मामले में बहुत ही असमान है. इसलिए, शिक्षा का व्यावसायीकरण इस असमानता को और बढ़ा देगा और हाशिए के वंचित समुदायों के गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में बाधा बनेगा. उस स्थिति में सामाजिक बराबरी या सामाजिक न्याय प्राप्त नहीं किया जा सकता है जहाँ समाज का एक बड़ा वर्ग गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से दूर हो.
भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्व में अनुच्छेद 45 के आधीन राज्य का कर्तव्य है कि राज्य 14 वर्ष तक के सभी बालकों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दे लेकिन यह एक नीति निर्देशक तत्व था, न कि व्यक्ति का मूल अधिकार. मोहनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि शिक्षा एक मूल अधिकार है. यह अधिकार प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार में निहित है. उन्नीकृष्णन मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि शिक्षा का अधिकार मूल अधिकार है एवं निःशुल्क शिक्षा एवं अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार 6 वर्ष से 14 वर्ष के बच्चों को प्राप्त है.
इसी संदर्भ में संसद द्वारा निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम,2009 पारित किया गया था. अब इस अधिनियम के अंतर्गत राज्य के सम्पूर्ण शासकीय स्कूल में बालकों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जा रही है. निजी स्कूलों में 25℅ बालको को निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जा रही है. भारतीय संविधान के 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा एक नया अनुच्छेद 21क जोड़ा गया, जो यह उपबन्धित करता है कि राज्य 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के सभी बालकों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करवाएगा एवं यह नागरिकों का मौलिक अधिकार होगा.
जहां तक, शिक्षा के कॉरपोरेटीकरण का सवाल है, सार्वजनिक वित्त पोषित स्कूलों में इस तरह का वर्गीकरण मौजूद है. हालांकि, निजी स्कूलों में और भी परतें देखी जा सकती हैं. उदाहरण के लिए, फैशनेबल स्कूल समाज के संपन्न वर्ग की ज़रूरत को पूरा करते हैं. दूसरी ओर, दलितों के लिए बने स्कूल बुनियादी ढांचे और गुणवत्ता में खराब हैं. कई मामलों में तो यह सरकारी स्कूलों से भी बदतर हैं. इसलिए, व्यावसायीकरण ने शिक्षा प्रणाली में अलग-अलग वर्ग और कई पर्तों को बनाने का काम किया है. बेहतर बुनियादी ढांचे और बेहतरीन शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र अकादमिक उत्कृष्टता प्राप्त करते हैं, जबकि जिन छात्रों की अच्छे स्कूलों तक पहुंच नहीं है, उन्हें अकादमिक प्रगति हासिल करने के लिए कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. यह असमानता एक दुष्चक्र पैदा करती. यदि 10 प्रतिशत संपन्न वर्ग को बेहतर सुविधाएं प्राप्त हों, तो उस समूह के बच्चों को ही अच्छी शिक्षा का लाभ भी मिलेगा.
समाज में बराबरी लाने के लिए सभी छात्रों को समान अवसर उपलब्ध कराना चाहिए. यह स्थिति कई विकसित देशों में उपलब्ध कराई जा रही है. हालांकि, भारत जैसे विकासशील देश में हमारी सरकार सभी बच्चों के लिए समान शैक्षिक अवसर प्रदान नहीं कर रही है. शिक्षा का व्यावसायीकरण शिक्षा के सार्वभौमिकरण के भी खिलाफ जाता है. हमारे संविधान की भावना और विभिन्न शिक्षा आयोगों की रिपोर्ट और सुझावों का सार यह है कि शिक्षा को सार्वभौमिक बनाया जाना चाहिए. विभिन्न आयोगों ने इसे लागू करने की समय सीमा भी दी, लेकिन हमारे देश में शिक्षा का सार्वभौमिकरण अभी भी एक सपना ही है. अभी भी अलग अलग तरह के स्कूल मौजूद हैं.
उच्च वर्ग और क्रीमी लेयर अपने बच्चों को अच्छे शिक्षा मानकों और सुविधाओं से सम्पन्न एलीट स्कूलों में भेजते हैं. इसके विपरीत, निम्न मध्यम वर्ग और गरीब उन एलीट स्कूलों की बेतहाशा महंगी फीस से डरते हैं. इसलिए, वे इन स्कूलों को वहन नहीं कर सकते हैं और अपने बच्चों को निम्न मानकों और कम सुविधाओं वाले निजी स्कूलों में भेजते हैं. इस प्रकार, शिक्षा का सार्वभौमिकरण प्राप्त नहीं किया जाता है. माता-पिता की आय के आधार पर समाज में स्कूलों के विभिन्न प्रकार मौजूद हैं. उसके अनुसार ही, बच्चे निजी स्कूलों या व्यावसायिक स्कूलों में जाते हैं. इसलिए, ये व्यवसायिक स्कूल समाज में वर्ग विभाजन को मज़बूत कर रहे हैं.
