दिल्ली से करीब ढाई सौ किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के कासगंज ज़िले का बहादुरनगर गांव भक्ति में डूबा नज़र आता है. पटियाली तहसील का ये गांव गंजडुंडवारा क़स्बे से क़रीब पांच किलोमीटर दूर है. मक्के और मूंगफली के खेतों से गुज़रती पक्की सड़क रेलवे लाइन के नीचे बने पुल से होते हुए जैसे ही बहादुरनगर
दिल्ली से करीब ढाई सौ किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के कासगंज ज़िले का बहादुरनगर गांव भक्ति में डूबा नज़र आता है. पटियाली तहसील का ये गांव गंजडुंडवारा क़स्बे से क़रीब पांच किलोमीटर दूर है. मक्के और मूंगफली के खेतों से गुज़रती पक्की सड़क रेलवे लाइन के नीचे बने पुल से होते हुए जैसे ही बहादुरनगर में दाख़िल होती है, सफ़ेद पत्थर से बना बड़ा दरवाज़ा नज़र आता है. इसके बगल में टीन से ढंका सत्संग हॉल है, जो अभी खाली है. सामने सफ़ेद दीवारों से बना एक आश्रम है, जिसके बगल में एक और आश्रम है और फिर आश्रम की एक और विशाल इमारत, जिस पर ताला लगा है. बाहर से विशाल नज़र आने वाले ये आश्रम भीतर से साधारण हैं. अंदर टीन की छत वाले कमरे हैं जिनमें सेवादार रहते हैं. यहां कोई मूर्ति नहीं है, ना ही पूजा करने की कोई व्यवस्था. दीवार पर नारायण साकार की जवानी के दौर की एक तस्वीर है.
सूरजपाल जाटव उर्फ नारायण साकार हरि, भोले बाबा के नाम से भी जाने जाते हैं. उनका जन्म इसी गांव में हुआ था. उन्हें मानने वालों भक्तों के लिए अब ये एक तीर्थस्थल की तरह है. आश्रम के बाहर कतार से दर्जन भर नल लगे हैं. गिने-चुने भक्त यहां पहुंच रहे हैं जो आश्रम के बाहर माथा टेकते हैं और हाथ जोड़ते हैं. हाथरस में दो जुलाई को भोले बाबा के सत्संग में मची भगदड़ में 121 लोगों की मौत के बाद से नारायण साकार और उनका ये आश्रम लगातार चर्चा में है. कई लोग जिसे पाखंड या अंधविश्वास कह सकते हैं, यहां के लोगों के लिए वह भक्ति और आस्था है.
एक साधारण दलित परिवार में पैदा हुए सूरजपाल जाटव, साल 2000 में पुलिस की नौकरी छोड़ने के बाद बहादुरनगर लौटे और यहां स्वयं को नारायण साकार यानी परमात्मा का साक्षात स्वरूप घोषित कर सत्संग शुरू किया. अब उनके पीछे ऐसे भक्तों की लंबी फौज है, जिन्होंने अपना जीवन उन्हें समर्पित कर दिया है. राजपाल यादव बीस साल पहले नारायण साकार के संपर्क में आए और फिर अपना परिवार और गांव छोड़कर यहीं सेवादार बन गए. राजपाल अब उस ट्रस्ट का हिस्सा हैं जो नारायण साकार के आश्रमों का संचालन करती है. राजपाल दो जुलाई को हुए हादसे को साज़िश और नारायण साकार को साक्षात परमात्मा बताते हैं.
आश्रम दिखाते हुए वो कहते हैं, “यहां लगी एक-एक ईंट भक्तों के पैसों की है. जो कुछ भी आप देख रहे हैं, सभी नारायण साकार के भक्तों ने बनवाया है. यहां ना कोई मूर्ति है, ना किसी भगवान की पूजा होती है, ना किसी से दान लिया जाता है ना ही कोई प्रसाद दिया जाता है. स्वयं नारायण साकार ही परमात्मा हैं. वो अब यहां नहीं रहते हैं, लेकिन भक्त उनके जन्मस्थान के दर्शन करने पहुंचते हैं.”
