भारत में 40 लाख लोगों पर डिमेंशिया का कहर, पुरुषों के मुकाबले औरतें ज्यादा त्रस्त

भारत में 40 लाख लोगों पर डिमेंशिया का कहर, पुरुषों के मुकाबले औरतें ज्यादा त्रस्त

स्वाति बक्शी : अमरीका के बेहद मशहूर हास्य अभिनेता रॉबिन विलियम्स की पत्नी ने उनकी मौत से जुड़े अनसुलझे सवालों और अटकलों का जवाब देने की अपनी कोशिश को एक डॉक्यूमेंट्री की शक्ल दी है, रॉबिन्स विश. ये कहानी रॉबिन विलियम्स की मौत से पहले गुजरे कुछ महीनों को समेटते हुए, डिमेंशिया से जूझ रहे

स्वाति बक्शी : अमरीका के बेहद मशहूर हास्य अभिनेता रॉबिन विलियम्स की पत्नी ने उनकी मौत से जुड़े अनसुलझे सवालों और अटकलों का जवाब देने की अपनी कोशिश को एक डॉक्यूमेंट्री की शक्ल दी है, रॉबिन्स विश. ये कहानी रॉबिन विलियम्स की मौत से पहले गुजरे कुछ महीनों को समेटते हुए, डिमेंशिया से जूझ रहे एक बेहद फुर्तीले दिमाग वाले इंसान के बिखरते दिमाग की कहानी बयां करती है. कई महीनों तक डिमेंशिया से पैदा हुई दिक्कतों से जूझते हुए विलियम्स ने 2014 में, 63 साल की उम्र में आत्महत्या कर ली और उनकी मौत के बाद ही ये पता चल पाया कि उनका दिमाग किस कदर इस बीमारी की चपेट में था.
दरअसल ये कहानी किसी की भी हो सकती है. खासकर भारत में जहां 60 बरस से ऊपर के करीब 40 लाख लोग डिमेंशिया से जूझ रहे हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2035 में ये आंकड़ा दोगुना हो जाएगा. डिमेंशिया बढ़ती उम्र से जुड़ा हुआ रोग है लेकिन इसके लक्षणों को बुढ़ापे का असर मान लेना ही एक ऐसी गलतफहमी है जो रोगी के जीवन को धीरे-धीरे निगलती जाती है. खास बात ये है कि भारत समेत दुनिया भर में पुरुषों के मुकाबले औरतों में ये बीमारी ज्यादा पाई जाती है. सबसे बड़ी चुनौती तो इस बात को समझने की है कि आखिर ये बीमारी है क्या? न्यूरोलॉजिस्ट यानी तंत्रिका तंत्र विशेषज्ञों की राय में इस बीमारी से निपटने में दवाओं से ज्यादा बीमारी को पहचानने की समझ और सेहत की तरफ हमारा नजरिया अहम भूमिका निभा सकते हैं. साथ ही भारतीय जीवन के कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू हैं जो इस बीमारी के बढ़ते शिकंजे की जड़ में हैं.
डिमेंशिया किसी एक बीमारी का नाम नहीं है बल्कि ये कई बीमारियों या यूं कहें कि कई लक्षणों के समूह को दिया गया एक नाम है. अल्जाइमर इस तरह की सबसे प्रमुख बीमारी है, जो बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित करती है. डिमेंशिया के लक्षणों का मूल संबंध इंसानी दिमाग की ज्ञान या सूचनाओं संबंधी प्रक्रियाओं जैसे याददाश्त, रोजमर्रा के सामान्य काम करने की शारीरिक क्षमता, भाषा-ज्ञान, सोचना-समझना, हिसाब-किताब और सामान्य बर्ताव से है. आम-तौर पर डिमेंशिया को सिर्फ याददाश्त से जोड़ कर देखा जाता है लेकिन ये इस बीमारी का सिर्फ एक स्वरूप है. यहां समझने वाली बात ये है कि इंसानी दिमाग का काम सिर्फ यादें संजोने तक सीमित नहीं है.
रोजमर्रा की जिंदगी में जो चीजें हमें बहुत सामान्य लगती हैं वो सब दिमागी करामात ही है. मसलन चाय का एक कप बनाने की पूरी प्रक्रिया सही तरह से पूरी करना – पानी उबालना, चायपत्ती, चीनी और दूध डालना और अपने स्वाद के मुताबिक चाय बनाना. ये आसान लगने वाली जटिल दिमागी प्रक्रियाएं हैं, जिनमें चीजों को पहचानने के अलावा उनकी माप और चाय में क्रमानुसार डालना भी शामिल है. अगर किसी को डिमेंशिया हो तो वो ये बेहद छोटा लगने वाला काम नहीं कर पाता है.
