जलवायु परिवर्तन, अत्यधिक चारागाहों का बनना, बेशुमार खेती, जंगलों की कटाई और शहरीकरण के कारण पृथ्वी की 40 फीसदी जमीन की दशा खराब हो चुकी है. मरुस्थलीकरण के खिलाफ काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी ने एक रिपोर्ट जारी की है, जो बताती है कि इसका नतीजा दुनिया की करीब आधी आबादी पर असर
जलवायु परिवर्तन, अत्यधिक चारागाहों का बनना, बेशुमार खेती, जंगलों की कटाई और शहरीकरण के कारण पृथ्वी की 40 फीसदी जमीन की दशा खराब हो चुकी है. मरुस्थलीकरण के खिलाफ काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी ने एक रिपोर्ट जारी की है, जो बताती है कि इसका नतीजा दुनिया की करीब आधी आबादी पर असर डाल रहा है. इससे भी बुरा यह आसार है कि आने वाले दशकों में उप-सहारा के देशों समेत दुनिया के कई हिस्सों में हालात अभी से और ज्यादा बिगड़ने वाले हैं. हालांकि, यह भी सच है कि अभी इतनी भी देर नहीं हुई है कि हालात सुधारे न जा सकें या फिर बंजर, सूखी जमीनों पर हरियाली लौटाई न जा सके. रिपोर्ट में उन सारे उपायों का भी जिक्र है, जिन्हें बुरकिना फासो से लेकर मालावी तक आजमाया जा रहा है. यूनाइटेड नेशन कंवेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन की रिपोर्ट में अफ्रीका पर काफी कुछ कहा गया है.
जमीन की दशा खराब होने से यहां मतलब है उसकी मिट्टी, पानी या जैव विविधता में लगातार कमी, जिसके पीछे कई कारण हैं. इसमें जंगलों की कटाई से लेकर खेती में कीटनाशकों और उर्वरकों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल और जलवायु परिवर्तन के कारण आए दिन मौसमों के मिजाज की बढ़ती उग्रता शामिल है. दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी तटों पर इसी साल अप्रैल महीने में अभूतपूर्व बारिश के कारण आई अचानक बाढ़ में न सिर्फ फसलें बह गईं, बल्कि कई जगहों पर गड्ढे बन गए. भूस्खलन हुआ, सैकड़ों घर और सड़कें टूटीं और 430 लोगों की जान चली गई. केन्या के पहाड़ी जंगल देश के वाटर टावर कहे जाते हैं. इमारती लकड़ी, चारकोल और कृषि के विस्तार के कारण इनकी अंधाधुंध कटाई ने नदियों में पानी का बहाव कम कर दिया है. नतीजा- खेती की जमीनों को सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा है. मरुस्थलों का विस्तार, जमीन की खराब दशा और सूखा पूरी दुनिया के 3 अरब से ज्यादा लोगों पर असर डाल रहा है. इनमें ज्यादातर गरीब और ग्रामीण समुदाय के लोग हैं.
स्वस्थ जमीन को खोने से खाद्य असुरक्षा बढ़ती है, तो जंगलों के नुकसान से समुदाय सूखा, बाढ़ और जंगल की आग जैसे मौसमी आपदाओं के शिकार बनते हैं. जमीन का नुकसान होने पर फसलों की पैदावार घट जाती है. इसका नतीजा कई समुदायों को गरीबी के दलदल में धकेल देता है, जिसके बाद फिर जमीन की गुणवत्ता का खत्म होना और पानी की कमी और बढ़ जाती है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट का कहना है कि जमीन की गुणवत्ता खत्म होने के कारण 44 लाख करोड़ डॉलर का आर्थिक उत्पादन यानी दुनिया की जीडीपी का करीब आधे से ज्यादा खतरे में है. जमीन की दुर्दशा जलवायु परिवर्तन का भी एक प्रमुख कारण है. इंसानी गतिविधियों के कारण होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में करीब 10 फीसदी का योगदान तो केवल उष्णकटिबंधीय जंगलों के सिमटने का है. मिट्टी की खराब हालत के कारण भी जमीन के भीतर कैद कार्बन वातावरण में चला जाता है.
