कुछ साल पहले की बात है. हमारे बच्चे छोटे थे. पाँच लोगों के परिवार में हम दो व्यस्क हैं, मम्मा और पापा, और तीन बच्चे यानी हमारी बेटियां. दक्षिण दिल्ली में हम एक दोस्त के खाली फ़्लैट में एक दंपत्ति से मिलने गए थे. हमारे दोस्त देश के बाहर रहते हैं और फ़्लैट को किराए
कुछ साल पहले की बात है. हमारे बच्चे छोटे थे. पाँच लोगों के परिवार में हम दो व्यस्क हैं, मम्मा और पापा, और तीन बच्चे यानी हमारी बेटियां. दक्षिण दिल्ली में हम एक दोस्त के खाली फ़्लैट में एक दंपत्ति से मिलने गए थे. हमारे दोस्त देश के बाहर रहते हैं और फ़्लैट को किराए पर चढ़ाने में हम उनकी मदद कर रहे थे. वे दोनों कुछ हमारे जैसे ही थे. दिल्ली के लोग, अच्छे स्कलू में पढ़े हुए. दिल्ली यूनिवर्सिटी और एमबीए की डिग्री हासिल करने के बाद वे अपना कारोबार कर रहे थे. उन्हें अपने लिए एक किराए के घर की तलाश थी. हमारे पास दोस्त के घर की चाबी थी और हम पांचों उन्हें घर दिखाने पहुंचे थे.
काम तो अपने आप में दिलचस्प नहीं था लेकिन जब किसी परिवार में छोटे-छोटे बच्चे हों तो किसी भी काम से घर से बाहर निकलना, किसी एडवेंचर जैसा बन ही जाता है. मैंने उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा, “हाय, मैं नताशा हूं.” उन्होंने मेरी बच्चियों को देखा, फिर मेरी ओर देखा. मैंने उनके चेहरे की ओर देखा, मेरे चेहरे पर एक सवालिया निशान उभर आया था. उन्होंने दोबारा पूछा, “आप बेटा चाहती थीं?” मैंने थोड़ी उलझन के साथ कहा, ‘नहीं.’ वह जो कह रही थीं, वो मेरी समझ में आने लगा था. अब वह मेरी सबसे छोटी बेटी नसीम की ओर देख रही थीं. नसीम अपने आप में मगन थी. वह ख़ाली और धूल भरे घर में इधर-उधर चिपट रही थी और अपना ही कोई गाना गुनगुना रही थी. अब नसीम घर के अंदर बने एक पिलर को दोनों हाथ पकड़कर उस पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी, जैसे लोग नारियल के पेड़ पर चढ़ते हैं.
इसके बाद उसने अपने पिता को पिलर मानकर उन पर चढ़ने की कोशिश की. अफ़ज़ल (नसीम के पिता) का संतुलन एक पल के लिए तूफ़ान में दुबले पतले पेड़ों की तरह डगमगाया लेकिन उन्होंने जल्दी ही संतुलन हासिल कर लिया. नसीम उन पर झूल रही थी. उस महिला ने कहा, “यह एक लड़की है. सभी की सभी लड़कियां हैं.” मैंने उस महिला से कहा, “आप कुछ देर के लिए मेरे साथ बाहर आएंगी?” मैंने घर का मुख्य दरवाज़ा खोला और आगे बढ़ आयी. उन्हें मेरी बात समझ में नहीं आयी थी. मैंने उनसे कहा, “यहां बाहर आइए.” तब वह बाहर निकलीं. इसके बाद मैंने अपनी सबसे बड़ी बेटी को कहा, “सहर, मैं इनसे बात करने के लिए यहीं बाहर हूं.” सहर उस वक़्त अपनी बहन अलीज़ा के साथ ख़ाली अलमारी में बैठी थी, वहां से उसने कहा, “मम्मा, क्या है?”
