जलवायु परिवर्तन के कारण स्पीति की परंपरा के साथ खत्म हो रहे चरागाह

जलवायु परिवर्तन के कारण स्पीति की परंपरा के साथ खत्म हो रहे चरागाह

संस्कृति तिवारी : स्पीति, हिमाचल प्रदेश के उत्तरपूर्वी हिस्से में स्थित है. यह अत्यधिक ऊंचाइयों वाली घाटियों का इलाक़ा है, जहां अनेक नदियां बहती हैं. इस इलाक़े का पर्यावरण ठंडे रेगिस्तान के जैसा है, जो भारत के भिन्न-भिन्न हिस्सों से आए पर्यटकों को बहुत आकर्षित करता है. ख़ास तौर पर गर्मियों में यहां सैलानियों की

संस्कृति तिवारी : स्पीति, हिमाचल प्रदेश के उत्तरपूर्वी हिस्से में स्थित है. यह अत्यधिक ऊंचाइयों वाली घाटियों का इलाक़ा है, जहां अनेक नदियां बहती हैं. इस इलाक़े का पर्यावरण ठंडे रेगिस्तान के जैसा है, जो भारत के भिन्न-भिन्न हिस्सों से आए पर्यटकों को बहुत आकर्षित करता है. ख़ास तौर पर गर्मियों में यहां सैलानियों की अच्छी-ख़ासी तादाद दिखाई देती है. पर्यटक यहां मिल्की वे आकाशगंगा की झलक पाने के इरादे से भी आते हैं, जो रात के समय आकाश में साफ़-साफ़ दिखती है.
स्पीति में जब 14,500 फीट की ऊंचाई पर मौसम तेज़ी से बदलता है, लंग्ज़ा के चरवाहों की मवेशियों के खाने के लायक पर्याप्त घास नहीं बचती है. हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति ज़िले के चरवाहा और किसान छेरिंग अंगदुई बताते हैं कि लगभग 30 साल पहले स्पीति में भारी बर्फ़बारी हुआ करती थी. यह इलाक़ा पहले ज़्यादा हराभरा था और घास भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी. लंग्ज़ा गांव समुद्र-तल से 14,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, और साल 2011 की जनगणना के अनुसार यहां 158 लोग रहते हैं. उनमें से अधिकांश भोट समुदाय के लोग हैं, जो राज्य में अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध हैं. स्थानीय लोगों की एक बड़ी आबादी खेती, पशुपालन और स्पीति में होने वाले पर्यटन से अपनी आजीविका कमाती है.
छेरिंग समेत लंग्ज़ा के अन्य चरवाहे अपनी भेड़ों, बकरियों और अन्य मवेशियों के रखरखाव में व्यस्त रहते हैं. छेरिंग कहते हैं कि अब यहां पहाड़ों पर पहले जितनी बर्फ़बारी नहीं होती. बारिश भी कम होने लगी है. इसलिए, अब अधिक घास नहीं पैदा होती. यही कारण है कि हमें अपने मवेशियों को घास चराने के लिए, अब ज़्यादा ऊंची जगहों पर ले जाना पड़ता है.
यहां के चरवाहों की कहानी बताती है कि अनियत ढंग से होने वाली बर्फ़बारी किस तरह छेरिंग और यहां के अन्य चरवाहों के रोज़मर्रा के जीवन और आजीविकाओं को मुश्किल में डाल रही है. यहां के ग्रामीण आने वाले दिनों के संकट का अनुमान लगा कर यही सोचते हैं कि एक दिन हमारी भेड़-बकरियां ख़त्म हो जाएंगी, क्योंकि यहां ज़्यादा घास नहीं बची है. हम कहां से घास लाएंगे? जब वह यह सवाल पूछ रहे होते हैं, तब उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ देखी जा सकती हैं.


