इस तरह सतह से उठे शी जिनपिंग और पूंजीवाद की पैरोकारी में बिछ गए

इस तरह सतह से उठे शी जिनपिंग और पूंजीवाद की पैरोकारी में बिछ गए

शी जिनपिंग तीसरी बार चीन के राष्ट्रपति बन रहे हैं. 2012 में जब शी जिनपिंग पहली बार चीन के राष्ट्रपति बने थे तो कई विशेषज्ञों ने कहा था कि वह कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे उदारवादी नेता साबित होंगे. इसकी वजह थी तब तक खबरों से दूर रहा उनका व्यक्तित्व, उनका पारिवारिक इतिहास और शायद एक

शी जिनपिंग तीसरी बार चीन के राष्ट्रपति बन रहे हैं. 2012 में जब शी जिनपिंग पहली बार चीन के राष्ट्रपति बने थे तो कई विशेषज्ञों ने कहा था कि वह कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे उदारवादी नेता साबित होंगे. इसकी वजह थी तब तक खबरों से दूर रहा उनका व्यक्तित्व, उनका पारिवारिक इतिहास और शायद एक दिग्भ्रमित उम्मीद. रविवार को जब शी ने ऐतिहासिक तीसरी बार पार्टी का नेता पद संभाला, तो वे सारी उम्मीदें धराशायी पड़ी थीं. माओ त्से तुंग के बाद चीन के सबसे शक्तिशाली नेता बन गए शी जिनपिंग तीसरी बार कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चुने गए हैं. पहले अधिकतम दो बार ही कोई व्यक्ति चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का नेता और देश का राष्ट्रपति बन सकता था लेकिन शी ने अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान उस नियम को बदल दिया, जिसकी बदौलत उन्हें यह ऐतिहासिक तीसरा कार्यकाल हासिल होने जा रहा है. शी ने दिखाया है कि उन्हें लोग अब भी कितना कम समझते हैं. अपनी महत्वाकांक्षाओं को लेकर वह एकदम निष्ठुर साबित हुए. उन्होंने असहमति को पूरी क्रूरता से कुचला और उनका नियंत्रण आधुनिक चीन के जीवन में हर पहलू तक पहुंचा. एक मशहूर गायिका के पति से लेकर शी की हस्ती अब खुद एक ऐसे व्यक्तित्व तक पहुंच चुकी है, जिसके अपने असंख्य प्रशंसक हैं और जिनका करिश्मा दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाले देश में लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है.
शी की जिंदगी पर किताब लिखने वाले एल्फ्रेड एल चान कहते हैं कि सत्ता शी के लिए सिर्फ एक साधन है. वह कहते हैं, “मैं उस पारंपरिक विचार से असहमत हूं कि शी जिनपिंग का सत्ता के लिए संघर्ष सिर्फ इसलिए था क्योंकि उन्हें सत्ता हासिल करनी थी. मैं कहता हूं कि वह सत्ता के लिए कोशिश करते हैं क्योंकि यह उनके लिए अपने नजरिए को मूर्त रूप दे पाने का साधन है. शी की जीवनी लिखने वाले एक अन्य लेखकर एड्रियन गाइजे भी कुछ ऐसा ही मानते हैं कि शी व्यक्तिगत ऊंचाइयां छूने की इच्छा से नहीं चलते. वैसे, कई बार अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने ऐसे खुलासे किए हैं कि शी के परिवार ने अकूत दौलत जमा कर ली है. लेकिन गाइजेस कहते हैं कि उनकी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है. वह कहते हैं, “उनकी चीन के बारे में सच में एक सोच है. वह चीन को दुनिया के सबसे ताकतवर देश के रूप में देखना चाहते हैं. कुछ ऐसी ही बात शी ने पार्टी कांग्रेस के अपने उद्घाटन भाषण में कही थी. उन्होंने कहा था कि पार्टी की भूमिका ‘चीन राष्ट्र का महान कायाकल्प’ है. ‘शीः अ स्टडी इन पावर’ के लेखक केरी ब्राउन लिखते हैं, शी श्रद्धावान व्यक्ति हैं. उनके लिए कम्युनिस्ट पार्टी भगवान है. बाकी दुनिया सबसे बड़ी गलती यही करती है कि उनकी इस श्रद्धा को गंभीरता से नहीं लेती.
