उत्तराखंड, हिमाचल में लैंडस्लाइड रोकने को अर्ली वार्निंग सिस्टम के पायलट प्रोजेक्ट का परीक्षण

उत्तराखंड, हिमाचल में लैंडस्लाइड रोकने को अर्ली वार्निंग सिस्टम के पायलट प्रोजेक्ट का परीक्षण

हमारे देश में, खासकर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, दार्जिलिंग, तमिलनाडु आदि के पर्वतीय क्षेत्रों में मानसून के दौरान जमीन-पहाड़ खिसकने की बढ़ती घटनाओं और उससे होने वाले जान-माल के भारी नुकसान को ध्यान में रखते हुए अब इसकी चेतावनी देने वाले एक अर्ली वार्निंग सिस्टम की जरूरत महसूस होने लगी है. फिलहाल एक पायलट परियोजना के

हमारे देश में, खासकर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, दार्जिलिंग, तमिलनाडु आदि के पर्वतीय क्षेत्रों में मानसून के दौरान जमीन-पहाड़ खिसकने की बढ़ती घटनाओं और उससे होने वाले जान-माल के भारी नुकसान को ध्यान में रखते हुए अब इसकी चेतावनी देने वाले एक अर्ली वार्निंग सिस्टम की जरूरत महसूस होने लगी है. फिलहाल एक पायलट परियोजना के तहत भूस्खलन की पूर्व चेतावनी देने वाले एक प्रोटोटाइप के परीक्षण का काम चल रहा है. जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई) और ब्रिटिश जियोलाजिकल सर्वे के सहयोग से बने सिस्टम को रीजनल लैंडस्लाइड वार्निंग सिस्टम कहा जा रहा है. सफल रहने पर इसे वर्ष 2025 की शुरुआत में देश के कई हिस्सों में स्थापित किया जा सकता है.
साल 2020 के मानसून के बाद से जीएसआई ने परीक्षण और मूल्यांकन के लिए दो इलाकों में जिला प्रशासन को मानसून के दौरान दैनिक भूस्खलन पूवार्नुमान बुलेटिन जारी करना भी शुरू कर दिया है. फिलहाल अमेरिका, ताइवान, हांगकांग, इटली और यू.के. समेत विश्व के 26 देशों में भूस्खलन की पूर्व चेतावनी देने वाली प्रणाली काम कर रही है. मानसून का सीजन शुरू होते ही देश के विभिन्न हिस्सों खासकर हिमालय पर बसे और उससे सटे इलाको में भूस्खलन या मिट्टी या चट्टान खिसकने की खबरें आने लगती हैं. हाल के वर्षों में ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं.
केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2015 से 2022 के दौरान विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में मानसून के दौरान भूस्खलन की 3,782 घटनाएं हुईं. इनमें सबसे ज्यादा 2,239 घटनाएं केरल में हुई और 376 घटनाएं दूसरे नंबर पर रहे पश्चिम बंगाल में. जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के साथ ही तेजी से बढ़ते शहरीकरण को भी मानसून का चरित्र बदलने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि अकेले इसी साल सितंबर तक मानसून के दौरान देश के 10 राज्यों में भूस्खलन की 182 घटनाएं हो चुकी हैं.
भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के मुताबिक, हिमालय, पूर्वोत्तर स्थित हिमालय की पहाड़ियों, नीलगिरि, पूर्वी घाट और विंध्य पर्वतीय इलाका भूस्खलन के प्रति बेहद संवेदनशील है. आंकड़ों के लिहाज से बर्फ से ढके इलाकों को छोड़ कर देश के कुल क्षेत्रफल का 12.6 फीसदी हिस्सा भूस्खलन और इसके खतरों के प्रति संवेदनशील है. मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि भूस्खलन की घटनाएं अमूमन बाढ़ या भूकंप जैसी प्राकृतिक वजहों से होती हैं. हालांकि सड़क, भवनों और रेलवे के निर्माण या फिर कोयले और पत्थर की खदानें और पनबिजली परियोजनाएं भी पर्वतीय इलाके की जमीन को कमजोर बना रही हैं. यही वजह है कि पर्वतीय इलाकों में मिट्टी और चट्टान खिसकने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं.