स्पीति क्षेत्र में चरवाहे गांव वालों को भुगतान करके उनकी चारागाहों में अपनी भेड़ों के झुण्ड को चराते हैं। यह परम्परा जलवायु परिवर्तन से खतरे में है। वे साधारणतया बहती हुई धारा से बर्फ के पुल को पार करके अपने चारागाह तक पहुंचने का जतन करते रहते हैं। वे तो शक्तिशाली बर्फीली धारा को पार कर लेते हैं परन्तु भेड़ और बकरियां आसानी पार नहीं कर पातीं। इसे बाधा को पार कर 4900 मीटर ऊंचे भाभा दर्रे तक पहुंचने में उन्हें 10 दिन लग जाते हैं और दर्जनभर जानवरों का नुकसान हो जाता है। ताराचन्द नेगी ने न तो सूर्य की परावर्तित पारे जैसे रंग की किरणों को देखा है और न ही स्पितियन पहाड़ी के ढाल पर चर रहे चूमूर्ति घोड़े को। झुके हुए सिर के साथ हिमाचल प्रदेश में पिन घाटी के जगनम गांव की ओर बढ़ जाता है। बर्फ से ढके पहाड़ की ओर से चलने वाली ठन्डी हवाओं से चमड़े की जॉकेट और ऊनी पैन्ट उसे बचाती है। सिर पर हरी और स्लेटी किन्नौरी टोपी पहने हुए, झुर्रीदार चेहरा सूर्य की किरणों के सामने दिखाई देता है। सगनम गांव के लोगों ने उसका भाग्य अपने हाथ में ले रखा है। क्या वे उसे पिन नदी के पार अपने खेती से होकर भेड़ के झुण्ड को ले जाने देंगे? वह आशावादी है। साथ ही उसके पास खोने को कुछ नहीं। इन कठिन परिस्थितियों में उसे रखने की अपराधी जलवायु आपदा है।
यद्यपि पेड़ रहित जमीन मानसून के पहले भूरी दिखती है। भेड़, बकरियां, घास, पेड़-पौधे इस सूखे ठण्डे ऊंचे प्रदेश पर जीवित रहते हैं। एक बार मानसून जब किन्नौर से लौटता है और स्पीति में पतझड़ होता है, तब गड़रिये अपने जानवरों के झुण्ड को पहाड़ों पर ले जाते हैं। और गांव वालों को बदले में कुछ रुपये देते हैं, यह परंपरा बहुत पुरानी है। यह परम्परा अब जलवायु परिवर्तन होने की वजह से बन्द होने की कगार पर है। पिछले 10 सालों से अच्छे चारागाह कम हुए हैं। चरवाहे अपर्याप्त बर्फ और जलवायु परिवर्तन पर इसका आरोप लगाते हैं। अत्यधिक अविश्वनीय वर्षा, भूस्खलन, मृदा अपरदन अल्पाइन के चारागाह को कम करते हैं। और उन्हें बर्बाद करते हैं। प्रत्येक वर्ष बहुत से बर्फ के पुल गायब हो जाते हैं।
लाहौल और स्पीति सबसे बड़े ग्लेशियर वाले जिले लगभग 2000 किमी में फैले हैं। पिछले 20 वर्षों में तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और ग्लेशियर पतले हो रहे हैं। शाम को गांव के प्रतिनिधि, नम्बरदार एक पतली गली से ड्रम बजाते हुए लोगों को सभा के लिए बुलाते हैं। ताराचन्द शीघ्र अनुमति के लिए आतुर है। उसने प्रत्येक दरवाजे को खटखटाया और सभा में आने की प्रार्थना की। उसके जानवरों का झुंड गांव के अंत में था। वह एक दिन के लिए भी वहां नहीं ठहर सकता था। उसको सुबह की किरण के साथ या तो मैदान पर जाना था या घर लौटना था। कई परिवार दिन के खाने का उत्सुकता पूर्वक इन्तजार करते हुए तन्दूर की आग के पास खड़े हुए थे। क्या लोग सभा से अपने आप को अलग रखेंगे?