शी का बचपन पार्टी के केंद्र में ही गुजरा है. उनके पिता शी जोंगजुन एक क्रांतिकारी नायक थे जो उप प्रधानमंत्री भी रहे. शी के पिता की जिंदगी पर किताब लिखने वाले जोसेफ तोरीजियां के मुताबिक वह अपने परिवार को लेकर इस कदर सख्त थे कि उनके करीबियों तक को लगता था कि वह अमानवीय हैं. हालांकि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान वह पार्टी के निशाने पर रहे. चान बताते हैं कि शी जिनपिंग और उनके परिवार को बड़ी यंत्रणा से गुजरना पड़ा. उनकी प्रतिष्ठा रातोरात धूमिल हो गई और परिवार बंट गया. ऐसा भी कहा जाता है कि उनकी एक सौतेली बहन का कत्ल कर दिया गया. शी खुद कह चुके हैं कि उनके सहपाठियों से उन्हें अलगाव झेलना पड़ता था. राजनीति विज्ञान के विशेषज्ञ डेविड शैम्बॉ कहते हैं कि संभवतया इस अनुभव ने शी को मनोवैज्ञनिक और जज्बाती तौर पर दूसरों से अलग कर दिया होगा और बहुत कम उम्र में ही उन्होंने स्वयातत्ता हासिल कर ली.
शी जब 15 साल के थे तो उन्हें मध्य चीन के ग्रामीण इलाके में भेज दिया गया, जहां उन्होंने कई साल खेतों में काम किया और कच्चों घरों में सोकर वक्त गुजारा. बाद में एक बार उन्होंने बताया था कि वहां उन्हें ‘मेहनत की कड़ाई देखकर सदमा लगा था.’ शी को वहां ‘संघर्ष सत्रों’ में भी हिस्सा लेना पड़ा जहां उन्हें अपने पिता को त्यागना पड़ा. 1992 में वॉशिंगटन पोस्ट को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, आपको समझ नहीं आ रहा हो तो भी आपको समझने को मजबूर किया जाता है. इससे आप जल्दी परिपक्व हो जाते हैं. शी की जीवनी लिखने वाले चान कहते हैं कि अपने युवावस्था के अनुभवों से वह ‘सख्त’ हो गए. चान लिखते हैं, जब उनके सामने कोई समस्या आती है तो दोनों मुट्ठियां भींचकर उनका सामना करने का विकल्प चुनते हैं. लेकिन वह ताकत के स्वभाव को भी समझते हैं और इसीलिए कानून-आधारित प्रशासन पर जोर देते हैं. जिस गुफा में शी सोते थे, वह अब एक स्थानीय पर्यटक स्थल बन गया है और उसे शी के गरीबों के प्रति भाव के प्रतीक के रूप में पेश किया जाता है.
कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता की शी की अर्जी कई बार खारिज हुई थी क्योंकि उनके परिवार का नाम कलंकित था. आखिरकार उनकी अर्जी स्वीकार हुई और 1974 में उन्होंने सरपंच से राजनीति की शुरुआत की. 1999 में वह फूजियां प्रांत के गवर्नर बने. फिर 2002 में वह जेजियांग प्रांत में पार्टी प्रमुख बने और 2007 में शंघाई पहुंचे. 1970 के दशक में माओ की मौत के बाद शी के पिता को दोबारा मान्यता मिली, जिसका शी को बहुत लाभ हुआ. गाइजेस कहते हैं, वह बहुत सलीके से काम कर रहे थे. उन्होंने एक गांव में सबसे नीचे से शुरुआत की और पूरा अनुभव लिया. और चालाकी से वह सुर्खियों में आने से बचते रहे.कम्युनिस्ट पार्टी में उच्च पद पर रह चुकीं और अब अमेरिका में निर्वासित जीवन बिताने वालीं चाई शिया कहती हैं कि शी “आत्म हीनता से पीड़ित हैं क्योंकि वह जानते हैं कि वह पार्टी के अन्य नेताओं की तुलना में कम पढ़े लिखे हैं.” फॉरन अफेयर्स पत्रिका में चाई शिया ने लिखा था कि इसी कारण वह “तानाशाही रवैया रखने वाले और जिद्दी हैं.”
