फ़िल्म डॉक्टरजी: गाइनिकॉलजिस्ट के लिए जेंडर नहीं, सबसे पहले बीमार महिला का स्वास्थ्य बड़ा मुद्दा

फ़िल्म डॉक्टरजी: गाइनिकॉलजिस्ट के लिए जेंडर नहीं, सबसे पहले बीमार महिला का स्वास्थ्य बड़ा मुद्दा

ये कहानी है आयुष्मान खुराना की फ़िल्म ‘डॉक्टर जी’ की, जिसका इन दिनों ज़िक्र हो रहा है. मेडिकल कॉलेज में एकमात्र लड़का जो गाइनिकॉलजिस्ट बनने की पढ़ाई कर रहा है. वो इसी उलझन में है कि आख़िर वो महिलाओं का इलाज कैसे करेगा और वो पूरा जुगाड़ कर रहा है कि किसी तरह अपना डिपार्टमेंट

ये कहानी है आयुष्मान खुराना की फ़िल्म ‘डॉक्टर जी’ की, जिसका इन दिनों ज़िक्र हो रहा है. मेडिकल कॉलेज में एकमात्र लड़का जो गाइनिकॉलजिस्ट बनने की पढ़ाई कर रहा है. वो इसी उलझन में है कि आख़िर वो महिलाओं का इलाज कैसे करेगा और वो पूरा जुगाड़ कर रहा है कि किसी तरह अपना डिपार्टमेंट बदलवा ले. जब वो लड़का अपनी प्रोफ़ेसर (शेफाली शाह) से कहता है कि गाइनी से जुड़ी समस्याओं के लिए लोग फ़ीमेल डॉक्टर के पास ही जाना पसंद करते हैं तो शेफाली जवाब देती हैं कि मेल फ़िमेल क्या होता है, डॉक्टर तो डॉक्टर होता है. लेबर रूम में जाता था, परिवारवाले नाराज़ हो जाते थे. ये तो हुई फ़िल्म की बात पर असल में क्या होती है कि एक पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट की सोच?
आख़िर कैसा होता है कि एक पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट होना, पुरुष होकर एक महिला मरीज़ों की बेहद निजी ज़िंदगी का हिस्सा होना? इसी के इर्द गिर्द बुनी गई है नई हिंदी फ़िल्म ‘डॉक्टर जी.’ “कुछ लोगों में धारणा होती है कि औरतों के शरीर को औरत ही समझ सकती है. चूँकि मैं पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट और ऑब्स्टट्रिशन हूँ और कभी प्रेग्नेंट नहीं हुआ हूँ तो ऐसा नहीं है कि मैं किसी प्रेग्नेंट औरत का इलाज नहीं कर सकता. ये कुछ ऐसा ही हो गया कि अगर मैं साइकेट्रिस्ट हूँ तो मैं तभी मानसिक बीमारियों का इलाज कर सकता हूँ जब मैं ख़ुद भी मेंटल हेल्थ से जुड़े मुद्दों से गुज़र चुका हूँ.” डॉक्टर पुनीत बेदी पिछले तीस सालों से बतौर गाइनिकॉलजिस्ट दिल्ली में काम कर रहे हैं. दरअसल जब भी लोग गाइनिकॉलजिस्ट और ऑब्स्टट्रिशन यानी स्त्री रोग विशेषज्ञ और प्रसूति विशेषज्ञ के बारे में सोचते हैं तो कई लोगों के जेहन में किसी महिला डॉक्टर की ही छवि ही आती हैं. या बहुत सी औरतें महिला गाइनिकॉलजिस्ट के साथ ही सहज महसूस करती हैं.
