शुभनीत कौशिक : भोजपुरी लोक महाकाव्य लोरिकी और मध्ययुगीन प्रेमाख्यानों के अप्रतिम अध्येता श्याम मनोहर पाण्डेय का 14 अक्टूबर, 2022 को लंदन में निधन हो गया. बलिया के गोठहुली गांव में वर्ष 1936 में जन्मे श्याम मनोहर पाण्डेय की शुरुआती शिक्षा बलिया में ही हुई. वर्ष 1954 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और उसके
शुभनीत कौशिक : भोजपुरी लोक महाकाव्य लोरिकी और मध्ययुगीन प्रेमाख्यानों के अप्रतिम अध्येता श्याम मनोहर पाण्डेय का 14 अक्टूबर, 2022 को लंदन में निधन हो गया. बलिया के गोठहुली गांव में वर्ष 1936 में जन्मे श्याम मनोहर पाण्डेय की शुरुआती शिक्षा बलिया में ही हुई. वर्ष 1954 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और उसके दो साल बाद वहीं से हिंदी में स्नातकोत्तर किया. वर्ष 1960 में उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डी.फिल की उपाधि प्राप्त हुई, जहां हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान माताप्रसाद गुप्त उनके शोध-निर्देशक रहे, जिन्होंने स्वयं ‘मधुमालती वार्ता’, ‘पृथ्वीराज रासउ’, ‘बीसलदेव रास’, ‘कुतुब शतक’ ‘जायसी ग्रंथावली’ और ‘कबीर ग्रंथावली’ का संपादन किया था.
जहां एक ओर उन्होंने चंदायन, मृगावती, पद्मावत, चित्ररेखा, मधुमालती, चित्रावली, ज्ञानदीप जैसे मध्ययुगीन प्रेमाख्यानों का गहन विश्लेषण किया. वहीं दूसरी ओर उन्होंने लोरिकायन और चनैनी जैसे लोक महाकाव्यों का भी अध्ययन किया. हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, फारसी, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, इतालवी आदि भाषाओं में उनकी असाधारण दक्षता उनकी कृतियों में मिलने वाले तुलनात्मक अध्ययनों में झलकती है. अपने सुदीर्घ अध्यापकीय जीवन में श्याम मनोहर पाण्डेय ने अमेरिका और यूरोप के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया. वर्ष 1962 से लेकर 1965 तक वे शिकागो विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे. कुछ वर्षों के लिए उन्होंने लंदन स्थित स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ में भी अध्यापन किया.
वे शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, पुणे विश्वविद्यालय, पेकिंग यूनिवर्सिटी, विसकांसिन यूनिवर्सिटी और अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज़ में विज़िटिंग प्रोफेसर रहे. इसके साथ ही वे नेपुल्स (इटली) स्थित ओरिएंटल यूनिवर्सिटी में भी प्राध्यापक रहे. श्याम मनोहर पाण्डेय को हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए साहित्य अकादमी द्वारा ‘भाषा सम्मान’ और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘साहित्य भूषण’ सम्मान से नवाजा गया. उनके लेख ‘जर्नल ऑफ द अमेरिकन ओरिएंटल सोसाइटी’, ‘बुलेटिन ऑफ द ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़’, ‘साउथ एशियन रिव्यू’, ‘अनाल नेपल्स’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए.
प्रेमाख्यानों के अध्ययन की जो परंपरा सुधाकर द्विवेदी और जॉर्ज ग्रियर्सन सरीखे विद्वानों ने शुरू की और जिसमें आगे चलकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल, माताप्रसाद गुप्त, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, वासुदेव शरण अग्रवाल, परमेश्वरी लाल गुप्त, डॉक्टर विश्वनाथ प्रसाद सरीखे विद्वानों ने योगदान दिया, उस समृद्ध परंपरा को आगे ले जाने का काम श्याममनोहर पाण्डेय ने बख़ूबी किया. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शोध करते हुए श्याममनोहर पाण्डेय ने जो शोध-ग्रंथ लिखा, वह वर्ष 1961 में पुस्तक रूप में ‘मध्ययुगीन प्रेमाख्यान’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. उनके शोध-प्रबंध के परीक्षक प्रख्यात इतिहासकार वासुदेव शरण अग्रवाल और संत परंपरा के मर्मज्ञ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी थे, जिन्होंने उनके शोधकार्य की प्रशंसा की थी.