ये वर्ग व्यवस्था के साथ-साथ जाति व्यवस्था को भी मजबूत कर रहे हैं. क्योंकि उच्च जाति के छात्रों के पास बुनियादी और उच्च शिक्षा के बेहतर अवसर होते हैं, वे उच्च मानकों वाले स्कूलों में जाते हैं लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित समुदायों और अल्पसंख्यकों के छात्र ऐसे स्कूलों में नहीं जा सकते हैं, उन्हें कम सुविधाओं वाले स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करना पड़ता हैं. यह माहौल वर्ग और जाति व्यवस्था को और गहरा और मज़बूत बना रहा है. शिक्षा के व्यावसायीकरण को छात्रों के लिए घेटो का भी निर्माण करता है. विशेष रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के लिए. यह स्थिति लम्बे समय तक चलना बहुत खतरनाक है क्योंकि घेटो का बनना न्यायसंगत और न्यायपूर्ण समाज बनाने में बाधा पैदा करेगा.
कल्याणकारी सरकार या राज्य के आवश्यक कर्तव्यों में से एक कर्तव्य है अपने सभी नागरिकों को सस्ती शिक्षा प्रदान करना. कई देशों में, प्राथमिक शिक्षा सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित है. नतीजतन, एक करोड़पति और कम कमाई वाले नागरिक का बच्चा एक ही तरह के स्कूल में जाता है. यह कई विकसित देशों में सामान्य आदर्श है, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है. इसका सीधा सा कारण यह है कि सरकार स्कूलों के स्तर सुधारने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है. इसके अलावा, शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक खर्च में भारी कमी आई है. कई आयोगों ने सिफारिश की थी कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 6% शिक्षा के लिए आवंटित किया जाए, लेकिन यह सिर्फ एक नारा ही रहा, उस दिशा में ईमानदारी से प्रयास नहीं किये गए.
एनईपी (नई शिक्षा नीति) 2020 में भी सरकार ने कई अच्छे कार्यक्रमों की योजना बनाई है, लेकिन दुर्भाग्य से शिक्षा के क्षेत्र में न तो पर्याप्त धनराशि निर्धारित की गई है और न ही कोई समयबद्ध कार्यक्रम. यह केवल शिक्षा के व्यावसायीकरण के कारण हो रहा है, और सरकार धीरे-धीरे शिक्षा की ज़िम्मेदारी से हटना चाह रही है. यह देखा गया है कि कई बड़े ब्रांड शिक्षा के विशाल बाजार में प्रवेश कर रहे हैं. प्री-स्कूल के क्षेत्र में कई बड़े कॉर्पोरेट घरानों ने अपने ब्रांड लॉन्च किए हैं. बहुत जल्द, निजी स्कूलों के बाज़ार में भी बाढ़ आ जाएगी. कॉरपोरेट घराने शिक्षा के मार्किट में प्रवेश कर रहे हैं क्योंकि यह स्वास्थ्य क्षेत्र के बाद मार्केट साइज़ में दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र माना जाता है. इसलिए यदि कोई सरकार या समाज शिक्षा को एक वस्तु या बाज़ार के रूप में देखता है, तो वह समाज प्रगति नहीं कर सकता.
यदि भारत ज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी बनना चाहता है तो इसके लिए हमें शिक्षा में अपने कार्यक्रमों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है, खासकर प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में, 10+2 तक. साथ ही सरकार को इस क्षेत्र में अधिक से अधिक धन का निवेश करना चाहिए ताकि सामाजिक न्याय और सामाजिक समानता हासिल की जा सके. इन सबसे पहले, सरकार को सभी छात्रों के लिए एक समान अवसर व सुविधाएं प्रदान करना चाहिए ताकि उचित सुविधाओं से प्रतिभाशाली छात्रों को भी ठीक प्रकार से पोषित किया जा सके. उचित सुविधाओं, उचित शिक्षा और उचित मार्गदर्शन वाले ये छात्र शिक्षा के क्षेत्र में भी उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं और राष्ट्र और समाज में योगदान दे सकते हैं.

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