दिल्ली के भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एम्स) के न्यूरोलॉजी विभाग में प्रोफेसर डॉ एमवी पद्मा श्रीवास्तव बताती हैं कि कि दिमाग ऐसी छह मानसिक प्रक्रियाओं का घर है, जिनसे हमारी जिंदगी चलती है. यादाश्त इनमें से सिर्फ एक प्रक्रिया है. रोजमर्रा के जीवन में हम जो भी करते हैं उनकी क्रमवार समझ, दिमागी गतिविधियों का दूसरा अहम पहलू है जैसे चाय बनाने या बर्तन धोने का तरीका. तीसरी मानसिक प्रक्रिया है भाषा. बोली जा रही भाषा को समझना, सही शब्दों का चुनाव कर उसका सटीक जवाब देना, सोचिए ये दिमाग का कितना बड़ा काम है. इसी तरह हमारा सामान्य व्यवहार जैसे सोना, उठना, काम पर जाना किसी को चकित नहीं करता लेकिन दरअसल उसका हर दिन सामान्य होना ही हमारे दिमाग के सही तरह से काम करने की पहचान है.
यहां पर ये समझना भी जरूरी है कि डिमेंशिया का खतरा बढ़ती उम्र के साथ ही बढ़ता है. यानी अगर आप युवा हैं, तनाव और दबाव में बातें भूल जाते हैं तो ये खतरे की घंटी भले ही ना हो लेकिन साठ बरस के पार अगर किसी व्यक्ति में, रोज के काम-काज या रास्ता भूलने, रुचियों और लोगों से मिलने-जुलने के सामान्य व्यवहारों में बदलाव दिखने लगे तो उसकी वजह जानने के लिए डॉक्टर के पास जाना जरूरी है. हालांकि डिमेंशिया को एक डीजेनेरेटिव यानी लगातार बिगड़ने वाली बीमारी कहा जाता है जिसको रोक सकने वाले इलाज मौजूद नहीं हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि ये लक्षण हमेशा एक ही स्थिति की तरफ इशारा कर रहे हों. इसका मतलब ये भी है कि ये बदलाव शायद किसी और वजह से हों जैसे किसी दवाई का बुरा प्रभाव या फिर शरीर में किसी विटामिन की कमी हो, जिन्हें वक्त रहते ठीक किया जा सकता हो.
अनिंद्य सेनगुप्ता, लंबे समय तक भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी रहे हैं और तीन साल पहले उनके पिता में डिमेंशिया के शुरुआती लक्षणों का पता चला था. वह बताते हैं कि मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में थे और रिटायरमेंट के बाद उन्होंने सोचा कि अब जिंदगी में बहुत काम कर लिया, इसलिए बस आराम ही किया जाए. धीरे-धीरे उन्होंने अपनी पसंद की चीजें जैसे किताबें पढ़ना या लोगों से मिलने जाना भी बहुत कम कर दिया. उन्होंने खुद को काफी अलग-थलग सा कर लिया. मेरी मां को भी लगा कि बस ये उम्र का तकाजा है लेकिन ऊपर से स्वस्थ दिखने वाले मेरे पिताजी दिमागी तौर पर बिखर रहे थे. हमें अंदाजा ही नहीं था कि ये डिमेंशिया की शुरुआत हो सकती है लेकिन सच यही था.
एक पढ़े-लिखे सजग मध्यमवर्गीय परिवार के शख्स से ये बातें सुनकर स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है. डिमेंशिया में मामला सिर्फ बीमारी का नहीं है, क्योंकि बीमारी अपनी पकड़ बनाने के रास्ते में बहुत से निशान छोड़ती है, उन निशानों को ना पहचान पाना, पीड़ित और परिवार दोनों के लिए मुश्किलें कहीं ज्यादा बढ़ा देता है. एक बात खास तौर पर समझने की है कि ये अचानक पैदा होने वाली बीमारी नहीं है. ये एक धीमी प्रक्रिया है और वृद्धावस्था में लक्षण दिखने की वजह से इसे उम्र बढ़ने की सामान्य प्रक्रिया मान लिया जाता है. इसका अर्थ है कि एक तरफ तो बीमारी के मेडिकल कारण हैं लेकिन स्वास्थ्य के प्रति आम भारतीय परिवार का नजरिया भी इसके बढ़ते कदमों की वजह बन रहा है.
डॉक्टर पद्मा श्रीवास्तव कहती हैं कि डिमेंशिया के दो मुख्य रूप हैं. एक, वैस्क्युलर डिमेंशिया जिसकी वजह ब्रेन सेल यानी दिमाग की कोशिकाओं में रक्त संचार में आई रुकावटों से होने वाला नुकसान है. ये भारत जैसे दक्षिण एशियाई देशों में बड़ा कारण है क्योंकि ब्लड प्रेशर या रक्त संचार को प्रभावित करने वाली दूसरी बीमारियां यहां काफी सामान्य हो गई हैं. दूसरा रूप है, मिक्सड यानी मिश्रित डिमेंशिया जिसमें रक्त संचार में रुकावट से हुए नुकसान के साथ ही दिमाग में प्रोटीन का जमाव होता है जो दिमाग की प्रक्रियाओं में गड़बड़ी पैदा करता है. हालांकि किस व्यक्ति पर इसका असर कैसा होगा ये बता पाना मुश्किल है क्योंकि इसका गहरा संबंध बीमारी से पहले के जीवन से जुड़ा हुआ है. यानी लोग अपने जीवन में कितना स्वस्थ और सक्रिय हैं व दिमाग को चुस्त रखने के लिए कुछ करते हैं या नहीं.