डॉक्टर अमित टंडन आगरा के जाने-माने गाइनिकॉलजिस्ट हैं. इस पेशे में आने का अपना किस्सा वो कुछ यूँ बताते हैं, “बचपन में हम ये किस्से सुनते हुए बड़े हुए कि हमारे आगरा के एक मशहूर डॉक्टर नवल किशोर अग्रवाल को ख़ास तौर पर नेपाल के राजा ने अपनी बेटी के जन्म के लिए बुलाया था. एक बड़े गाइनिकॉलजिस्ट थे जिन्हें कई बिज़नसमेन ख़ास तौर पर बुक करते थे. सो ये तो समझ में आ गया था कि पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट की माँग है. लेकिन जब काम शुरु किया तो ये बात समझ में नहीं आई थी कि समाज के हर तबके में पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट की स्वीकृति नहीं है.” शुरुआती दौर में आई चुनौतियों के बारे में डॉक्टर अमित टंडन बताते हैं, “मुझे ख़ुद को साबित करना पड़ा था. मेरी माँ भी गाइनिकॉलजिस्ट हैं. शुरू में जब महिलाएँ चेक अप के लिए आती थीं वो महिला डॉक्टर को ही तरजीह देती थीं. मरीज़ की असहजता को देखते हुए मेरी माँ ने भी मुझसे कह दिया था कि अभी तुम महिला मरीज़ों का इंटरनल इन्वेस्टिगेशन मत करो जबकि मैं प्रशिक्षित डॉक्टर था. माँ को भी लगता था कि शायद महिला मरीज़ मेरे साथ सहज नहीं होंगी.”
वे कहते हैं, “जिन औरतों ने घर के पुरुषों के अलावा बाहरी पुरुषों से ज़्यादा बातचीत नहीं की है, ज़ाहिर है एक युवा गाइनिकॉलजिस्ट से बात करने में उन्हें संकोच होता था. शुरू-शुरू में जब मैं लेबर रूम में जाता था तो महिला मरीज़ों के रिश्तेदारों को आपत्ति होती थी. ये बड़ी चुनौती थी. लेकिन बाद में जब वो औरतें परिवारवालों की बताती थीं कि डिलिवरी के दौरान मैंने उनका किस तरह ध्यान रखा तो परिवारवालों का नज़रिया बदल जाता था. जब नाज़ुक हालात में आप किसी महिला मरीज़ की जान बचाते हो, बच्चे की सुरक्षित डिलिवरी कराते हो, अविवाहित लड़कियों में स्त्री रोग से जुड़ी समस्याओं को दूर करते हो जिनसे उनके आगे की ज़िंदगी आसान हो, तो वो औरतें धीरे धीरे भरोसा करने लगती हैं. फिर वो पुरुष-औरत वाला फ़र्क़ अपने आप ख़त्म हो गया.”
डॉक्टर पुनीत अपने तजुर्बे से बताते हैं, “सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से समाज में मान्यता बनी रही है कि अगर औरतें अपनी प्रेगनेंसी, प्रजनन, या निजी अंगों से जुड़ी समस्याओं को लेकर पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट से बात करेंगी तो इसमें कोई शर्मिंदगी की बात है. उन्हें ये बहुत निजी मामला लगता है. लेकिन बतौर डॉक्टर मैं कहता हूँ कि आप ऐसा मान लीजिए कि आपकी पीरियड्स से जुड़ी दिक्कत वैसी ही है जैसे मानो आपको न्यूमोनिया या कोई और परेशानी है. अगर आपको अच्छा गाइनिकॉलजिस्ट चाहिए तो आप प्रशिक्षित डॉक्टर के पास जाइए, जेंडर के बारे में न सोचें.”
शायद ये वही मेल टच है जिसकी बात फ़िल्म डॉक्टर जी के ट्रेलर में की गई है. दरअसल फ़िल्म डॉक्टर जी में गाइनिकॉलजिस्ट की पढ़ाई कर रहा आयुष्मान एक जगह कहता है कि पेशेंट ऐसा नहीं सोचते कि डॉक्टर तो डॉक्टर होता है, पुरुष या औरत नहीं. इस पर उनकी प्रोफ़ेसर बदले में जवाब देती हैं कि पहले आप तो ऐसा सोचें. यू हैव टू लूज़ द मेल टच यानी पुरुष स्पर्श को पीछे छोड़ना होगा. इस पुरुष स्पर्श वाली बात जब मैंने डॉक्टर पुनित के सामने रखी तो उनका तर्क कुछ यूँ था, “एक पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट को पूरी प्रोफ़ेशनल ट्रेनिंग मिलती है कि औरतों के साथ कैसे पेश आना है. जब हम जाँच करते हैं तो ज़रूरी होता है कि वहाँ कई महिला नर्स, डॉक्टर भी रहे. जितना ज़रूरी हो शरीर के उतने ही हिस्से से कपड़े हटाए जाते हैं, ये सिखाया जाता है. एक संवदेनशील माहौल में हमें ट्रेन किया जाता है.. डॉक्टर अच्छे और बुरे दोनों होते हैं, इसमें जेंडर की बात नहीं है.”