मैंने उसे इशारों से बताया कि मैं यहीं हूं और यही बताना चाहती थी, आप लोग सावधानी से खेलो. सहर तब नौ साल की थी और हमलोग एक दूसरे के चेहरे से मनोभावों का बख़ूबी पता लगा लेते थे. अब मैं फ़्लैट देखने आयी महिला की ओर मुड़ी, जिनका ध्यान मेरी बेटियों में भटक गया था, या कहें कि मेरी बेटियों ने उन्हें व्यथित कर दिया था. मैंने सीधे पूछा, “आप क्या कह रही थीं?” उन्होंने कहा, “मैं तो केवल यह कह रही थी कि आप बेटा चाहती होंगी, इसलिए आपने तीन बार कोशिश की.” मैंने उनसे कहा, “हो सकता है कि ये बात आपके दिमाग़ में अब तक नहीं आयी हो लेकिन कुछ लोगों के पास बच्चे इसलिए होते हैं क्योंकि वे बच्चे चाहते हैं. कुछ लोग एक दूसरे से प्रेम में होते हैं. वह एक साथ परिवार बनाना चाहते हैं. हो सकता है कि ये विचार मूर्खतापूर्ण हो और यह हमेशा कारगर भी नहीं हो लेकिन हम में से कईयों के साथ ऐसा होता है.”
उन्होंने अपनी तीन उंगली दिखाते हुए फिर कहा, “लेकिन आपकी तीन बेटियां ही हैं.” इसके बाद मैंने उनसे कहा, “मैं आपके बारे में बुरा सोचने लगूं, उससे पहले मैं आपकी बकवास के बारे में कुछ कह दूं. आपको ये अंदाज़ा भी है कि इस तरह से बच्चों के सामने बात करना कितना ग़लत है?” मैंने आगे कहा, “आप बच्चों के सामने ये कह रही हैं कि उनके माता-पिता, उन्हें नहीं चाहते हैं. उन्हें जीवन का अधिकार नहीं है? कोई भी अनजाना शख़्स उनके प्रति ख़राब व्यवहार कर सकता है, इसलिए कि वे लड़कियां हैं?” मैंने उनसे पूछा, “उनमें ऐसा क्या है कि जिससे आप उनसे इतनी नफ़रत दिखा रही हैं?” ज़ाहिर है उनके पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था लेकिन केवल पहले से बनायी गई धारणा, उधार के लिए विचार और सुविधा को देखते हुए प्रतिक्रिया जताने वाली वह कोई अकेली महिला नहीं हैं.
हम सभी एक दूसरे से अलग, बिना सोचे समझे, ख़ुद को सही मानते हुए फ़ैसले सुनाते हैं, फ़ैसले सुनाने से पहले दोबारा विचार भी नहीं करते. हमारे पास सभी पर चिपकाने के लिए लेबल होते हैं, भले हमारी अपनी पंसद जैसी भी हो. मैंने ये भी सीखा कि मूर्खों की बातों को दबाने के लिए उनसे भी ऊंचा बोलना होता है. हालांकि मैं यह स्वभाविक रूप से नहीं कर पाती हूं. मुझे ग़ुस्सा आता है लेकिन मेरा ग़ुस्सा कहीं अंधेरे में गुम हो जाता है, या कहें अंदर ही छिप जाता है. ग़ुस्से में मैं लड़खड़ाने लगती हूं लेकिन मैं अपने ग़ुस्से को संभालना सीख रही हूं. यह फिसलन भरा है और मुझे मुश्किल में डालने वाला हो सकता है. अकेले ग़ुस्से में कांपने से बेहतर लोगों को झकझोरना होता है. सहर और अलीज़ा फ़्लैट से बाहर आकर बोले, “मम्मा, पापा आपको अंदर बुला रहे हैं.” सहर ने मेरे चेहरे के भावों से पता लगाने की कोशिश करते हुए पूछा भी, “आप क्या बात कर रही थीं?” मैंने कहा, “कुछ महत्वपूर्ण बातें थीं, जो मैंने तुमसे सीखी हैं.”
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