गौरतलब है, जान लेना जरूरी है कि चीन कहां था और आज वह कहां पहुंच चुका है, अभी उसके भीतर क्या समस्यायें हैं? उसके देश के अपने बद्धिजीवी क्या सोच रहे हैं? अभी चीन के जो मौजूदा हालात हैं उसे लेकर चीन के बुद्धिजीवियों के मध्य, कम्युनिस्ट पार्टी में किस किस्म की बहसे हैं, कितने ‘स्कूल ऑफ थॉट’ हैं इन तमाम बातों से हममें से अधिकांश लोग नावाकिफ हैं और पश्चिम के उदारवादी किस्म के बुद्धिजीवियों के बनाये फ्रेम के आधार पर एक समझ चस्पां कर देते हैं। सबसे पहले तो चीन को लेकर सही ढंग के प्रश्न उठाए जाने चाहिए. वैसे भी समाजवादी निर्माण एक तकलीफदेह प्रक्रिया होती है. पांरपरिक समाज का पिछड़ापन बाधा के रूप में सामने आता है. ऐसा नहीं होता है कि किसी देश में क्रांति हुई और समाजवाद का निर्माण होने लगा. चीन में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि चीन एक कम्युनिस्ट समाज में परिवर्तित हो चुका है.
जब रूस में क्रांति हुई तो उनके नेताओं के भाषणों को पढ़ने से पता चलता है कि वे सभी इस बात के लिए संघर्ष कर रहे थे कि समाजवाद के निर्माण की प्रक्रिया को कैसे शुरू किया जाए? समाजवाद सिर्फ एक घटना नहीं है, इवेंट नहीं बल्कि एक प्रक्रिया भी है. क्रांति के पश्चात एक समाज की तमाम पुरानी चीजों को भी आप उत्तराधिकार में पाते हैं जिससे छुटकारा पाने की ज़रूरत होती है. उदाहरण के लिए वियतनाम का नाम लिया जा सकता है. अमेरिका के नापाम बमों ने वियतनाम की खेती को इस कदर बर्बाद कर दिया कि वहां अभी सैंकड़ों वर्षों तक खेती कर कुछ भी उगाया नहीं जा सकता है. अब कोई कहे कि वियतनाम पूरी तरह समाजवादी देश क्यों नहीं है? आप किसी देश की कृषि को नष्ट कर कहें कि वो क्यों नहीं खेती का सामूहिकीकरण कर रहा है?
इस बात में कोई शक नहीं कि चीन में आज पूंजीपतियों की ख़ासी तादाद है. चीन आज प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सबसे बड़ा केंद्र है. स्टारबक्स और केएफसी के सैंकड़ों शाखाएं आज चीन में मौजूद हैं. निजी पूंजी की चीन की अर्थव्यवस्था में बड़ी उपस्थिति है. चीन ने पूंजीवादी तत्वों का सचेत रूप से इस्तेमाल उत्पादक शक्तियों को विकसित करने के लिए किया है लेकिन निजी पूंजी को तमाम सहूलियतों के बावजूद अर्थव्यस्था में जिसे ‘कमांडिंग हाइट्स ऑफ इकॉनॉमी’- मसलन भारी उद्योग, ऊर्जा, वित्त, संचार और आवागमन- कहा जाता है, उस पर शुरू से ही राज्य का ही नियंत्रण रहा है. चीन का बुनियादी एजेंडा अभी भी योजना (प्लान) आधारित होता है. निजी पूंजी को भी पंचवर्षीय योजना के व्यापक फ्रेमवर्क में काम करना पड़ता है. चीन में निजी पूंजी निवेश की प्रकृति दूसरे देशों के मुकाबले भिन्न है. चीन विदेशी निवेश की इजाजत देता है परंतु विदेशी शोषण की नहीं. विदेशी कम्पनियां वहां व्यापार कर सकती हैं, उसके माध्यम से पैसा बना सकती है लेकिन यह उन्हें चीन के कड़े नियमों के अनुशासित दायरे में काम करना पड़ता है. सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वित्त या फाइनांस पर किसका कब्जा है. चीन में बैंक व फाइनांस के सभी क्षेत्रों पर राज्य का, सरकारी क्षेत्र का वर्चस्व है. चीन की अर्थव्यस्था में निजी क्षेत्र का अनुपात कभी भी सार्वजनिक क्षेत्र से आगे नहीं जा पाया है.
