उजड़ते हिमनदों पर 7.5 अरब लोग निर्भर, 50 लाख लोगों को पहाड़ों से भागना पड़ेगा

उजड़ते हिमनदों पर 7.5 अरब लोग निर्भर, 50 लाख लोगों को पहाड़ों से भागना पड़ेगा

गर्म हवाएं हिमालय-हिंदुकुश के उन हिमनदों को पिघला रही हैं, जिन पर 7.5 अरब लोग निर्भर हैं. हिमनदों के पिघलने के कारण गांव बाढ़ में डूब रहे हैं और लोगों को पीने के पानी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. प्रचंड मॉनसून और भयंकर सूखे में एक चीज समान है, वॉटर साइकिल यानी जल

गर्म हवाएं हिमालय-हिंदुकुश के उन हिमनदों को पिघला रही हैं, जिन पर 7.5 अरब लोग निर्भर हैं. हिमनदों के पिघलने के कारण गांव बाढ़ में डूब रहे हैं और लोगों को पीने के पानी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. प्रचंड मॉनसून और भयंकर सूखे में एक चीज समान है, वॉटर साइकिल यानी जल चक्र. जलवायु परिवर्तन और दूसरी इंसानी गतिविधियां, धरती पर जीवन को संभव करने वाली इस अहम प्रणाली को बाधित कर रही हैं. हाइड्रोलॉजिकल या वॉटर साइकिल वो प्रक्रिया है, जिसके जरिए पानी धरती पर जमीन, समुद्रों और वायुमडंल से होता हुआ गुजरता है. गैस, द्रव या ठोस की अपनी तीनों प्राकृतिक अवस्थाओं में पानी उस कुदरती चक्र का हिस्सा बनता है जो सतत रूप से पानी की निर्बाध सप्लाई बनाए रखता है, वही पानी हमारे और दूसरे प्राणियों के अस्तित्व के लिए जरूरी है.
दुनिया में पानी की निश्चित आपूर्ति में करीब 97 फीसदी पानी खारा है. शेष 3 फीसदी ताजा पानी है जिसका इस्तेमाल हम पीने, नहाने या फसलो को सींचने के लिए करते हैं. उसमें से भी अधिकांश हालांकि, हमारी पहुंच से बाहर है, वो बर्फ में दबा हुआ है या धरती के नीचे कहीं गीली नम चट्टानों में बंद है. दुनिया की कुल जलापूर्ति का सिर्फ करीब एक फीसदी पानी ही धरती पर तमाम जीवन को टिकाए रखने के लिए उपलब्ध है. झीलों, नदियों, महासागरों, और समुद्रों में जमा पानी लगातार सूरज की रोशनी में तपता है. जैसे ही सतह गर्म होती है, द्रव के रूप में पानी वाष्पित होकर भाप बन जाता है और वायुमंडल में चला जाता है. हवा वाष्पीकरण की इस प्रक्रिया को गति दे सकती है. पौधे भी अपने छिद्रों यानी स्टोमा या अपनी पत्तियों या तनों के जरिए भाप छोड़ते हैं, उस प्रक्रिया को ट्रांसपिरेशन यानी वाष्पोत्सर्जन कहा जाता है.
हवा में पहुंचकर, भाप ठंडी होने लगती है और धूल, धुएं या दूसरे प्रदूषकों के आसपास घनी होकर बादल बना देती है. ये बादल धरती के चारों ओर क्षैतिज पट्टियों में मंडराते हैं, जिन्हें वायुमंडलीय नदियां कहा जाता है- एटमोस्फरिक रिवर्स. मौसम प्रणालियों को हरकत मे लाने वाले वैश्विक चक्र की ये एक प्रमुख खूबी है. जब पर्याप्त भाप जमा हो जाती है तो बादलों में जमा बूंदे एक दूसरे मे विलीन होने लगती है और बड़ा आकार लेने लगती हैं. आखिरकार, वे बहुत भारी हो जाती हैं और बारिश के रूप में धरती पर गिर पड़ती हैं या बर्फ या तूफ़ान के रूप में- ये हवा के तापमान पर निर्भर करता है. ये वर्षा नदियों, झीलों और दूसरे जलस्रोतों को रिचार्ज कर देती है यानी पानी से भर देती है और चक्र फिर से शुरू हो जाता है. गुरुत्व और दबाव के चलते पानी मिट्टी में भी रिस जाता है. जहां वो भूमिगत जलाशयों या गीली चट्टानो में जमा हो जाता है. वो और नीचे बहता रहता है. कभी कभी हजारों सालों तक, उस प्रक्रिया को भूजल प्रवाह कहा जाता है. और अंत में किसी जलस्रोत में मिलकर चक्र का हिस्सा बन जाता है.