वर्ष 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ इलाके में बादल फटने और ग्लेशियर पिघलने के कारण भारी तबाही मची थी और जान-माल का भारी नुकसान हुआ था. उस घटना के बाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि वह आपदा प्राकृतिक वजहों से जरूर हुई थी, लेकिन पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण जैसी गतिविधियों ने उसकी भयावहताकई गुना बढ़ा दी थी. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के एक अधिकारी बताते हैं कि जब पर्वतीय ढलानों पर आधारभूत विकास से जुड़ी गतिविधियां बढ़ती हैं तो वह इलाका भूस्खलन के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो जाता है यानी वहां इसका खतरा कई गुना बढ़ जाता है. वर्ष 2013 के हादसे के बाद एनडीएमए ने भूस्खलन और हिमस्खलन के प्रबंधन के लिए कई दिशा निर्देश जारी किए थे लेकिन वर्ष 2021 की अपनी रिपोर्ट में उसने माना है कि भूस्खलन से सबसे प्रभावित इलाकों में उस दिशा निर्देश को जमीनी स्तर पर प्रभावी तरीके से लागू नहीं किया जा सका है.
केंद्र सरकार ने कुछ महीने पहले लोकसभा में बताया था कि भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) ने राष्ट्रीय पर्यावरण अनुसंधान परिषद (यूके) की वित्तीय सहायता और ब्रिटिश भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण (बीजीएस) के सहयोग से भारत के लिए एक प्रोटोटाइप क्षेत्रीय भूस्खलन-पूर्व चेतावनी प्रणाली सिस्टम (एलईडब्ल्यू) विकसित की है. फिलहाल इस प्रणाली को दो जगह परखा जा रहा है. उनमें से एक पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में और दूसरा तमिलनाडु के नीलगिरी जिले में. मौसम विशेषज्ञ जी.सी.दस्तीदार कहते हैं कि भारी बारिश और बादल फटने के दौरान भूस्खलन आम है. एक मजबूत और भरोसेमंद चेतावनी प्रणाली की सहायता से ऐसी घटनाओं से निपटने और जान-माल की रक्षा करने में मदद मिल सकती है.
पहले से चेतावनी देने वाली प्रणाली का परीक्षण जारी रहने के बावजूद वैज्ञानिकों और मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि भूस्खलनों की सटीक चेतावनी देने की राह में कई तकनीकी चुनौतियां हैं. यह प्रणाली बाढ़ या तूफानों की चेतावनी प्रणाली से एकदम अलग है. इसके लिए सक्रिय और सतत निगरानी जरूरी है. मौसम विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि मानसून के दौरान होने वाली बारिश ही भूस्खलन की सबसे बड़ी वजह है. ऐसे में बारिश के बारे में सटीक पूर्वानुमान लगाए बिना किसी खास इलाके में भूस्खलन की पूर्व चेतावनी देना संभव नहीं होगा. बारिश का पूर्वानुमान एक बड़े इलाके या किसी जिले में लगाया जाता है. लेकिन भूस्खलन सीमित इलाके में होता है. ऐसे में जिला स्तर पर इसकी चेतावनी जारी करने से खास फायदा नहीं होगा.
कई निजी संस्थान भी भूस्खलन की पूर्व चेतावनी की प्रणाली पर काम करते रहे हैं. मिसाल के तौर पर कोयंबटूर (तमिलनाडु) स्थित अमृता विश्व विद्यापीठम ने वर्ष 2018 में सिक्किम और केरल के मुन्नार में पायलट परियोजना के तौर पर भूस्खलन की निगरानी और चेतावनी प्रणाली की स्थापना की थी. ऐसी ही एक अन्य परियोजना में आईआईटी, मंडी ने हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के दस स्थानों पर मोशन सेंसर आधारित चेतावनी प्रणाली स्थापित की थी. यह उपकरण मौसम, मिट्टी की नमी, मिट्टी के जगह बदलने और बारिश की तीव्रता के बारे में आंकड़े जुटाता है. मिट्टी के बड़े पैमाने पर जगह बदलने की स्थिति में यह अलर्ट जारी करता है. लेकिन यह प्रणाली भी सटीक साबित नहीं हो सकी है. हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन की कई बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं. जीएसआई की लैंडस्लाइड स्टडीज डिवीजन के निदेशक डॉ. शैबाल घोष का कहना है कि हमने वर्ष 2020 में दार्जिलिंग और नीलगिरी में इस पायलट परियोजना पर काम शुरू किया था. अमूमन ऐसी प्रणाली की सटीक जांच और ठोस पूर्वानुमान में आठ से 10 साल का समय लगता है. लेकिन भारत में हम इतना लंबा इंतजार नहीं कर सकते. इसलिए वर्ष 2025 तक इस प्रणाली को 10 और राज्यों में स्थापित करने की दिशा में काम चल रहा है.

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