पूंजीवादी देशों की यह विशेषता होती है कि पूंजी का हित आम जनता के हितों से ऊपर समझा जाता है. पूंजीपतियों का हित ही राष्ट्र का हित समझा जाता है, जैसे भारत में अंबानी-अडानी का हित भारत का हित बताया जाता है. चीन में यह स्थिति नहीं है. चीन सरकार की नीतियों में वहां के बड़े पूंजीपतियों के दखल के उदाहरण नहीं हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात पूंजीवादी देशों ने समाजवादी खतरे का मुकाबला करने के लिए अपने यहां शिक्षा व स्वास्थ्य को सार्वजनिक क्षेत्र में बनाए रखा. सामाजिक सुरक्षा पर भी कुछ खर्च किए. लोगों को एक सेफ्टी नेट मुहैया कराया. इसका मतलब ये तो नहीं कि वो देश समाजवादी रास्ते पर आगे बढ़़ गए क्योंकि देखा ये जाता है कि सत्ता किस वर्ग के हाथ में है. ठीक उसी प्रकार चीन यदि निजी पूंजी को थोड़ी छूट दे रहा है तो इसका ये मतलब थोड़े ही न हुआ कि वहां पूंजीवाद स्थापित हो गया. 1921 में लेनिन ने ‘नई आर्थिक नीति’ (एन.ई.पी) लाकर निजी पूंजी को छूट दी थी तो क्या वो समाजवाद के रास्ते से भटक गए थे? प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता ई.एम.एस नंबेदिरीपाद ने चीन में हो रहे परिवर्तनों के बारे में काफी पहले कहा कहा था ‘‘देखना ये चाहिए कि राज्य किस किसके हाथ में है?’’ यदि राज्य कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में है तो कभी भी, मान लीजिए कुछ गलत भी हो रहा हो तो उसे दुरूस्त किया जा सकता है. अभी भी चीन में भूमि राष्ट्र की संपत्ति है, राज्य के हाथ में है. किस पूंजीवादी देश में भूमि राज्य के हाथ में है?
चीन ने विज्ञान व तकनीक के महत्व को बहुत जल्दी समझ लिया था. चीन ने ये समझा कि जब तक उत्पादक शक्तियों का विकास नहीं होगा तब तक समाजवाद का निर्माण संभव नहीं है. आखिर समाजवाद का मतलब गरीबी का सामाजीकरण तो नहीं है. जैसा कि कम्बोडिया ने किया था? चीन इस वक्त उत्पादक शक्तियों के विकास पर बल दे रहा है. जोसेफ स्तालिन की चर्चित किताब ‘‘सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोलशेविक) का इतिहास’’ में इस बात को रेखांकित किया है कि कैसे हमेशा वहां इस बात पर बहस हुआ करती थी कि उत्पादक शक्तियों के विकास पर बल देना है या फिर उत्पादन संबंधों के बदलने पर जोर देना है? स्तालिन ने अपनी एक अन्य महत्वपूर्ण किताब ‘‘इकॉनॉमिक प्रॉब्लम्स ने यू.एस.एस.आर.’ में ये सवाल उठाया कि समाजवाद क्यों हारता है? इस किताब में उन्होंने उत्पादक शक्तियों के विकास पर ही समाजवाद की जीत को निर्भर होना बताया है. यदि उत्पादक शक्तियों का विकास नहीं होगा तो समाजवाद कमजोर हो जाएगा और पूंजीवाद हावी हो जाएगा.’’