एक-एक करके वे लोग ठंडी रात में 8.30 बजे रात में घरों से निकले। लगभग 15 लोग पतली गलियों से होकर गांव के बीच में आये और ताराचन्द ने अपना मामला रखा और प्रार्थना की कि यदि आप लोग रास्ता नहीं दोगे तो मैं घर लौट जाऊंगा। वापस उसी रूपी घाटी के घर में जिसे उसकी पत्नी ने समतल जगह को काटकर सीढ़ीनुमा बना दिया था। पास की सड़क कुछ घंटे चलने पर मुक्त होती थी। अनाज, गधे और खच्चरों द्वारा घाटी पर लाया जा चुका था। छोटा सा कृषि उत्पादन का समय कृषि सामान्य रहने के लिए आश्वस्त करता था। दो महीने लंबी चारागाह की यात्रा से पहले ताराचन्द अपने घर के पास जानवरों के झुण्ड को चराता और जंगलों का निरीक्षण करता रहता है। यद्यपि रूपी घाटी में चारा बहुत है। चरवाहे ठण्डे रेगिस्तानी मौसम से बचते हैं. कुछ चरवाहे अपने जानवरों को भाभा और रूपी घाटी के नीचे की ओर निचले स्थानों पर रखने लगे हैं। बहुत से चरवाहों ने अपनी भेड़ें बेच दी हैं और सेब उत्पादक बन गये हैं. वे अपने मौसम और बाजार पर रहते हुए 4 लाख से 20 लाख प्रतिवर्ष फलों से कमा लेते हैं। यह जानवरों से मिलने वाली आय से अच्छी है।
ताराचंद की तरह अन्य चरवाहे जिनके पास पर्याप्त भूमि नहीं, इन घास के मैदानों को 2500 रुपये में किराए पर लेते हैं। इस निवेश के लिए दूसरा रास्ता संबंधित पशुधन है। ताराचंद के 1,100 जानवरों के झुंड में से केवल 110 उसके अपने जानवर हैं, जबकि उसके साथ के अन्य 3 चरवाहों के पास 100 से 50 झुण्ड के जानवर। पुराने दिनों में जहां पर 400 से 800 जानवरों की चराई होती थी, वहीं अब 1000 से 1300 पशुओं की चराई होती है। चरवाहों ने जरूरत से ज्यादा चरागाह का इस्तेमाल किया है। कई प्रकार के चारे गायब हो गये हैं और कई जहरीली जड़ें फैल गईं हैं। जलवायु परिवर्तन की समस्या चौतरफा गहराई है। चरवाहों को अपनी भेड़ को जिन्दा रखने के लिए और अधिक चराई की जरूरत है। कुछ चरवाह स्फीति घाटी के नए क्षेत्रों एंसा और काजा में निकले चुके हैं। और कुछ दूसरों ने बकरियों के लिए इतना उच्च मूल्य देना उचित नहीं समझा है।
मौजूदा समस्याओं के साथ, एक संकट चरवाहों के लिए और है। जलवायु परिवर्तन की मार सेब पर पड़ी है। शीतोष्ण फलों को 90 दिन ठंडी और 4 से 5 इंच की बर्फबारी की आवश्यकता होती है जबकि कई लोग इस अधिक लाभ देने वाली पैदावार को छोड़ चुके हैं। किन्नौर में कई सेब उत्पादकों ने उत्पादकता कम होने की बात कही है। किन्नौर के लोग जो पशुधन का कार्य छोड़ चुके हैं, वह वापस इस काम में आ रहे हैं जबकि उन्हें अधिक चरागाहों की आवश्यकता है।
पिन घाटी के बेशकीमती घोड़े समान उच्च पर्वतीय चरागाहों में अपना भोजन प्राप्त कर रहे हैं। इससे नाराज गांववाले चरवाहों से इस प्रकार चराई के लिए शिकायत करते हैं जबकि चरवाहे अधिक चराई वाले क्षेत्रों में जा चुके हैं। गांववालों के पास अब कम उपयोगी भूमि बची है। ये समस्या चौपाल में ताराचन्द के सामने उठने वाली है, जिस पर ताराचन्द का भाग्य टिका है। वन्यजीव वैज्ञानिकों ने इन उच्च अक्षांशों में चराई पर ध्यान केन्द्रित किया है और पाया है कि हिमालयन आईबेक्स और भारल जैसे जंगली शाकाहारी से दबाव पड़ा है। यहां पर पेड़-पौधे गर्मी के कुछ महीनों के लिए उगते हैं। जब पशु इन्हें बार-बार चरते रहते हैं तो इन पौधों के उगने की संभावना नहीं रहती है। और न ही जानवरों के लिए कुछ बचता है। अभिषेक घोसाल ने प्रकृति संरक्षण संघ से डाक्टरेट हैं, चरवाहों के ऊन निर्माण, डिजाइन और इसके लिए बाजार की तलाश पर एक प्रारंभिक सर्वे किया है।