यही नहीं, इस शोध-कार्य के लिए श्याम मनोहर पाण्डेय को डॉक्टर शार्लोत वोदविल ने छात्रवृत्ति प्रदान की थी. अकारण नहीं कि यह पुस्तक श्याम मनोहर पाण्डेय ने शार्लोत वोदविल को ही समर्पित करते हुए लिखा था: ‘जिनके ऋण से मैं उऋण नहीं हो सकता उस भारतीय साहित्य की असीम अनुरागिनी शुभश्री डॉ. शार्लोत वोदविल (पेरिस) को सादर समर्पित.’ इस पुस्तक में श्याम मनोहर पाण्डेय ने चौदहवीं सदी से लेकर सत्रहवीं सदी तक के सूफी और असूफी प्रेमाख्यानों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया. इस क्रम में उन्होंने सूफी साहित्य की परंपरा के साथ-साथ फारसी के प्रेमाख्यान साहित्य और भारतीय साहित्य में प्रेमाख्यान की परंपरा का ऐतिहासिक विवेचन भी किया. साथ ही, इन प्रेमाख्यानों के कथानक, उनकी प्रतीक योजना, भाषा-शैली का भी विश्लेषण किया. वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूफी प्रेमाख्यानों ने भारतीय लोकजीवन से प्रेरणा ग्रहण की. इन प्रेमाख्यानों के कथानक, चरित्र, प्रतीक योजना, काव्य पर गहरे और स्पष्ट भारतीय प्रभाव को उन्होंने विशेष रूप से रेखांकित किया.
उनके अनुसार, ये सूफी प्रेमाख्यान भारतीय और ईरानी परंपराओं के सम्मिलन से संभव हुए. सूफी प्रेमख्यान के रचयिताओं ने अपना संदेश भारतीय जनमानस तक पहुंचाना चाहा था, इसलिए उन्होंने अपने काव्य को भारतीय वातावरण में पेश किया. बक़ौल श्याम मनोहर पाण्डेय ‘लोकजीवन से उन्होंने कथाएं लीं, परंपराएं लीं, लोकमानस में उनके संदेश इन्हीं माध्यमों से प्रसार पा सकते थे.’ इन प्रेमाख्यानों के संदर्भ में उन्होंने लिखा कि ‘ये प्रेमाख्यान मानवीय हृदय की नैसर्गिक भावनाओं के काव्य है. इनमें प्रेम की स्निग्ध पुकार है, विरह की तड़प है, आत्मसमर्पण का आग्रह है. इसीलिए ये हमारे हृदय को सहज ही स्पर्श करते हैं. सूफी कवियों का मुख्य उद्देश्य ज-जीवन में प्रेम का संदेश फैलाना था. इसीलिए उन्होंने काव्य की रचना की किंतु उनमें साहित्यिक सौष्ठव का अभाव नहीं है. सूफी मतवाद जीवन की उपेक्षा करके नहीं चला.’