हाल का शोध दिखाता है कि दुनिया के कुछ हिस्सों में, मनुष्य जनित जलवायु परिवर्तन की वजह से जल चक्र की रफ्तार में तेजी आ रही है. ज्यादा गर्म तापमान, निचले वायुमंडल को तपा रहे हैं और वाष्पीकरण को बढ़ा रहे हैं, इसके चलते हवा में ज्यादा भाप बन रही है. हवा में ज्यादा पानी का मतलब, वर्षण का ज्यादा अवसर, और अक्सर ये गहन, अप्रत्याशित तूफान या अतिवृष्टि के रूप में गिरता है. इसका उलट भी हो रहा है. वाष्पीकरण में वृद्धि सूखे के लिहाज से संवेदनशील इलाकों में शुष्क स्थितियों को बढ़ा रही है. धरती पर टिके रहने के बजाय, पानी वायुमंडल में वाष्पित हो रहा है.
एशिया के पिघलते ग्लेशियर लोगों को पहाड़ी इलाकों से भागने पर मजबूर कर देंगे. स्पेन के बार्सिलोना में समुद्री विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं के हाल के अध्ययन ने दिखाया कि कैसे जलवायु परिवर्तन जल चक्र को बदल रहा है. इसके लिए समुद्र की सतह के खारेपन का अध्ययन किया गया जो वाष्पीकरण के तेज होन के साथ बढ़ जाता है. अध्ययन के प्रमुख लेखक एस्ट्रैला ओलमेडो ने एक प्रेस बयान में कहा, “जल चक्र में बढ़ोतरी का महासागर और महाद्वीप दोनों पर असर पड़ता है जिसमें तूफान और प्रचंड हो सकते हैं. वायुमंडल में घूमती हुई पानी की अधिक मात्रा बारिश में बढ़ोतरी के बारे में भी बता सकती है जो कुछ ध्रुवीय इलाकों में देखी गई है. जहां बर्फबारी की जगह बारिश होने की घटनाएं हिम पिघलाव की गति को तेज कर रही है.”
हिमालय के ग्लेशियर उजड़े तो भारत का क्या होगा. ये साफ हो चुका है कि फॉसिल ईंधन के उत्सर्जन में बड़ी कटौतियां आसान नहीं है, और कोई उल्लेखनीय सुधार जल्द नहीं होंगे. लेकिन जल चक्र को स्थिर करने वाले कुछ और तत्काल उपाय भी संभव है. दलदली इलाकों को बहाल करने और कृषि पर पुनर्विचार करने, जल संरक्षण करने वाली कृषि तकनीक को शामिल करने और मिट्टी को संरक्षित करने और संवारने से भूमि की पानी के अवशोषण यानी उसे सोखने, साफ करने और जमा करने की क्षमता बनी रह सकती है या बहाल हो सकती है. नदियों और जलमार्गों को ज्यादा प्राकृतिक अवस्था में वापस लाने से भी कुछ नुकसान की भरपाई हो सकती है. यूरोप और अन्य स्थानों पर पुराने पड़ चुके बांधों और मेड़ों को हटाने के प्रोजेक्ट, पानी को अवशोषित करने वाले और भूजल भंडारो को भरने में मददगार हैं. साथ ही बाढ़ के मैदानो की पुनर्बहाली भी एक अहम कदम है.