हाथरस हादसे के बाद दर्ज एफ़आईआर में नारायण साकार नामजद नहीं है, लेकिन वो पुलिस जांच के दायरे में हैं. नारायण साकार के कई सेवादारों को पुलिस ने गिरफ़्तार किया है, इनमें हाथरस में हुए सत्संग के मुख्य आयोजक देव प्रकाश मधुकर भी शामिल हैं. बहादुरनगर आश्रम में मौजूद सेवादार दावा करते हैं कि पुलिस इस मामले में नारायण साकार उर्फ़ भोले बाबा को गिरफ़्तार नहीं कर पाएगी. सेवादार जितेंद्र सिंह कहते हैं, “नारायण साकार हरि परमात्मा को कोई गिरफ़्तार नहीं कर सकता है, ना मीडिया कुछ कर सकती है, ना प्रशासन कुछ कर सकता है और ना शासन. नारायण साकार की सत्ता संपूर्ण ब्रह्मांड में चलती हैं.”
जितेंद्र अकेले नहीं है जो नारायण साकार की परमात्मा के रूप में पूजा करते हैं. जितेंद्र ने अब हिंदू देवी-देवताओं की पूजा बंद कर दी है. वो ज़ोर देकर कहते हैं, “नारायण साकार मौजूदा समय के हाकिम है, पहले मैं राम की पूजा करता था, कृष्ण की पूजा करता था, लेकिन अब मैं जान गया हूं, नारायण ही परमात्मा हैं.” जितेंद्र यहां अकेले नहीं है जिनके ऐसे विचार है. आश्रम से जुड़े सभी लोग नारायण साकार को परमात्मा के रूप में ही देखते हैं. सेवादारों के गलों में नारायण साकार की तस्वीर वाले लॉकेट की माला है.बहादुरनगर दलित बहुल गांव हैं, जहां अधिकतर मकान बिना प्लास्टर के हैं. नारायण साकार के पक्के आश्रम के समक्ष ये और भी मामूली नज़र आते हैं.
इस आश्रम का कई हिस्सों में विस्तार हुआ है. ऊंची सफ़ेद दीवारों से घिरा मुख्य हिस्से का दरवाज़ा बंद है और बाहर ताला लगा है. यहां तैनात सेवादार किसी को भी बंद गेट के नज़दीक भी आने नहीं देते. वह तपाक से कहते हैं, “यह पवित्र स्थल है, कोई इस गेट से आगे नहीं जाता, जूते पहनकर आप इसके क़रीब नहीं आ सकते.” आश्रम का ये हिस्सा तब ही खुलता है जब नारायण साकार यहां आते हैं, जो साल 2014 के बाद से यहां नहीं आए हैं. एक बुज़ुर्ग औरत इस दरवाज़े के बाहर हाथ जोड़ती है और फिर झुककर माथा टेकती है. कई छोटे बच्चे भी एकदम ख़ामोशी से हाथ जोड़कर नमन करते हैं. यहां से गुज़रने वाले गांव के लोग, हाथ जोड़कर ही आगे बढ़ते हैं.
इस दरवाज़े पर गुलाबी यूनिफ़ार्म पहनकर खड़े एक सेवादार का कहना है, “यहां तक पहुंच ही गए हैं तो सिर भी झुका लीजिए, बेड़ा पार हो जाएगा.” यहां जितने भी सेवादार हैं, वो दावा करते हैं कि ट्रस्ट से किसी तरह का वेतन नहीं लेते. सुरक्षा ड्यूटी में लगे एक सेवादार अपना नाम ज़ाहिर नहीं करते हुए कहते हैं, “हमारे परिवार से कोई ना कोई आश्रम की सेवा में लगा रहता है, जब मैं ड्यूटी नहीं कर पाता हूं, तो मेरा भाई यहां सेवा देता है. हम एक दशक से अधिक समय से इस आश्रम से जुड़े हैं.”
सेवादारों के मुताबिक, यहां सिर्फ पुरुष रहते हैं और महिलाओं को यहां रुकने की अनुमति नहीं हैं.