स्पीति के कुछ गांवों में इस प्रकार के कार्य एनजीओ द्वारा चलाए जा रह हैं। महिलाएं लंबी सर्दियों में ऊन बुनने का कार्य करती हैं। और इनको स्नो लेपर्ड वेबसाइट पर अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों को बेचती हैं। रुपये सीधे गांव वालों के पास आते हैं। इन कार्यों का उद्देश्य जंगली शिकारियों से हुए नुकसान की भरपाई करना है। क्या ऐसे कार्य दूसरे स्थानों में भी हुए? चरवाहों को इन कार्यों से कमाई होती है तो चरवाहे पशुधन पर नियंत्रण कर सकते हैं? ज्यादातर चरवाहों से बातचीत में यह बात सामने आई कि उनकी पशुधन में अनिच्छा के कारण भी पशुओं की संख्या में कमी आई है। इन ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में कम उपभोगी जीवन व्यतीत करने वाले न ही गांववाले और न ही चरवाहे, जलवायु परिवर्तन को नियन्त्रण करने के लिये कुछ कर सकते हैं लेकिन यह पिन नदी के पुल के पास और संगम गांव के पास चराई को नियंत्रित कर सकते हैं।
ताराचंद के निवेदन के करने और एक तरफ खड़े होने के बाद गांव वाले आपस में चर्चा करने लगे कि उसे गांव से रास्ता दिया जाए। एक ने कहा “उस पर दया करो। और उसे यहां से जाने दो। यह उसकी गलती नहीं है कि बर्फ का पुल गल गया”, इस बात पर अन्य लोगों ने सिर हिलाकर अपनी सहमति दी। “ये चरवाहे हमारे नियमों को नहीं तोड़ेंगे”, एक ने कहा। बस बहुत हुआ, ये 1500 जानवर लाये हैं और बताया कि 500 खरीदे हैं।” इस तर्क पर कुछ अन्य लोगों ने सहमति दिखाई। अंततः सुबह 3 बजे ये लोग निर्णय पर पहुंचे। और यहां से जाने की अनुमति नहीं दी। इस प्रकार वह किन्नौर चरवाहों के कारण बलि का बकरा बन गया।
बिना खाना खाए, ताराचंद और उसके चार साथी चरवाहे 10 दिनों तक प्रतिदिन 10 किलोमीटर चले। अगर खड़ी ढाल से एक जानवर घायल हो जाए तो उनको खाने के लिए मांस मिल जाता। अन्यथा उनके पास चावल का ढेर या भेड़ या बकरी के दूध के साथ चपातियां हैं। हालांकि कभी-कभी आलू, धाल खाने को मिल जाता है। शाकाहारी और मेवे महंगे हैं। वे साधारण खाना खाते हैं, जबकि उनके पास चर्बीदार जानवर हैं। वे थके हुए हैं। कुछ दयावान गांववालों ने ताराचंद को सलाह दी कि धारा के उस पार बर्फ का पुल मिलने की संभावना है। उनके पास वापस जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं। उसने गांव वालों की सलाह मानी और अपना चराई का स्थान पाने के लिए पहाड़ पर दो दिन पैदल सैकड़ों किलोमीटर चला। जल्दी दोपहर के बाद उनको बर्फ का पुल मिला। जहां पर चरवाहों ने सबसे पहले बकरियों को छोड़ा, फिर भेड़ों को। इसके बाद ताराचंद ने पीछे लाये गये गधे को छोड़ा। इस हालात से उनकी मुसीबतों को बखूबी समझा जा सकता है।

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