मुझे पता नहीं कितने लोगों से मिला मगर मिला सबसे। यह मुलाक़ात तो नहीं कही जाएगी लेकिन चंद लम्हों में थे दूसरे से गले लगकर पता चल रहा है कि कोई है जो साथ चल रहा है। जो प्राइम टाइम का इंतज़ार करता है। कोई ऐसा भी है जिसने हर एपिसोड देखा है। इन सभी
मुझे पता नहीं कितने लोगों से मिला मगर मिला सबसे। यह मुलाक़ात तो नहीं कही जाएगी लेकिन चंद लम्हों में थे दूसरे से गले लगकर पता चल रहा है कि कोई है जो साथ चल रहा है। जो प्राइम टाइम का इंतज़ार करता है। कोई ऐसा भी है जिसने हर एपिसोड देखा है। इन सभी के मन में कोई सवाल है। जनता पत्रकारिता को लेकर बेचैन है। उसे लगता है कि पत्रकारिता बिकी रहेगी तो आज़ाद देश के नागरिक होने का गुमान चला जाएगा। लोग अजीत अंजुम, संदीप चौधरी, अभिसार को खोज कर देख रहे हैं।
यह उन सभी के लिए हौसले की बात है कि देखने वालों को पता है कि दिखाने वाला कौन है और छिपाने वाला कौन है। तीन सौ किलोमीटर दूर से आने वालों से ठीक से न मिलने का बहुत अफसोस है, सौ डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी से आने वालों से नहीं मिल पाने का भी अफ़सोस है। समझ नहीं पाया कि क्या करूँ। जब तक शरीर में दम रहा, सबसे मिलता रहा, उनके फ़ोन में दर्ज होता रहा। माँ ख़ुश हैं। कहती थीं कि घर सूना लगता है। ख़ाली लगता है। कोई आता नहीं। मैं भी ख़ुश हूँ कि आप सबने आकर मेरी माँ के इस घर के दामन को भर दिया। मैं आप सबका आभारी हूँ। मैं इस योग्य हूँ या नहीं, इसका वक्त फ़ैसला करेगा, लेकिन आपका प्यार सबसे परे हैं। मैं बहुत समय के लिए नहीं मिल पाया, आशा है आप माफ़ कर देंगे।
लोग पत्रकार को कलम क्यों देते हैं? यह सवाल लोगों को सोचना चाहिए या पत्रकारों को? छठ पर गाँव आया हूँ । कई नौजवानों से मिलने का सौभाग्य मिला। सोचता हूँ कि इसे दर्ज करूँ। आमतौर पर बचता रहा हूँ लेकिन कोई युवाओं से मिल कर लगा कि उनके भीतर पत्रकार होने की चिंगारी सुलग रही है। वे पत्रकारिता को लेकर कई तरह से सोच रहे हैं और राजनीति को लेकर भी। यह अच्छा संकेत है। साल भर तक लिखने के लिए कलम और डायरी मिल गई है।
ढलता सूरज धीरे-धीरे ढलता है ढल जाएगा। अस्ताचल सूर्य को नमस्कार के बाद दौरा उठान। आप सभी को छठ की शुभकामनाएँ। घाट पर जाने से पता चला कि गाँव में मेरी रिश्तेदारियाँ बदल गई हैं। पहले लोग बाबू बुलाते थे, फिर भैया बुलाने लगे और अब बच्चे दादा जी और नाना जी बुलाने लगे हैं। मेरी त्वचा से ही उम्र का पता चल रहा है!