साठ के दशक में श्याम मनोहर पाण्डेय को भोजपुरी लोकमहाकाव्यों की परंपरा पर कार्य करने के लिए ‘अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज़’ से फेलोशिप मिली. ‘लोक महाकाव्य लोरिकी’, ‘लोक महाकाव्य चनैनी’, ‘लोक महाकाव्य लोरिकायन’ जैसी पुस्तकें इसी फेलोशिप के अंतर्गत किए गए कार्य से संभव हुईं. इन पुस्तकों के प्रकाशन में उन्हें नेपुल्स (इटली) स्थित ‘इंस्तित्यूतो यूनिवर्सितारियो ओरियंताले’ से भी सहायता प्राप्त हुई, जहां वे शिक्षक रहे थे. वर्ष 1965 में उन्होंने लोरिकी और चंदायन पर काम शुरू किया और इसके लिए उन्होंने पटना, बलिया, बनारस, इलाहाबाद, मिर्ज़ापुर, बलरामपुर (गोंडा) आदि जगहों पर जाकर मौखिक परंपरा से लोरिकी और चनैनी के पाठ संग्रह किए. ‘भोजपुरी लोरिकी’ का संकलन उन्होंने बलिया ज़िले के गायक शिवनाथ चौधरी (सीनाथ चौधरी) से सुनकर तैयार किया था. सीनाथ चौधरी बलिया के उजियार भरौली गांव के रहने वाले थे. उन्होंने ही लोरिकी महाकाव्य को श्याम मनोहर पाण्डेय को गाकर सुनाया था, जिसकी रिकॉर्डिंग 48 घंटे लंबी थी.
सीनाथ चौधरी के अलावा श्याम मनोहर पाण्डेय ने इलाहाबाद के रामअवतार यादव, बनारस के पांचू भगत, मिर्ज़ापुर के ददई केवट सहित आठ गायकों की गाई हुई लोरिकी की भी रिकॉर्डिंग की थी. इनमें निषाद जाति से आने वाले ददई केवट को छोड़कर शेष सभी गायक अहीर जाति के थे. आश्चर्य नहीं कि श्याम मनोहर पाण्डेय ने लोरिकी को ‘अहीर जाति का लोक-महाकाव्य’ कहा है. इन गायकों की बहुआयामी प्रतिभा के बारे में श्याम मनोहर पाण्डेय लिखते हैं कि ‘गायक परंपरा का वाहक, मौलिक आशुकवि और अभिनेता एवं संगीत-साधक सब कुछ का समन्वय होता है.’ लोरिकायन जैसे लोक-महाकाव्यों की रचना में गायकों की मौलिक प्रतिभा के साथ-साथ श्रोताओं का भी योगदान होता है. इस तथ्य को रेखांकित करते हुए श्याम मनोहर पाण्डेय लिखते हैं कि ‘लोक महाकाव्य की रचना श्रोता के लिए होती है, पाठक के लिए नहीं, और यह श्रोता रचना में भी योगदान करता है, लोक महाकाव्य के संदर्भ में यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है.’
इन गायकों ने समकालीन समाज द्वारा लोरिकी की उपेक्षा और उसे सीखने के लिए ज़रूरी लगन और समर्पण के अभाव की चर्चा भी श्याम मनोहर पाण्डेय से हुए अपने संवाद में की. इन रिकॉर्डिंग का इस्तेमाल श्याम मनोहर पाण्डेय ने ‘लोक महाकाव्य लोरिकायन’, ‘लोरिकी’ जैसी अपनी पुस्तकों में किया. उनके अनुसार, लोरिकी की कथा मैथिली, मगही, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी आदि भाषाई क्षेत्रों में प्रचलित थी. लोरिकायन के महत्व का अंदाज़ इस बात से भी मिलता है कि आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘पुनर्नवा’ में लोरिक-कथा को ही औपन्यासिक शैली में प्रस्तुत किया है. श्याम मनोहर पाण्डेय ने मौलाना दाऊद कृत ‘चंदायन’ का संपादन भी किया, जो दो खंडों में प्रकाशित हुआ है. उल्लेखनीय है कि अवधी भाषा में लिखित ‘चंदायन’ की रचना मौलाना दाऊद ने फिरोज़ शाह तुग़लक़ के शासनकाल में वर्ष 1379 (हिजरी सन 781) में की थी. मौलाना दाऊद रायबरेली ज़िले के डलमऊ के निवासी थे.
