खेत महिलाओं पर मौसम की मार, भूखे पेट सोने की नौबत

खेत महिलाओं पर मौसम की मार, भूखे पेट सोने की नौबत

भारत एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद उच्च बेरोजगारी और महंगाई से लड़ रहा है. कार्यकर्ता और विश्लेषक कृषि क्षेत्र में महिलाओं के लिए ज्यादा मदद की अपील कर रहे हैं. पिछली भारी बारिश ने खेती किसानी को जिस तरह तबाह करके रख दिया, अब उसकी मुसीबतों की मार महिला किसानों को

भारत एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद उच्च बेरोजगारी और महंगाई से लड़ रहा है. कार्यकर्ता और विश्लेषक कृषि क्षेत्र में महिलाओं के लिए ज्यादा मदद की अपील कर रहे हैं. पिछली भारी बारिश ने खेती किसानी को जिस तरह तबाह करके रख दिया, अब उसकी मुसीबतों की मार महिला किसानों को झेलनी पड़ रही है. खेतों और बागों में काम करने वाली हमारे देश की महिला किसानों पर बाकी चीजों के साथ मौसम की मार भी ज्यादा बुरा असर डाल रही है. एक तरफ उनके लिए घर न छोड़ पाने की दिक्कत है तो दूसरी तरफ रोजगार के सीमित साधन आखिर वो करें भी तो क्या?
बाढ़ ने जब महाराष्ट्र के बीड में खेतों को तबाह कर दिया तो दो बच्चों की मां और एक हाथ से दिव्यांग देवनबाई धाईगुड़े पर मौसम की बुरी मार पड़ी. उन्हें कई-कई दिन भूखे पेट सोकर गुजारा करना पड़ा है. बारिश ने देवनबाई समेत तमाम महिलाओं से काम छीन लिया. वे 150 रुपये की दिहाड़ी पर खेतों से खर-पतवार हटाने का काम किया करती थीं. 35 साल की बेरोजगार देवनबाई ने स्थानीय साहूकार से उधार लिया, ताकि बच्चों के लिए रोज के खाने का इंतजाम कर सकें. एल्युमिनियम शीट से बने अपने छोटे से घर के बाहर खड़ीं देवनबाई कहती हैं, कई दिन, मैं रात का खाना खाये बिना सोती हूं ताकि मेरे दोनों बच्चे खाना खा सकें. आखिर मैं बचत और उधार के पैसे से कब तक उनके लिए खाने का इंतजाम कर सकती हूं? देवनबाई के पास अब नवंबर में फसल के तैयार होने तक इंतजार के अलावा कोई विकल्प नहीं है. उन्हें उम्मीद है कि उस समय खेतों में काम मिल जाएगा.
भारत में कृषि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं पर बाकी चीजों के साथ ही बिगड़ते जलवायु ने भी बुरा असर डाला है. महंगाई और महामारी के बाद की मंदी के साथ इससे फसलों और आर्थिक जद्दोजहद के लिए ज्यादा खतरा पैदा हुआ है. ग्रामीण भारत में तीन-चौथाई कामकाजी महिलाएं जीविका के लिए खेती पर निर्भर हैं. सरकारी आंकड़ों से पता चलता है, इनमें से बहुत कम ही हैं जो खुद किसान हैं या खेत की मालिक हों. इसका मतलब है कि सरकार की सब्सिडी और सहायता कार्यक्रम तक पहुंचने के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ता है.
बेंगलुरु के अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर केदार कुलकर्णी कहते हैं, कृषि क्षेत्र में काम गंवाने वाले पुरुष नई नौकरियाों के लिए शहरों की ओर पलायन कर सकते हैं. महिलाएं अक्सर घरेलू जिम्मेदारियों में बंध जाती हैं. महिलाएं जलवायु परिवर्तन से पड़ने वाले असर, आर्थिक मंदी, या सरकारी नीतियों की विफलता की सबसे आसान शिकार हैं. भारत की अर्थव्यवस्था में 15% हिस्सा खेती का है और ये 3 हजार अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था है जिस पर करीब आधी आबादी कामकाज के लिए टिकी है. हालांकि, शहरों में पुरुषों के पलायन की वजह से गांवों की खेतीबाड़ी में महिलाओं की संख्या ज्यादा हो रही है, लेकिन
अनिश्चित मौसम के नतीजों से अक्सर महिलाओं को अकेले ही जूझना पड़ता है. रिसर्च ग्रुप जर्मनवाच के नए ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स के मुताबिक भारत 2019 में जलवायु परिवर्तन से सातवां सबसे ज्यादा प्रभावित देश था. असमान मानसूनी बारिश और बढ़ते तापमान ने देश भर में खाद्य उत्पादन और खेती की आजीविका को लेकर डर पैदा किया है. बीड में ग्रामीण महिलाओं की मदद करने वाली गैर सरकारी संस्था सरस्वती सेवाभावी के सुपरवाइजर नामदेव चोपडे कहते हैं, “जब महिला कृषि श्रमिकों को आय नहीं मिलती है, तो उनके बच्चों को स्कूल से बाहर निकलना पड़ता है, कम उम्र में उनकी बेटियों की शादी हो जाती है, कई घरेलू हिंसा से पीड़ित होती हैं. मूल रूप से, महिलाओं की आजादी छीन ली जाती है और पितृसत्ता धीरे-धीरे लौटने लगती है.”
सरकार ने हाल के सालों में महिला किसानों के लिए कई तरह के कार्यक्रम शुरू किए हैं. इनमें स्वयं सहायता समूहों का निर्माण शामिल हैं ताकि कृषि उत्पादकता में सुधार हो और ग्रामीण महिलाओं को स्थायी काम मिले. महाराष्ट्र की श्रम विभाग की डिप्टी कलेक्टर सुनीता म्हैस्कर कहती हैं कृषि मजदूर असंगठित मजदूरों की श्रेणी में आते हैं और फिलहाल खेतों में काम करने वालीं महिला मजदूरों के लिए कोई विशेष अधिनियम या योजना नहीं है. असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए लागू सभी योजनाएं उन पर भी लागू होती हैं.
हालिया श्रम सुधारों के तहत अनियमित कामगार बीमा और पेंशन के हकदार हैं. एक्टिविस्ट कहते हैं, सामाजिक सुरक्षा संहिता को 2020 में मंजूरी दी गई और जुलाई में लागू की गई लेकिन कामगारों के बीच इस बारे में बहुत कम जागरूकता है. श्रम अधिकारों पर काम करने वाली संस्था आजीविका ब्यूरो के दीपक पराडकर कहते हैं “ऐसा कोई रास्ता नहीं है जिससे कि बैंक अकाउंट तक ना खुलवा सकने वाले ग्रामीण खेतिहर मजदूरों को योजना के बारे में बताया जा सके.” वो चाहते हैं कि भारत सरकार कार्यक्रम के प्रचार पर ज्यादा ध्यान दे.
देवनबाई की ही तरह बीड जिले के गोलेगांव की 37 साल की महिला मीरा बाबर भी मौसम की मार की वजह से खेत के काम से वंचित हैं. उनकरे पति की मौत हो चुकी है. बाबर कहती हैं कि वह अभी तो अपने 13 साल के बेटे को पब्लिक स्कूल में भेज पा रही हैं क्योंकि उनके पास बचत और रिश्तेदारों और पड़ोसी से उधार लिए पैसे हैं लेकिन उन्हें चिंता भविष्य की है. मौसम की मार की वजह से काम ना होने पर वे आगे कैसे खर्च चलायेंगी.

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