रिपोर्ट में आकलन किया गया है कि पृथ्वी पर जो हो रहा है, अगर यह इसी तरह जारी रहा, तो 2050 तक 1.6 करोड़ वर्ग किलोमीटर यानी पूरे दक्षिणी अमेरिका के बराबर अतिरिक्त जमीन इस दुर्दशा की शिकार होगी. लगभग 15 फीसदी कृषि भूमि, चारागाह और प्राकृतिक इलाकों में लंबे समय के लिए उत्पादकता कम होगी. इसमें उप सहारा के देश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे. खराब हुई जमीन पर कृषिवानिकी यानी फसलों के बीच पेड़ लगाकर और चारागाहों के बेहतर प्रबंधन से जमीन को हुए नुकसान की भरपाई की जा सकती है. दुनिया की अगर 35 फीसदी जमीन की खराबी को दूर किया जा सके, तो 2050 तक फसलों की पैदावार 10 फीसदी तक बढ़ जाएगी. इसमें सबसे ज्यादा फायदा मध्यपूर्व, उत्तरी अमेरिका, लातिन अमेरिका और उप-सहारा के अफ्रीकी देशों को होगा. यह दुनिया में भोजन की बढ़ती कीमतों पर लगाम लगाएगा और दुनिया की बढ़ती आबादी का पेट भरेगा. इस तरह की कोशिशें जमीन की पानी संभालने की ताकत भी बढ़ाएगी. इसके साथ मिट्टी ज्यादा कार्बन को बांधकर रख सकेगी और जलवायु परिवर्तन धीमा होगा. इसके साथ ही रिपोर्ट के मुताबिक जैव विविधता को होने वाले नुकसान में 11 फीसदी की कमी आएगी.
दक्षिण अफ्रीका में बाढ़ के दौरान रिसर्चर पार्दों मुशाओनेर्वा ने देखा कि गन्ने के खेतों में स्वस्थ मिट्टी और ज्यादा वनस्पति के आवरण में पानी ज्यादा सोखने की ताकत थी और आसपास के खेतों की तुलना में उन्हें कम नुकसान हुआ. क्वाजुलु नताल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर मुशाओनेर्वा का कहना है, मुझे नहीं लगता कि मिट्टी की सेहत को सुधारने के लिए हमारे पास बहुत सारे विकल्प हैं. इस समय कदम नहीं उठाने से भविष्य में जिंदगी खतरे में होगी. रिपोर्ट में कहा गया है कि भोजन के तंत्र में कुल मिलाकर एक बड़े बदलाव की जरूरत है. भोजन, पशुओं का चारा या दूसरी चीजें कैसे पैदा की जाएं, इससे लेकर सप्लाई चेन और उत्पादकों से ग्राहकों को जोड़ने की प्रक्रिया में बदलाव करना होगा. एक ही फसल को बड़े पैमाने पर उगाना, औद्योगिक स्तर पर मवेशियों को पालना और जंगल के साथ दूसरे इकोसिस्टम को बर्बाद करना भारी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का कारण बनता है, जो भोजन और दूसरे सामानों के उत्पादन से जुड़ा है.
यूएनसीसीडी के प्रमुख इब्राहिम थियाव कहते हैं, आधुनिक कृषि ने किसी भी दूसरी इंसानी गतिविधि की तुलना में धरती का चेहरा सबसे ज्यादा बदला है. हमें तुरंत वैश्विक भोजन उत्पादन के बारे में फिर से सोचना है, जो जंगलों की 80 फीसदी कटाई, ताजे पानी के 70 फीसदी इस्तेमाल और क्षेत्रीय जैव विविधता में नुकसान का अकेला सबसे बड़ा कारण है. इथियोपिया में छोटे स्तर पर किसान फसलों को बदल-बदल कर उगा रहे हैं. बूंद-बूंद सिंचाई तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं और फसलों की ऐसी किस्में लगाई जा रही हैं, जो पैदावार बढ़ाने के साथ ही सूखे से लड़ने में ज्यादा सक्षम है. छोटे-छोटे बांध के इस्तेमाल से भारी बारिश मिट्टी में धीरे से आती है और साथ ही ज्यादा पानी मिट्टी में छनकर जाता है. यह धारा के निचले हिस्से में बाढ़ को रोकने के साथ ही खेती के लिए ज्यादा नमी मुहैया कराता है.
मालावी में मक्के के पौधे के बीच में दाल के पौधे मिट्टी के पोषण को सुधार रहे हैं, जो बिना खर्चे के किसी उर्वरक जैसा काम करता है. इसके साथ ही यह मिट्टी को ज्यादा पानी रोक कर रखने में मदद देता है. बुर्किना फासो में पत्थरों के बांध बनाकर बारिश के पानी को जमा करते हैं और इसे बहने के बजाय धरती के अंदर जाने देते हैं. इस कोशिश ने उनकी खाद्य सुरक्षा बढ़ाने के साथ ही जमीन के बंजर होने की प्रक्रिया रोक दी है और वहां हरियाली लौट रही है. केन्या में तो किसानों की मदद के लिए ड्रोन इस्तेमाल किए जा रहे हैं. इनकी मदद से कीटों और बीमारियों पर नजर रखी जाती है और साथ ही रसायनों का अत्यधिक इस्तेमाल रोका जा रहा है. इन सबने कई खेतों की पैदावार आधी से ज्यादा बढ़ा दी है.
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