जो लोग छठ का दउरा उठाते रहे हैं वो मास्टर हैं। दउरा उठाते ही तेज़ी से चल पड़ते हैं। मेरी चाल धीमी हो गई। गाँव की एक चाची ने कहा कि कमाने गए तो आए नहीं। हर साल छठ में आया करो। गाँव जैसा कुछ नहीं मिलेगा। भोजपुरी में कही गई बात में एक बात ख़ास लगी कि सब कमाने गए थे गाँव से। माइग्रेशन का दर्द छोटे छोटे वाक्यों में छलक जाता है। पता नहीं चलता कि कहने वाला अपना दर्द कह रहा है या आपका दर्द समझ रहा है। ख़ैर मैंने भी दउरा उठा लिया। जब आपको बहुत लोगों का प्यार मिलता है, शोहरत मिलती है, तो आप ‘अन्य’ भी होने लगते हैं। जिसे सरल शब्द में हम ‘अलग’ कहते हैं। यह प्रक्रिया जाने-अनजाने में दोनों तरफ़ से चलती है। जो आपको देख रहा है और आप जिसे देख रहे हैं। उस अन्य के होने से कई तरह के विकार भी होते हैं, जिन्हें हम अहंकार के नाम से जानते हैं। दउरा उठाकर चलते समय इन विकारों से मुक्ति मिली। देखने वालों ने देखा कि यह हमारे जैसा है। मुझे भी लगा कि उन्हीं के जैसा हूँ । मुझे ख़ास से सामान्य होना अच्छा लगता है। दो दिन में मैं दस साल जी गया। अपना ही नहीं, उनका भी जो अब इस जीवन में नहीं हैं, जिन्हें हम पूर्वज कहते हैं।
कई लोग मेरे गाँव तक पहुँचने के लिए काफ़ी भटक रहे हैं। मुझे लगा कि आस-पास के लोगों को ही मतलब है और उन्हें गाँव का नाम तो मालूम ही है। लेकिन सौ डेढ़ किलोमीटर की दूरी से आने वाले काफ़ी भटक रहे हैं। सिवान मेरे गाँव से सौ किलोमीटर तो होगा ही, वहाँ से दो लोग सुबह पाँच बजे निकले और काफ़ी भटकते रहे। मेरी गुज़ारिश है कि ऐसे जोश में न निकलें। पता हो तभी घर के लिए निकलें। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि हर किसी को मेरे बारे में मालूम ही है। यह जानना आपके और मेरे लिए बहुत ज़रूरी है। ख़ैर मेरी किताब ‘इश्क़ में शहर होना’ और ‘बोलना ही है’ लेकर आ गए तो फिर कुछ नहीं कहना। मैं आप सभी के प्रति इस प्यार के लिए आजीवन आभारी हूँ।
फ़ेसबुक पोस्ट देखकर ताज मोहम्मद और राजेश कुमार ने तय किया कि मुझसे मिलना है। दोनों ने पचास पचास रुपये मिलाया और मोटरसाइकिल में पेट्रोल भराया और घर चले आए। राजेश जी के यहाँ तो आज छठ भी है लेकिन आती-जाती साठ किलोमीटर की यात्रा का मन बना लिया था तो दोनों दोस्तों को कौन रोक सकता था। एक कलम मिला है। डायरी भी। पहले लिखने से बचता था लेकिन अब लिख रहा हूँ ताकि जीवन की संध्या में ये पल याद आते रहें कि इतना प्यार मिला था। आप सभी के प्रति आभार। दोनों हरसिद्धी से आए थे।
मास्टर कृष्णा मिश्रा जी। सत्तर की उम्र छू रहे हैं। एकदम छरहरे। बताया कि वे रोज़ पाँच सात किलो मीटर दौड़ते हैं। नाश्ते में फल खाते हैं और दोपहर के भोजन में एक रोटी मगर सलाद ज़्यादा। कुर्सी पर बैठे हैं मगर फ़िटनेस देख मैं काफ़ी प्रभावित हुआ। हम सबको दौड़ने का अनुशासन क़ायम करना चाहिए।
भूपेन्द्र जी महोगनी का पौधा लेकर आ गए। उन्हीं के सामने लगा दिया। अगर ये पौधा पेड़ बन गया तो कितना शानदार रहेगा। एक दर्शक का दिया पेड़ उसके ऐंकर के घर में लहलहा रहा होगा। अहा कितना सुंदर दृश्य होगा। पिछली बार कौन बनेगा करोड़पति के विजेता सुशील कुमार ने चंपा का पेड़ दिया था। वो लग गया है। खड़ा हो गया है।
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