नारायण साकार ने साल 2014 में बहादुरनगर गांव छोड़ दिया था. इसका कारण बताते हुए गांव के कई लोगों ने दावा किया कि ‘जब भोले बाबा यहां सत्संग करते थे तो भारी भीड़ के जुटने से लोगों की फसल बर्बाद हो जाती थी. इसलिए वो यहां से चले गए.’ नारायण साकार अब यहां नहीं है लेकिन इस आश्रम और यहां के बच्चे-बच्चे पर उनका प्रभाव साफ़ नज़र आता है. नारायण साकार ने जब गांव में पहला सत्संग किया था, तब यह आश्रम नहीं बना था. उन्होंने अपनी पैतृक ज़मीन पर बनी झोपड़ी में सत्संग करना शुरू किया था.
तब दस साल की रही अंजू गौमत उनके पहले सत्संग में शामिल हुईं थीं. अब नारायण साकार के प्रति उनकी भक्ति और मज़बूत हुई है. इसका कारण बताते हुए अंजू गौतम कहती हैं, “उन्होंने कभी स्वंय को भगवान नहीं बोला है. वो लोगों को सत्य के मार्ग पर लाना चाहते हैं. पहले हमारे गांव में लड़कियां नहीं पढ़ पाती थीं, मैं बीए पास हूं, उन्होंने ही पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. पहले यहां बहुत गुंडागर्दी थी, लेकिन प्रभु के यहां आने से सब ख़त्म हो गया.
पिछले दो दशकों में नारायण साकार का प्रभाव गांव से निकलकर सिर्फ आसपास के ज़िलों में ही नहीं, बल्कि कई प्रदेशों में भी फैल गया है. अब मैनपुरी, कानपुर, एटा और राजस्थान के दौसा में भी उनके आश्रम हैं. नारायण साकार अब अधिकतर समय मैनपुरी आश्रम में रहते हैं. सूरजपाल के नारायण साकार बनने की ये कहानी साल 2000 में शुरू हुई. निसंतान सूरजपाल की गोद ली हुई बेटी का साल 2000 में देहांत हो गया था. तब उन्होंने अपनी शक्ति से उसे ज़िंदा करने का दावा किया था. कई दिन तक वो लाश के साथ रहे और फिर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया था.
ये कहानी गांवों में एक चमत्कार की तरह पहुंची और रिहा होने के बाद बहादुरनगर लौटे सूरजपाल ने ख़ुद को नारायण साकार घोषित कर दिया. पड़ोस के गांव चक में रहने वाले राज बहादुर याद करते हैं कि उस समय हर तरफ शोर था कि बाबा मरी हुई लड़की को ज़िंदा कर रहे हैं. राज बहादुर कहते हैं, “बाबा के बारे में सबसे पहले हमने यही सुना था कि वो एक मरी हुई लड़की को ज़िंदा करेंगे. लेकिन कोई ज़िंदा नहीं हुआ.” राज बहादुर बताते हैं कि तब बाबा सत्संग में एक चक्र दिखाते थे. वो कहते हैं, “मैं भी चक्र देखने के चक्कर में कई बार सत्संग गया, लेकिन मुझे कोई चक्र नहीं दिखा.” नारायण साकार को लेकर अब राज बहादुर की राय बदल गई है. वो कहते हैं, “ये सब अंधविश्वास और पाखंड ही है.”
मीडिया और सोशल मीडिया से दूर रहने वाले नारायण साकार की कहानी सत्संग के जरिए फैलती चली गई और कई दावे उनसे जुड़ते चले गए. आश्रम के बाहर कतार से लगे कई नल ऐसे ही दावों का प्रतीक हैं. हालांकि, ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि बाबा भले कोई चमत्कार न करते हों, लेकिन उनके सत्संग में जाने से सुकून मिलता है. चक गांव की रहने वाली भगवान देवी हाथरस में हुए सत्संग में शामिल हुईं थीं. भारी भीड़ देखकर वो भगदड़ मचने से कुछ देर पहले ही वहां से निकल गईं थीं.
भगवान देवी कहती हैं, “चमत्कार कुछ होता नहीं है, बस लोगों को लगता है. गंगा में डूब रहा कोई बच जाए तो उसे लगेगा मेरे साथ चमत्कार हुआ है, गंगा ने मुझे बचा लिया. ऐसा ही मामला भोले बाबा का है, जो लोग यहां आते हैं, उन्हें कुछ फायदा हो जाता है, तो उन्हें लगता है कि बाबा ने चमत्कार किया है. हमने सुना है कि आश्रम के नलों से दूध निकलता है, लेकिन मैं तो कई साल से इन नलों से सिर्फ पानी ही पी रही हूं.”