जल चक्र को मदद देने के लिए शहर भी कुदरत आधारित समाधानों की ओर मुड़ सकते हैं. वे शहरी सतहों को ज्यादा पानी सोखने लायक बना सकते हैं. स्पंज शहर छिद्रयुक्त सतहों का इस्तेमाल पानी को सड़कों, चौराहों और दूसरी जगहों पर बहने देता है, वो यूं ही नहीं बेकार बह जाता है. ये सूखे की अवधियों के लिए पानी को जमा करता है और साथ ही साथ बाढ़ से भी निपटने में मदद करता है.
मध्य एशिया में हिंदुकुश और हिमालय की पर्वत ऋंखलाओं के वॉटर-शेड यानी पनढाल में स्थित शहरों और इलाकों को आने वाले वर्षों में इस तरह के समाधानों की ओर जाना पड़ेगा. वहां के अरबों लोग ताजा पानी के लिए बर्फ के मौसमी जमाव और पहाड़ों और ग्लेशियरों में जमा बर्फ पर निर्भर हैं.
नेपाल में इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटड माउंटेन डेवलेपमेंट की 2019 की एक स्टडी के मुताबिक, आशंका है कि इन इलाकों के एक तिहाई प्रमुख बर्फीले मैदान इस सदी के अंत तक गायब हो जाएंगे. ये स्थिति तब आएगी जब हम ग्लोबल वॉर्मिंग को डेढ़ डिग्री सेल्सियस पर बनाए रख पाते हैं.
पिघले हुए पानी के सतत प्रवाह के बिना, अरबों लोगो के लिए पानी की किल्लत बढ़ जाएगी. भूजल से कुछ कमी की भरपाई हो सकती है लेकिन आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन की वजह से भूजल के स्तर में और गिरावट आते जाने का अनुमान है. हिंदुकुश हिमालय ऋंखला में स्थित भारत के लद्दाख, जैसे इलाकों में खेती करना पहले ही और मुश्किल हो चुका है. वैज्ञानिकों ने वहां पिछले कुछ दशकों में बर्फबारी मे गिरावट और ग्लेश्यिरो का पिघलाव दर्ज किया है.
नेपाल स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटड माउंटेन डेवलेपमेंट के फिलिपस वेस्टर कहते हैं, “इस जलवायु परिवर्तन के बारे में आपने सुना नहीं होगा. दुनिया के सबसे नाज़ुक और संवेदनशील पर्वतीय इलाकों में से ये है और इस इलाके के लोगों पर असर का एक व्यापक दायरा होगा- मौसमी घटनाओं की अतिशयता में बढ़ोतरी, कृषि पैदावार में कमी और प्राकृतिक विपदाओं की ज्यादा आमद.”
उत्तरी पाकिस्तान में हसनाबाद के पास इसी साल मई में एक ग्लेशियर के टूटने से कई गांव बाढ़ की चपेट में आ गए थे. इसके अलावा दो पनबिजली संयंत्र और एक पुल ध्वस्त हो गए. उसी दौरान सिद्दीक बेग और उनका परिवार वहीं पर बिना पानी के संघर्ष कर रहा था. कई दिन तक हुई मूसलाधार बारिश ने 75 से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी और पानी की पाइपलाइन भी नष्ट हो गई थी. सिद्दीक बेग इस्लामाबाद विश्वविद्यालय के हाई माउंटेन रिसर्च सेंटर में आपदा मामलों के जानकार हैं. वो कहते हैं, “हमारे घरों में पीने का पानी नहीं था, इसलिए मुझे अपने परिवार के साथ होटल का रुख करना पड़ा.” ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले करीब पचास लाख लोगों पर जलवायु परिवर्तन की दोहरी मार पड़ रही है. एक तो बाढ़ की वजह से चारों ओर पानी ही पानी है, और दूसरी ओर पीने के पानी का संकट है.