आज चीन में लगभग 90 प्रतिशत लोगों के पास अपने घर हैं. और घर कोई कर्ज लेकर नहीं बनाया गया है. जैसा कि अमेरिका में है. अमेरिका में घर अमरीकियों को कर्जदार बनाने का कारण बन चुका है. दुनिया का कोई विकसित देश ये उपलब्धि आज तक नहीं हासिल कर पाया है. चीन में गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों ने घरेलू बाजार का विस्तार किया है. पिछले 40 सालों के दौरान चीन ने 85 करोड़ लोगों को गरीबी रेख से ऊपर उठाया है. इस किस्म की उपलब्धि आज तक दुनिया का कोई देश नहीं हासिल कर पाया है, जबकि अमेरिका को देखें तो वहां पिछले 35 सालों से मजदूरी में बढ़ोतरी ही नहीं हुई है. तकनीक के मामले में भी देखें, चीन अमेरिका से काफी आगे जा चुका है. चीन के पास 165 सुपर कंप्युटर हैं, जबकि अमेरिका के पास सिर्फ 25 हैं.
आज चीन एक अभ्युदयशील देश है तो अमेरिका पतानोन्मुख देश. विकसित देशों के सरगना अमेरिका का ये हाल है कि उसकी आधी आबादी ‘फूड बैंक’ पर निर्भर है. ‘फूड बैंक’ वहां के अमीर व सक्षम लोगों के परोपकारस्वरूप दिए गए धन से चलाए जाते हैं. कोरानावायरस संकट के दौरान अमेरिका का इंश्योरेंस आधारित स्वास्थ्य मॉडल ध्वस्त हो चुका लेकिन चीन में स्वास्थ्य सेवाएं चूंकि सार्वजनिक क्षेत्र में हैं, फलतः वो कोराना संकट से बेहतर ढ़ंग से लड़ पाया. चीन द्वारा शुरू की गयी महत्वाकांक्षी परियोजना ‘वन बेल्ट रोड इनीशिएटिव’, सी.पी.ई.सी आदि को मुनाफे की इच्छा से किया गया साम्राज्यवादी कदम बताया जाता है. चीन द्वारा अफ्रीका में किए जा रहे निवेशों के बारे में ऐसा ही कहा जाता है. साम्राज्यवाद का अर्थ एक ऐसी अर्थव्यवस्था से है जिसमें किसी दूसरे देश में गैरआर्थिक शक्तियो यथा ताकत के बल पर अपने देश की निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाता है. चीन ने अफ्रीका में बिल्कुल दूसरा इतिहास रच रहा है. माओ के जमाने से ही चीन के अफ्रीकी देशों से रिश्ते रहे हैं. माओ के समय ही चीन ने ‘ताजारा’ रेल-रोड का निर्माण किया था. तंजानिया क जूलियस न्येरेरे के साथ भी चीन के पुराने संबंध रहे हैं. ऐसा ही अंगोला आदि कई देशों में रहा है. चीन पहले से अफ्रीकी देशों को तकनीकी सहायता मुहैया कराता रहा है.
चीन के साम्राज्यवादी होने के पीछे ये तर्क दिया जाता है कि चीन अफ्रीका में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश कर रहा है. यानी पूंजी का निर्यात कर रहा है जोकि साम्राज्यवाद का लक्षण है. इसमें कोई संदेह नहीं कि चीन अफ्रीका में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है लेकिन ये प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि वो निवेश किस प्रकार कर रहा है? अमेरिकन कंपनियों के पूंजीनिवेश के पीछे या कर्ज के पीछे शर्तें बंधी रहती हैं जिसमें उन्हें उनके द्वारा बताए देशों के चिन्हित लोगों या कंपनियों से माल या उपकरण खरीदना होगा. यदि आप हमसे सामान नहीं खरीदेंगे तो हम कूटनीतिक, सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर बम बरसा देंगे, आपकी जिंदगी नरक बना देंगे. कभी भूलकर भी उन देशों को अपनी तकनीक स्थानांतरित नहीं की जाती. चीन इन अफ्रीकी देशों को तकनीक स्थानांतरित करता ही है और कोई शतें भी नहीं थोपता है. दूसरा चीन का प्रयास ये रहता है कि जिन देशों में वो निवेश कर रहे हैं, वहां एक उत्पादन का औद्यौगिक आधार तैयार कर सके. यह काम अपने जमाने में सोवियत संघ किया करता था. भारत सहित तीसरी दुनिया के कई देशों में उसने एक औद्योगिक आधार तैयार करने में सोवियत संघ ने सहायता दी थी. निवेश के अमेरिकी व चीनी मॉडल में यह बहुत बड़ा अंतर है.

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