भगवान देवी कहती हैं, “सबके जीवन में परेशानी होती है, सत्संग में जाते हैं तो कुछ समय के लिए वो परेशानी दूर सी लगती है. इसलिए मैं भी चली जाती हूं. क्योंकि वहां जाकर सुकून मिलता है.” नारायण साकार के साथ आगरा में तैनात रहे और यूपी पुलिस से सब इंस्पेक्टर पद से रिटायर हुए राम सनेही राजपूत बताते हैं कि आगरा में तैनाती के दौरान ही उन्होंने सत्संग करने का मन बना लिया था. राम सनेही क़रीब पंद्रह साल आगरा में तैनात रहे और इस दौरान सूरजपाल भी आगरा में ही रहते थे. यहां सूरजपाल ने कुछ समय तक कोर्ट मोर्य (अदालत के आदेश पुलिस तक पहुंचाने) की नौकरी भी की.
राम सनेही आगरा में तैनाती के दौरान सूरजपाल से मिलते-जुलते रहते थे. उन दिनों को याद करते हुए वो बताते हैं, “सूरजपाल की कोई संतान नहीं थी. वो थोड़ा बैरागी प्रवृत्ति के हो गए थे. उन्होंने एक बेटी गोद ली, वो बीमारी से मर गई तो सूरजपाल ने दावा किया कि वो उसे ज़िंदा कर देंगे. कई दिन तक वो उसकी लाश के साथ रहे थे.” राम सनेही ऐलार जाति से हैं जिन्हें लोधे राजपूत भी कहा जाता है. सूरजपाल जब पुलिस की नौकरी छोड़कर गांव लौटे थे, तब राम सनेही के पास भी आए थे.
राम सनेही याद करते हैं, “उन्होंने गांव लौटकर कहा था कि अब मैं गांव में ही सत्संग करूंगा. हमने उनसे कहा कि अगर हम आपका समर्थन नहीं करेंगे तो विरोध भी नहीं करेंगे. वो सत्संग करने लगे, पहले गांव के लोग आए, फिर आसपास के लोग आने लगे. फिर लोगों ने कई तरह के दावे उनके साथ जोड़ दिए.” राम सनेही एक किस्सा सुनाते हुए कहते हैं, “सूरजपाल ने एक बार मुझे आश्रम में भोजन के लिए आमंत्रित किया. लेकिन उनकी जाति अलग है और हमारी अलग. मैंने समाज के डर से उनके आश्रम में खाना नहीं खाया.”
इस क्षेत्र में जातिवाद का असर साफ़ नज़र आता है. चक गांव में ऐलार जाति के अधिकतर लोग नारायण साकार को पाखंडी और ढोंगी बताकर खारिज करते हैं. नारायण साकार में विश्वास करने वाले अधिकतर लोग दलित हैं. उनके दलित समर्थकों को लगता है कि जाति की वजह से नारायण साकार पर सवाल उठाये जा रहे हैं. बहादुरनगर के रहने वाले राज बहादुर कहते हैं, “हम एससी जाति से हैं, हमारे प्रभु भी एससी हैं, इसलिए हम पर निशाना साधा जा रहा है. जैसे शम्भूक ऋषि के साथ हुआ था, वैसा ही नारायण साकार के साथ किया जा रहा है.” बहादुरनगर के घरों में नारायण साकार के रूप में सूरजपाल की तस्वीर डॉ. भीमराव अंबेडकर की तस्वीर के साथ लगी है.
किसान नन्हें सिंह जाटव के घर पैदा हुए सूरजपाल ने शुरुआती पढ़ाई गांव से ही की और फिर पुलिस में भर्ती हो गए. उनके एक भाई की बीमारी की वजह से मौत हो गई थी और दूसरे भाई राकेश कुमार गांव के प्रधान रहे हैं. राकेश कुमार और सूरजपाल के बीच संपत्ति को लेकर विवाद भी रहा है. राकेश कुमार की बेटी बताती हैं, “उनका हमारे परिवार से कोई संपर्क नहीं है. उन्होंने हमें छोड़ दिया है.” लेकिन क्या वो नारायण साकार में विश्वास करती हैं, इस सवाल पर वो कहती हैं, “जैसे सब करते हैं हम भी करते हैं.” संपत्ति विवाद पर वो कहती हैं, “जो ज़मीन चली गई वो चली गई. अब हमें लगता है कि उसका सही इस्तेमाल हुआ है.”