मई में ही पाकिस्तान के जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने चेतावनी दी थी कि अप्राकृतिक गर्म मौसम की वजह से 33 हिमनद टूटने के कगार पर हैं. बेग कहते हैं कि इस इलाके के लोगों को 70 फीसदी पेयजल की आपूर्ति इन हिमनदों से ही होती है. यदि हिमनद खत्म हो गए तो बारिश के पानी से इस पेयजल की भरपाई नहीं हो सकेगी. अप्रैल में, पाकिस्तान में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी पड़ी और तापमान 49 डिग्री सेल्सियस तक चला गया. इस तापमान की वजह से पहाड़ों पर बर्फ पिघलने लगी और पानी आकर प्राकृतिक बांधों में जमा हो गया. बांधों में बहुत ज्यादा पानी भर जाने के कारण बांध टूटने लगे. बेग कहते हैं कि कुछ साल पहले तक बढ़ रहे ग्लेशियर अब स्थिर नहीं रह गए हैं. उनके मुताबिक, “यह पूरा क्षेत्र या यों कहें कि एशिया का ऊंचे पहाड़ों वाला यह भाग जलवायु परिवर्तन की मार सह रहा है. यह सच्चाई है.”
एशिया के उच्च पर्वतीय क्षेत्र को सेंट्रल एशियन माउंटेन रीजन भी कहा जाता है और इसमें हिमालयन, कराकोरम और हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखलाएं आती हैं जो चीन से लेकर अफगानिस्तान तक फैला है. इस क्षेत्र में करीब 55 हजार ग्लैशियर हैं जिनमें पेयजल का जितना भंडार है, उतना पृथ्वी पर एक साथ पेयजल कहीं नहीं है, सिवाय उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के. इन हिमनदों से पिघला हुआ जल एशिया की दस सबसे बड़ी नदियों को जीवन देता है जिन पर करीब दो करोड़ लोगों की आबादी निर्भर रहती है. साल 2015 की विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र नदियां ही करीब 7.5 अरब लोगों को जीवन देती हैं. चीन की यांग्सी नदी एशिया की सबसे बड़ी नदी है तो दक्षिण-पूर्व एशिया की मेकॉन्ग नदी भी हिमालयी हिमनदों के पानी पर ही निर्भर हैं. ग्लेशियर के पिघलने से वो बांध भी बह गया जो बिजली पैदा करने के लिए बनाया गया थाग्लेशियर के पिघलने से वो बांध भी बह गया जो बिजली पैदा करने के लिए बनाया गया था.
बढ़ते तापमान की वजह से इन सभी पर खतरा मंडरा रहा है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी यूएनडीपी के मुताबिक, दुनिया के मुकाबले हिमालयी क्षेत्र में तापमान करीब दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है जिसकी वजह से बर्फ पिघल रही है और बर्फबारी हो रही है. यदि दुनिया भर के नेता अपने वादे के मुताबिक वैश्विक तापमान में 1.5 फीसद कमी करने के फैसले पर अमल नहीं करते हैं तो इस शताब्दी के अंत तक दक्षिण एशिया के पहाड़ों पर जो बर्फ है, उसका आधा या फिर दो-तिहाई हिस्सा गायब हो जाएगा. जर्मनी के एक गैर लाभकारी समूह जर्मनवॉच के क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स के मुताबिक, नेपाल और पाकिस्तान उन दस प्रमुख देशों में हैं जहां जलवायु परिवर्तन का खतरा सबसे ज्यादा है, जबकि भारत और अफगानिस्तान इस मामले में शीर्ष के बीस देशों में आते हैं.