अभिनेत्री रकुलप्रीत और शेफाली शाह ने डॉक्टर जी में महिला गाइनिकॉलजिस्ट का रोल किया है. दिल्ली में पली बढ़ीं रकुलप्रीत अपने निजी तजुर्बे के बारे में बताती हैं, “अब झिझक नहीं होती है लेकिन ये सच है कि जब मैं टीनएजर थी तब मुझे बहुत हिचक होती थी कि मैं पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट के पास कैसे जाऊँ. मुझे एक बार डॉक्टर के पास जाना था और वो गाइनिकॉलजिस्ट पुरुष था. मेरे मन में सवाल आते थे कि मैं कैसे बताऊँगी. घरों में भी दरअसल महिलाओं की सेहत से जुड़ी दिक्कतों के बारे में खुल कर बात नहीं होती. लेकिन धीरे धीरे मेरा नज़रिया बदला. फ़िल्म में भी यही बताया गया है कि डॉक्टर का जेंडर नहीं होता. इस फ़िल्म के ज़रिए हम कोई बड़ा बदलाव लाने का दावा नहीं कर रहे हैं लेकिन हाँ अगर लोगों का मनोरंजन हो जाए और लोग इस मुद्दे पर कम से कम बात करें तो हमारे लिए अच्छा है.”
जबकि मुंबई में पली बढ़ी शेफाली का नज़रिया अलग है. वे कहती हैं, “मुझे कभी झिझक महसूस नहीं हुई क्योंकि डॉक्टर तो डॉक्टर होता है. मेल, फ़ीमल, ट्रांसजेंडर क्या फ़र्क पड़ता है. अगर मेरी महिला छात्र भी अच्छा काम नहीं कर रही होती तो मैं उसे भी ये कहती कि लूज़ द फ़ीमेल टच- सिर्फ़ डॉक्टर बनो जैसे मैं आयुष्मान को कहती हूँ कि लूज़ द मेल टच. जहाँ तक समाज की बात है तो कोई फ़िल्म किसी मुद्दे पर बहस शुरू कर सकती है लेकिन एक फ़िल्म पूरे समाज का नज़रिया ही बदल दे, ये कुछ ज़्यादा ही बड़ी ज़िम्मेदारी है.” दोनों अभिनेत्रियों का नज़रिया डॉक्टर बेदी और डॉक्टर टंडन की इस बात का तस्दीक करता है कि भारत के दूसरे हिस्सों की बजाय ये झिझक और हिचकिचाहट उत्तर भारतीय समाज में ज़्यादा पाई जाती है.
इस पेशे की बात करें तो पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट को समय-समय पर कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. 2016 में राजस्थान में ये आदेश निकाला गया था कि गाइनिकॉलजी से जुड़ी दिक्कतों के लिए जहाँ तक हो सके महिला डॉक्टर ही इलाज करेंगी. हालांकि डॉक्टरों के कड़े विरोध के बाद राजस्थान सरकार को ये आदेश वापस लेना पड़ा था. इससे पहले 2010 में भी एक विवाद हुआ था और इलाहाबाद कोर्ट को दख़ल देना पड़ा था और कोर्ट ने कहा था कि गाइनोकॉलजिस्ट पुरुष या महिला कोई भी हो सकता है. दरअसल सुल्तानपुर में एक गाइनिकॉलजिस्ट ने सरकारी पोस्ट के लिए अर्ज़ी भरी थी और विज्ञापन में लिखा था कि सिर्फ़ महिलाएँ ही अप्लाई करें. जब उनकी अर्ज़ी ठुकरा दी गई तो वो कोर्ट चले गए. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के सचिव जयेश लेले बताते हैं कि भारतीय क़ानून के मुताबिक पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट की प्रैटिक्स पर कोई बाध्यता नहीं है लेकिन पुरुष डॉक्टरों के लिए कई तरह की गाइडलाइन होती है जैसे कि अंदरूनी जाँच से पहले महिला मरीज़ की सहमति लेना ज़रूरी होती है. और कोई क़ानूनी मामला बन जाए तो ग्रीवांस सेल भी होता है जहाँ औरतें और डॉक्टर अपनी बात रखते हैं.