राकेश कुमार की एक नाबालिग बेटी नारायण साकार की भक्ति में पूरी तरह डूबी नज़र आती है.
हर मंगलवार को बहादुरनगर आश्रम के बाहर भक्तों की भारी भीड़ जुटती है. आश्रम के बाहर एक दुकान चलाने वाला युवक बताता है, “मंगलवार को यहां पैर रखने की जगह नहीं रहती है. दूर-दूर से लोग आते हैं, मत्था टेकते हैं और चले जाते हैं.” आश्रम परिसर में किसी तरह की कोई दुकान नहीं है. यहां लगे बोर्ड पर लिखा है- ‘भक्तों को कोई भी सामान बेचने की अनुमति नहीं है.’ आश्रम के भीतर एक ख़ास क़िस्म का काढ़ा, जिसे सेवादार ख़ास चाय बताते हैं, तैयार किया जा रहा है. जो कुछ भक्त यहां पहुंच रहे हैं, उन्हें मांगने पर काग़ज़ के कप में ये पीने के लिए दी जाती है. भक्त दावा करते हैं कि इससे कई तरह के फ़ायदे होते हैं. चखने पर ये बेहद कड़वा लगता है.
आश्रम के बाहर कुछ परिवार बच्चों के मुंडन कराने भी पहुंच रहे हैं. यहां आए भक्त बताते हैं कि जो लोग बच्चा होने की मन्नत मांगते हैं, वो बच्चा होने के बाद मुंडन के लिए उसे यहां लेकर आते हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि सूरजपाल ने नारायण साकार बनकर एक नया पंथ शुरू कर दिया है. उनका असर सिर्फ कासगंज या हाथरस ही नहीं, बल्कि आसपास के ज़िलों के ग्रामीण इलाक़ों में लगातार बढ़ रहा है.
हाथरस हादसे में मारे गए भक्तों में यूपी के कई ज़िलों के अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा के भी लोग थे. भक्त उनके चरणों की धूल को आशीर्वाद समझते हैं. कुछ उसे गले के लॉकेट में पहनते हैं. अधिकतर लोग जो यहां पहुंच रहे हैं, वो अपने जीवन में निराश, बीमारी से परेशान, या दिक्कतों में उलझे हैं. उन्हें लगता है कि उनके जीवन में जो कुछ भी ठीक हुआ, वो नारायण साकार का ही आशीर्वाद है. दुर्गेश दिल्ली से बहादुरनगर आए हैं. उनका ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन हुआ है और दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में इलाज चल रहा है. वो अपनी बेहतर होती सेहत का श्रेय इलाज करने वाले डॉक्टरों के बजाए नारायण साकार को देते हैं.
दुर्गेश कहते हैं, “मेरे पिता नारायण साकार से जुड़े थे. फिर मैं आश्रम आने लगा. मैंने परमात्मा को याद किया और मेरी मुश्किलें आसान होती चली गईं.”
जागरूक लोग, ऐसे दावों को पाखंड और अंधविश्वास कहकर खारिज कर सकते हैं, लेकिन बहादुरनगर पहुंच कर लगता है कि भक्तों के लिए तर्क मायने नहीं रखते. एक रहस्यमयी जीवन जीने वाले और चमक-दमक से दूर रहने वाले नारायण साकार, जिनके इंटरनेट पर बहुत कम ही वीडियो उपलब्ध हैं, हाथरस हादसे के बाद ही चर्चा में आए हैं. इस हादसे से पहले, उनके भक्तों के अलावा बहुत कम ही लोग उन्हें जानते थे.
वो अपने भक्तों को सत्संग या अपने कार्यक्रमों का वीडियो बनाने के लिए सख़्ती से रोकते हैं. यदि कोई वीडियो बनाने की कोशिश करता है तो उनके सेवादार मोबाइल छीन लेते हैं. हाथरस में सत्संग के दौरान, सड़क से गुज़रते हुए एक युवक ने जब वीडियो बनाने की कोशिश की तो सेवादारों ने उसका मोबाइल छीनकर बमुश्किल लौटाया. फिर छुपकर उसने कुछ सेकंड का वीडियो बनाया, जिसमें भारी भीड़ नज़र आ रही है. बहादुरनगर आश्रम में मौजूद एक सेवादार कहते हैं, “बाबा को किसी वीडियो या मीडिया की ज़रूरत ही नहीं हैं, वो स्वयं परमात्मा हैं, स्वयं में सक्षम हैं.”