भारत में कोलकता के जीआईएस विश्वविद्यालय में ग्लेशियर मामलों के जानकार अतनु भट्टाचार्य कहते हैं, “ग्लेशियरों को निश्चित तौर पर पिघलना है.” हालांकि अभी ताजे यानी पीने योग्य पानी की उपलब्धता पर्याप्त मात्रा में है लेकिन भविष्य में यह कितना बचा रहेगा, यह स्पष्ट नहीं है. नीति निर्धारकों को खेती के बारे में भी सोचना चाहिए जो कि इस क्षेत्र में लोगों की आमदनी और आजीविका का सबसे प्रमुख साधन है. उनके मुताबिक खेती में जल प्रबंधन और जल शोधन के क्षेत्र में निवेश करने की जरूरत है. पिघलते हिमनदों की वजह से बिजली आपूर्ति भी प्रभावित हो रही है. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर झीलों के बाहरी हिस्सों में 250 से ज्यादा पनबिजली परियोजनाएं हैं. झीलों में पानी बढ़ने से यहां भी बाढ़ आ जाती है. हर तीन में से एक बिजली संयंत्र को इस बाढ़ का अनुभव होता है और इसकी वजह से होने वाला नुकसान इनके निर्माण पर होने वाले खर्च की तुलना में कहीं ज्यादा होता है. यहां तक कि यदि उन्हें फिर से डिजाइन किया गया तो जलाशयों के सूखने तक बिजली संकट का सामना करना पड़ेगा. भट्टाचार्य कहते हैं, “यदि हमारे पास हिमालय से आने वाले पानी की कमी है या पानी नहीं आता है तो हम बिजली नहीं पैदा कर सकते हैं.”
पिछले साल भारत ने गंगा नदी पर नये पनबिजली संयंत्रों के निर्माण पर रोक लगा दी थी ताकि निचले इलाकों में नदियों के पानी के बहाव को बनाए रखा जा सके और नदियां सूखने न पाएं. वायु प्रदूषण को कम करके ग्लेशियरों के पिघलने को रोक सकते हैं. जीवाश्म ईंधनों के जरिए लोग उन गैसों को वायुमंडल में छोड़ते हैं जो पृथ्वी के चारों ओर ग्रीनहाउस की तरह काम करती हैं और धरती गर्म होने लगती है. कोयला, तेल और गैस जलाने पर कालिख और पार्टिकुलेट मैटर छोड़ते हैं. हवा के जरिए ये काले पदार्थ बर्फ के ऊपर जम जाते हैं और सफेद बर्फ की तुलना में ज्यादा गर्मी सोखते हैं. इस वजह से वातावरण में कम सौर विकिरण होता है, बर्फ तेजी से गर्म होती है और पिघलने लगती है. जानकारों का कहना है कि वायु प्रदूषण में कमी लाकर ग्लैशियरों को बचाया जा सकता है. इस इलाके में दो-तिहाई राख ईंट के भट्ठों और लकड़ियों के जलाने से पैदा होती है. इसके बाद सबसे ज्यादा प्रदूषण डीजल वाहनों से होता है. कुल प्रदूषण में डीजल वाहनों की हिस्सेदारी 7 से 18 फीसद तक होती है.
ग्लेशियरों के पिघलने की दर को कम करने के तरीके ढूंढ़ने के बावजूद, बेग जैसे तमाम वैज्ञानिक भविष्य को लेकर बहुत चिंतित हैं. बेग का अनुमान है कि पाकिस्तान के इस पहाड़ी इलाके में करीब सत्तर लाख लोगों के ऊपर बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है. वो कहते हैं, “इन लोगों को यहां से हटाकर कहीं और बसाने की जरूरत है, किसी सुरक्षित स्थान पर. लेकिन धरती को गर्म होने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार देशों को रोक पाना हमारे वश में नहीं है.” पाकिस्तान जलवायु को नुकसान पहुंचाने वाली सिर्फ एक फीसदी गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है. अफगानिस्तान और नेपाल जैसे देश तो और भी कम उत्सर्जन करते हैं लेकिन उसकी तुलना में नुकसान कहीं ज्यादा झेल रहे हैं. लगातार आने वाली बाढ़, नष्ट हो रहे गांव, टूटी पाइपलाइनें और पेय जल की कमी को देखते हुए बेग अपने परिवार के बारे में पहले ही एक निर्णय ले चुके हैं, “एक दिन हम यहां से चले जाएंगे.”
(डीडब्ल्यू से साभार टिम शाउएनबेर्ग और मार्टिन कुएब्लर की रिपोर्टर)

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