काजू से मालामाल मगर सोया की फसल पर ट्रैक्टर चला रहे बैतूल के बर्बाद किसान

काजू से मालामाल मगर सोया की फसल पर ट्रैक्टर चला रहे बैतूल के बर्बाद किसान

बैतूल के जागरूक किसानों के सुख-दुख की अपनी अलग व्यथा-कथा है. उन्नत किसानी के साथ उसे हर वक्त राज्य की बेपरवाही से भी जूझना पड़ता है. जिले के सैकड़ों किसान काजू की खेती कर एक ओर जहां अच्छी कमाई कर रहे हैं, बीते महीनों की भारी बारिश इलाके के ज्यादातर सोया किसानों को गहरे घाव

बैतूल के जागरूक किसानों के सुख-दुख की अपनी अलग व्यथा-कथा है. उन्नत किसानी के साथ उसे हर वक्त राज्य की बेपरवाही से भी जूझना पड़ता है. जिले के सैकड़ों किसान काजू की खेती कर एक ओर जहां अच्छी कमाई कर रहे हैं, बीते महीनों की भारी बारिश इलाके के ज्यादातर सोया किसानों को गहरे घाव दे गई है. इस समय सोयाबीन की कटाई करवाना तक भारी पड़ रहा है. ये तो रही किसानों की मुसीबत की बात. भारत सरकार के काजू बोर्ड और कई उद्यानिकी क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिक बैतूल को काजू उत्पादन के लिए सबसे मुफीद बता चुके हैं. जिले में सैकड़ो एकड़ में काजू का उत्पादन हो रहा है। अगले पांच साल में इसे बढ़ाकर पांच हजार एकड़ में कर देने का लक्ष्य है. यहां के किसान भोपाल, इंदौर, नागपुर तक के व्यापारियों को काजू बेचते हैं.
जिले के शाहपुर और घोड़ाडोंगरी की लालबर्रा मिट्टी काजू उत्पादन के लिए वरदान मानी जाती है. लगातार मौसम की मार झेल रहे इन क्षेत्रों के किसान व्यावसायिक रुख अपनाते हुए सोयाबीन, धान, गेहूं की परंपरागत खेती के अलावा काजू की खेती में भी अपनी किस्मत आजमाते आ रहे हैं. वे काजू की किसानी के लिए खेत के आसपास की बंजर जमीन का भी उपयोग कर रहे हैं. बैतूल में काजू की वेंगरूला-47 प्रजाति जलवायु को सूट करती है. इसे लगवाने के प्रयास किए जा रहे हैं. इसके अलावा भारत सरकार अफ्रीका से काजू की अन्य प्रजातियों के बीज उपलब्ध कराना चाह रही है. काजू के एक पेड़ से लगभग 15 किलो काजू का उत्पादन हो रहा है. एक एकड़ भूमि पर लगभग 150 पेड़ लग जाते हैं. इसी हिसाब से एक एकड़ में 2 लाख 25 हजार रुपए कमाई किसान कर लेते हैं. इसकी खेती में मात्र गोबर की खाद का ही उपयोग किया जाता है. इसमें 8 से 10 रुपए प्रति पेड़ के हिसाब से गोबर की खाद का खर्च आता है. यह लालबर्रा मिट्टी में लगने वाली सख्त प्रजाति है. इसमें रोग नहीं के बराबर लगते हैं.
इस साल अतिवृष्टि के कारण सोया स्टेट कहे जाने वाले मध्य प्रदेश में सोयाबीन की फसल को काफी नुकसान हुआ है. फसल का आधे से अधिक रकबा बर्बाद हो गया है. किसानों के लिए सोयाबीन की कटाई करवाना महंगा साबित हो रहा है. इसलिए किसान खेतों में खराब हो चुकी सोयाबीन की फसल को नष्ट कर रहे हैं. गुणवंत नगर के किसान फसलों पर ट्रैक्टर चला रहे हैं. बीते साल मानसूनी सीजन में भयंकर बरसात हुई थी. इस बार के सीजन में अतिवृष्टि के कारण सोयाबीन की फसल तहस-नहस हो गई हैं. किसानों को सोयाबीन की कटाई करवाना काफी महंगा साबित हो रहा है. इसलिए वो खराब हुई फसलों पर ट्रैक्टर चला रहे हैं. बैतूल के एक किसान ने बताया कि अतिवृष्टि से उसकी 8 एकड़ में लगी सोयाबीन की फसल पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है. फसल की कटाई करवाने में लगने वाली लागत उनके लिए महंगा सौदा है. इसलिए फसल को नष्ट करने के अलावा कुछ नहीं कर सकते.