नारायण साकार अब बड़े काफिले के साथ चलते हैं. उनकी सुरक्षा में सेवादारों के दस्ते तैनात रहते हैं. उनकी अपनी नारायणी सेना है जो गुलाबी पोशाक पहनती है और सत्संग की व्यवस्था संभालती हैं. वो गरुण कहे जाने वाले कमांडो दस्ते के घेरे में चलते हैं जो सैन्य बलों जैसी पोशाक पहनते हैं. इन कमांडो के पहले घेरे के बाहर हरिवाहक दस्ता होता है जो भूरी पोशाक में रहता है. नारायण साकार की सुरक्षा के अलावा इन सेवादारों की एक और अहम ज़िम्मेदारी है- किसी को उनकी तस्वीर या वीडियो नहीं लेने देना.
नारायण साकार से जुड़े कई भक्ति गीत यूट्यूब पर हैं. ऐसे ही गीतों को प्रोडक्शन के दौरान कई साल पहले नारायण साकार के साथ काम करने वाले एक व्यक्ति अपना नाम न ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, “पहले उनके साथ इतनी तादाद में लोग नहीं थे, ये संख्या पिछले कुछ साल में बहुत तेज़ी से बढ़ी है..अधिकतर भक्त जो नारायण साकार के साथ जुड़े हैं, वो अन्य भक्तों के माध्यम से आश्रम के संपर्क में आए. अपने प्रचार-प्रसार के लिए नारायण साकार ने कभी मीडिया या सोशल मीडिया का सहारा नहीं लिया. उन्होंने भक्तों और सेवादारों का ऐसा नेटवर्क बनाया, जो नए लोगों को उनके साथ जोड़ते चले गए. अब हाथरस, कासगंज, अलीगढ़, मथुरा, फर्रूखाबाद, बदायूं, बहराइच, कानपुर से लेकर कई ज़िलों के ग्रामीण इलाक़ों में उनका अपना पंथ बढ़ रहा है.
हादसे के बाद भी, उनके अधिकतर भक्त उनसे जुड़े हुए हैं. हालांकि अपने परिजनों को गंवाने वाले कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपना आक्रोश ज़ाहिर कर रहे हैं. अपनी नानी को गंवाने वाली मृत्युंजा गौतम कहती हैं, “कोई अपने आप को भगवान कैसे घोषित कर सकता है, लोग उसे कैसे भगवान मान सकते हैं?” लालाराम की पत्नी की जान भी इस हादसे में गई. वो सवाल करते हैं, “अगर बाबा में कोई शक्ति थी तो उन्होंने हादसा क्यों नहीं रोका. अपनी शक्ति से मर रहे लोगों को क्यों नहीं बचाया, उनके लिए ऑक्सीजन क्यों नहीं बनाई?”
नारायण साकार पर छेड़खानी, ज़मीन पर क़ब्ज़े की कोशिश और पाखंड फैलाने के कई मुक़दमे पिछले दो दशकों में दर्ज हुए. हालांकि पुलिस की क्लोज़र रिपोर्ट लगने के बाद ये सब बंद हो चुके हैं. उनके वकील एपी सिंह कहते हैं, “जो मुक़दमे बंद हो चुके हैं, उनका अब कोई महत्व नहीं हैं. नारायण साकार पर अब सिर्फ एक ही केस चल रहा है.” एक साल पहले नारायण साकार ने बहादुरनगर में अपनी सभी संपत्तियों को एक धर्मार्थ संस्था को दान कर दिया था. बहादुरनगर से लौटते वक़्त ये सवाल मन में रह जाता है कि भक्तों से चंदा, दान और दक्षिणा ना लेने का दावा करने वाले नारायण साकार के कार्यक्रमों के लिए खर्चा कहां से आता है? हालांकि उनके समर्थकों का दावा यही है कि सारे कार्यक्रम का ख़र्च चंदे से जुटाया जाता है.
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