चंदायन की कथा का मूल स्रोत लोरिकी, लोरिकायन या चनैनी ही है. मौलाना दाऊद ने लोरिकी नामक इस लोक-महाकाव्य से प्रेरणा ली और इसमें नख-शिख, नगर वर्णन और बारहमासा जैसी विधाओं का प्रयोग करते हुए इसे ‘चंदायन’ का रूप दिया और इसे उत्कृष्ट काव्य-ग्रंथ में परिणत किया. ‘चंदायन’ को हिंदी का पहला प्रेमाख्यान माना जाता है. ख़ुद मौलाना दाऊद चिश्ती संप्रदाय के सूफी संत शेख़ जैनुद्दीन के शिष्य थे, जो निज़ामुद्दीन औलिया की शिष्य-परंपरा से संबंद्ध थे. मौलाना दाऊद ने ‘चंदायन’ को कथा-काव्य कहा था. एक ऐसा ‘कथा-काव्य’ जिसे वे लोक को सुनाना चाहते थे – ‘कथा काबि कइ लोक सुनावउ’. काव्य के साथ-साथ सांस्कृतिक और भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी ‘चंदायन’ अत्यंत महत्वपूर्ण है. श्याम मनोहर पाण्डेय से पूर्व उनके गुरु माताप्रसाद गुप्त और परमेश्वरी लाल गुप्त ने भी ‘चंदायन’ का संपादन किया था. इन दोनों विद्वानों द्वारा संपादित पुस्तकें क्रमशः 1967 और 1964 में प्रकाशित हुई थीं.
वर्ष 1968 में प्रकाशित अपनी एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक ‘सूफी-काव्य-विमर्श’ में श्याम मनोहर पाण्डेय ने ‘चंदायन’ के साथ-साथ कुतुबन कृत ‘मृगावती’, मलिक मुहम्मद जायसी कृत ‘पद्मावत’ और मंझन कृत ‘मधुमालती’ का अध्ययन किया. ‘सूफी-काव्य-विमर्श’ में संकलित निबंध पहले-पहल ‘सम्मेलन पत्रिका’ और हिंदुस्तानी एकेडमी की पत्रिका ‘हिंदुस्तानी में छपे थे. उल्लेखनीय है कि कुतुबन ने जौनपुर के शर्की शासक हुसैन शाह के शासनकाल में हिजरी सन 909 में ‘मृगावती’ की रचना की थी. सुहरावर्दी परंपरा के शेख़ बुढ़न उनके गुरु थे. वहीं जायसी और मंझन के गुरु क्रमशः शेख़ बुरहान और शेख़ मुहम्मद ग़ौस शत्तारी थे. इन निबंधों में श्याम मनोहर पाण्डेय ने सूफी प्रेमाख्यानों में नखशिख वर्णन की परंपरा, उनमें अभिव्यक्त होने वाले प्रेम और दर्शन के स्वरूप, उनके लेखकों की जीवनी और उन पर सूफी संप्रदायों के प्रभावों का विवेचन किया. उनकी अन्य प्रमुख पुस्तकें हैं: सूफी मंसूर हल्लाज की बानी, हिंदी और फारसी सूफी काव्य, सूफी काव्य अनुशीलन आदि. अपनी कृतियों में श्याम मनोहर पाण्डेय भारत की सामासिक संस्कृति और गंगा-जमुनी तहज़ीब को रेखांकित करते रहे. सूफी प्रेमाख्यानों ने भारतीय लोकजीवन से कैसे कथानक, आख्यान और शैलियां ग्रहण किए और इसी क्रम में इन प्रेमाख्यानों ने भारतीय लोकमानस को कैसे गहरे प्रभावित किया, इसे उन्होंने गहराई से समझाया. भारत और ईरान के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान की ऐतिहासिक प्रक्रिया को भी उन्होंने विश्लेषित किया. उन्हें नमन!
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