वापस डॉक्टर जी की बात करें तो इस फ़िल्म का निर्देशन किया है अनुभूति कश्यप ने और इसकी कहानी लिखी है सौरभ भारत ने. सौरभ भारत के पास बीडीएस डिग्री है पर बाद में वो डॉक्टरी छोड़ फ़िल्मों में आ गए. इस कहानी के पीछे की कहानी भी दिलचस्प है. सौरभ की पत्नी गाइनिकॉलजिस्ट है. जब वो पढ़ाई कर रही थीं और सौरभ उनसे मिलने गए तो उन्होंने देखा कि उस बैच में सब की सब लड़कियाँ ही थी और सिर्फ़ एक लड़का गाइनिकॉलजी की पढ़ाई कर रहा था. तब उन्होंने सोचा कि उस लड़के को कैसा लगता होगा. वहीं से कहानी का आइडिया आया. इत्तिफ़ाक़न कुछ ही दिन पहले की बात है जब मैं 2015 में आई कन्नड़ फ़िल्म चमक देख रही थी जिसमें हीरो एक गाइनिकॉलजिस्ट हैं.
हालांकि वो फ़िल्म का मेन प्लॉट नहीं है लेकिन फ़िल्म में एक सीन आता है जब ये दिखाया जाता है कि जब वो किसी महिला या दंपति की मदद कर पाता है, एक नन्हीं जान को दुनिया में ला पाता है तो उसे किस कदर ख़ुशी महसूस होती है. और जब एक नवजात बच्चे को वो नहीं बचा पाता तो वो अंदर से टूट जाता है. इससे जुड़े अपने अनुभव बाँटते हुए डॉक्टर पुनीत बेदी बताते हैं, “जब मैं एमबीबीएस कर रहा था तो मेरी रुचि चाइल्ड बर्थ की पूरी प्रकिया में थी, इसलिए मैंने अब्स्टेट्रीक्स और गाइनिकॉलजी में पढ़ाई करने के बारे में सोचा यानी प्रसूति और स्त्री रोग. और मुझे कभी कोई पछतावा नहीं हुआ. मेरी दादी बच्चे को जन्म लेते वक़्त मर गई थी. इसलिए मेरे पिता कहते थे कि कोई भी दूसरा डॉक्टर एक इंसान की जान बचाता है लेकिन एक गाइनिकॉलजिस्ट माँ-बच्चे समेत पूरे परिवार को सुरक्षित करता है.”
हालांकि डॉक्टर पुनीत बेदी आगाह भी करते हैं कि पुरुष हो या महिला, गाइनिकॉलजिस्ट होना ज़िंदगी भर का प्रण है. उनका कहना है, “होली हो दीवाली हो, आपको 24 घंटे उपलब्ध रहना पड़ता है. मैं अगर 25 साल से इस फ़ील्ड में हूँ तो मैं दिन-रात बंधा हुआ हूँ. क्योंकि जन्म तो किसी भी वक़्त हो सकता है और आपको मौजूद रहना होगा हमसे कहा जाता है कि मौका कोई भी हो, आप किसी पार्टी में लेकिन आप कभी ड्रिंक नहीं कर सकते. गाइनिकॉलजी में एक दिक्कत और भी है कि चाइल्ड बर्थ के दौरान कुछ भी दिक्कत हो जाए तो उन पर क़ानूनी कार्रवाई का ख़तरा ज़्यादा बना रहता है.”