यही हाल अमूमन पूरे बैतूल जिले का भी है. इस साल खरीफ सीजन में सोयाबीन का बीज और खाद भी काफी महंगा हुआ था. किसानों को फसलों की बुवाई में काफी लागत लगानी पड़ गई थी. 95 फीसदी किसान क्रेडिट कार्ड पर लोन लेकर बीज खरीदते हैं. लेकिन इस बार हुई रिकॉर्ड बारिश के कारण सोयाबीन की फसल पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है. इससे फसल में लगी लागत निकालना बेहद मुश्किल है.
बैतूल जिले में सोयाबीन, मक्का और गेहूं प्रमुख फसल हैं. इनमें से सोयाबीन से किसानों को अच्छी आमदनी हो जाती है, लेकिन इस बार सोयाबीन काफी घाटे का सौदा साबित हुई है. जिले में ऐसे कई किसान हैं जिनके सामने बैंक का कर्ज अदा करने की चुनौती आ गई है. अगर बात बारिश की करें, तो जिले की सालाना औसत बारिश 43 इंच के मुकाबले इस साल 67 इंच दर्ज की गई. यानी लगभग 24 इंच अधिक बारिश दर्ज की गई. जिस आठनेर ब्लॉक में 25 से 30 इंच बारिश होती है, वहां भी 50 इंच से ज्यादा बारिश दर्ज की गई है. इस बारिश ने किसानों का गणित बिगाड़ दिया है. अब किसानों को रबी की फसलों से उम्मीद बाकी बची है.
इसे मौसम की मार कहें या जलवायु परिवर्तन के संकेत, दोनों ने सोया किसानों को गहरी चिंता में डाल दिया. कुछ समय पहले तक जो किसान बारिश के लिए तरस रहे थे, वही किसान भारी बारिश के कारण लस्त-पस्त हो गए. बारिश की वजह से खेतों में फसलें आड़ी हो गईं, पीली पड़ गईं या उनकी ग्रोथ रुक गई. समतल खेत दलदल में तब्दील हो गए तो पहाड़ी खेतों में मृदा के कटाव के कारण शिशु फसलें ही उखड़ गईं. धान की खेती के लिए बनाए बंड के बंड टूटकर बह गए. नर्मदापुरम, हरदा, धार, छिंदवाड़ा, बैतूल, भोपाल, सीहोर, विदिशा समेत 50 प्रतिशत जिलों में यही हालात रहे. मक्के की जिस फसल को तीन से सवा तीन फीट की ऊंचाई तक जाना था, वह डेढ़ से दो फीट पर अटक गई. काली मिट्टी व समतल भौगोलिक स्थिति वाले खेतों में तो मक्का फसल आड़ी हो गई. किसानों के लिए यही एक फसल थी, जो उम्मीदों का सहारा थी, क्योंकि कम लागत पर ठीकठाक पक जाती है और बीते कुछ वर्षों से दाम भी 2200 से 2500 रुपये प्रति क्विंटल मिल जाते रहे हैं.
मक्के की तरह सोयाबीन की फसल भी अधिक बारिश बर्दाश्त नहीं कर पाती है, यह जल्दी पीली पड़ने लगती है, इसके पेड़ों की जड़ें गल जाती हैं और पत्ते टूटकर गिरने लगते हैं. किसानों को राहत के नाम पर कृषि वैज्ञानिकों की सलाह मिल जाती है कि खेतों में जलभराव न होने दें. थमे हुए पानी की निकासी की व्यवस्था करें. सिर्फ इस ज्ञान से किसानों को कितनी राहत मिल सकती है. नर्मदापुरम की सिवनी मालवा तहसील के करीब 175 गांवों के 90 प्रतिशत रकबे में सोयाबीन की बोवनी हुई तो बारिश ने घेर लिया. फसल की ग्रोथ झूल गई. तहसील के चापड़ागृहण गांव के किसान व भारतीय किसान संघ मध्य भारत के प्रांतीय सदस्य सूरजबली जाट बताते हैं कि इस फसल को धूप चाहिए होती है जो कि नहीं मिली. शिक्षित किसान नितिन यादव बताते हैं कि खेतों में जमीन से पानी तो निकल गया लेकिन फसलें आड़ी हो गईं.

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