इसी से जुड़ी हुई बात ये है कि ना सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में मर्दों के मुकाबले औरतें इस बीमारी की चपेट में ज्यादा हैं. सवाल लाजमी है कि क्या इसकी वजह सिर्फ मेडिकल ही है या सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचा भी इसमें अपनी भूमिका निभाता है. ये बात तो छिपी नहीं है कि आमतौर पर भारतीय परिवारों में सेहत, प्राथमिकता में नीचे रहती है और बात महिलाओं की सेहत से जुड़ी हो तो उस पर बात करना किसी क्रांति से कम नहीं. इस बीमारी के लक्षण आने की वजहें शरीर के अंदर भी मौजूद हैं, जिन पर काबू कर सकते हैं और बाहरी माहौल में भी, जो शायद हमारे बस में ना हों. इसीलिए जितनी समझ पैदा की जाए, उतना ही अपने को और अपनों को इससे दूर रखने की कोशिश की जा सकती है.
बंगलुरू के मेडिकल कॉलेज एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के न्यूरोलॉजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. मनोज कहते हैं कि महिलाओं में डिमेंशिया होने के कारणों में शारीरिक के साथ सामाजिक ढांचे की बड़ी भूमिका है. एक राय ये भी है कि महिलाओं की लाइफ स्पैन यानी जीवन-अवधि ज्यादा है इसलिए उनमें उम्र बढ़ने के साथ होने वाली बीमारियों का खतरा ज्यादा होता है. हालांकि दूसरे प्रमुख कारणों में हॉर्मोन, जेनेटिक ढांचा और महिलाओं की सामाजिक भूमिका भी है. इसके साथ ही औरतों को पढ़ने लिखने और काम-काज के अवसर कम मिलते रहे हैं जो दिमाग में कॉगनिटिव रिजर्व या ज्ञान और सूचनाओं का भंडार जमा करते हैं. पढ़े-लिखे लोगों के मुकाबले गैर-पढ़े लिखे लोगों में डिमेंशिया के लक्षण कहीं ज्यादा प्रभावी रूप में सामने आते हैं.
बढ़ती उम्र के साथ जोड़कर देखे जाने वाली बीमारियों को नियति मानने वाली मानसिकता से बाहर निकलना शायद दिमाग को डिमेंशिया से बचाने की ओर पहला कदम होगा. हर बूढ़े होते इंसान के लिए याददाश्त की दिक्कतों या रिटायरमेंट के बाद का वक्त अकेले बिताने की मजबूरियों से भरा होता है, ये मानना सबसे बड़ी दिक्कत है. दूसरी बात है, सेहतमंद खान-पान और दिनचर्या जिससे लोग वाकिफ हैं लेकिन शायद तब तक गंभीरता से नहीं लेते जब तक परेशानियां शुरू ना हो जाएं. डॉ. पद्मा कहती हैं कि बेहिसाब शराब और सिगरेट नहीं पीनी चाहिए, ये तो सबको पता है लेकिन मोटापा, पूरी नींद ना लेना और दिमाग को आराम देने की जरूरत, इन सबकी भी बेहद अहम भूमिका है. आप कसरत करें, दिमाग को शांत करने की कोशिश करें, कुछ हासिल करने की दौड़ में खुद को इतना तनाव ना दें कि शरीर में बीमारियां पैदा होने लगें. अगर ख्याल रखेंगे तो रोग के लक्षणों को ठीक से समझने में भी मदद मिलेगी.
यहां जरूरत इस बात पर जोर देने की भी है कि अगर घर में कोई बुजर्ग हैं तो उनकी सेहत का ख्याल कैसे रखा जा रहा है. डिमेंशिया में रोगी से ज्यादा, आस-पास के लोगों की भूमिका है क्योंकि शायद इंसान को खुद अहसास ना हो लेकिन साथ में रहने वाले लोग या नजदीकी दोस्त, उनकी दिनचर्या को बारीकी से देखकर उसमें आए बदलाव को महसूस कर सकते हैं. डॉ. मनोज मानते हैं कि कुछ बातें जो बचाव में मदद कर सकती हैं वो है अपने रक्तचाप और डायबिटीज पर कड़ी नजर, धूम्रपान और शराब पर लगाम की जरूरत तो है ही लेकिन असल में मसला लोगों में जागरूकता बढ़ाने का भी है.

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