ऐसा एक हाई प्रोफ़ाइल मामला इसी साल राजस्थान में सामने आया था जहाँ एक महिला गाइनिकॉलजिस्ट ने सुसाइड कर लिया था. बच्चे को जन्म देने के बाद एक गर्भवती महिला की मौत हो गई थी जिसके बाद स्थानीय नेताओं ने विरोध किया और पुलिस ने महिला डॉक्टर के ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 302 (हत्या) के तहत मुक़दमा दर्ज किया. डॉक्टर के परिवार का दावा है कि इस घटना की वजह से डॉक्टर अर्चना शर्मा डिप्रेशन में आ गईं और उन्होंने अपने निजी अस्पताल में आत्महत्या कर ली. डॉक्टर अर्चना शर्मा का लिखा हुआ भावुक नोट भी मिला था जिसमें उन्होंने लिखा है, “मैं मेरे पति, मेरे बच्चों से बहुत प्यार करती हूं. प्लीज़ मेरे मरने के बाद इन्हें परेशान नहीं करना. मैंने कोई ग़लती नहीं की, किसी को नहीं मारा. पीपीएच कॉम्प्लिकेशन हैं. इसके लिए डॉक्टर को इतना प्रताड़ित करना बंद करो. मेरा मरना शायद मेरी बेगुनाही साबित कर दे. डोंट हैरेस इनोसेंट डॉक्टर्स प्लीज़.”
इन तमाम चुनौतियों के बावजूद इस पेशे की सबसे अच्छी बात क्या है? इस पर डॉक्टर टंडन कहते हैं, “ये बहुत पाक रिश्ता है. एक महिला मरीज़ अपनी निजी ज़िंदगी में आपको प्रवेश करने की अनुमति देती है. जब वो महिला अंदरूनी जाँच करवाने के लिए तैयार होती है तो वो आप पर अपना भरोसा ज़ाहिर कर रही होती. ये भरोसा ही इस पेशे की सबसे ख़ूबसूरत बात है. लेकिन ये भरोसा सालों की मेहनत से हासिल होता है. भरोसा जीतने के लिए पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट को शायद ज़्यादा धैर्य दिखाना पड़ता है. लेकिन जब डिलिवरी के बाद कोई औरत मुझे कहती है कि मुझे तो टाँकों का दर्द महसूस ही नहीं हुआ तो ये मेरा हासिल है. जब पेट पर बिना चीरा लगाए मैं औरतों की लैप्रोस्कोपी से सर्जरी कर पाता हूँ तो ये मेरी उपल्बधि है क्योंकि वो औरतें बताती हैं कि रूढ़िवादी सामाजिक धारणाओं की वजह से पेट पर चीरे के कारण उनको बाद में शादी में दिक्कत होती है. एक बेहतर भविष्य में ये हमारा थोड़ा सा योगदान होता है.”
रही बात फ़िल्मी गाइनिकॉलजिस्ट और असल ज़िंदगी के गाइनिकॉलजिस्ट की तो डॉक्टर पुनीत ने बिना फ़िल्म देखे अपना मन बनाया हुआ है. “मुझे बॉलीवुड से कोई ज़्यादा उम्मीद नहीं है कि वो इस मुद्दे पर कोई सेंसिबल फ़िल्म बनाएँ. बॉलीबुड का एक बिजनेस मॉडल है जहाँ स्टारडम चलता है. हमारे यहाँ रिसर्च नहीं होता. अगर बॉलीवुड को लगेगा कि किसी ख़ास प्लॉट से फ़िल्म ज़्यादा चलेगी तो वो बना देंगे, फिर चाहे वो सही चित्रण हो या न हो. वहाँ साइंस कितनी होती है मुझे नहीं पता.” जबकि फ़िल्म के बारे में डॉक्टर टंडन कहते हैं कि बतौर पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट वो इस फ़िल्म से रिलेट कर पाएँगे और फ़िल्म के बहाने लोगों में पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट को लेकर थोड़ी जागरूकता तो बढ़ेगी और महिलाओं की सेहत को लेकर भी. फ़िल्म के अच्छे और बुरे होने की बहस से परे डॉक्टर पुनित इस एक बात पर ज़ोर देते हैं, “मेरा सिर्फ़ ये मानना है कि सेक्शुअल मुद्दे हों, गर्भावस्था को लेकर समस्याएं हों, मेनोपोज़ हो यानी महिलाओं की सेहत से जुड़ा कोई भी मुद्दा… अच्छे गाइनिकॉलजिस्ट को चुनिए, फिर वो महिला हो या पुरुष. एक बच्चे को दुनिया में लाना बड़ी ज़िम्मेदारी होती है. महिलाओं का स्वास्थ्य इस देश में बड़ा मुद्दा बनना चाहिए न कि जेंडर.”

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