विनीत खरे : भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश है और करीब 1200 किलोमीटर की लंबी तटरेखा के साथ गुजरात की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है. एक आंकड़े के मुताबिक पिछले साल गुजरात से 5,000 करोड़ रुपए के आसपास का मरीन एक्सपोर्ट हुआ और उसमें से 1,700 करोड़ रुपए का सामान चीन को
विनीत खरे : भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश है और करीब 1200 किलोमीटर की लंबी तटरेखा के साथ गुजरात की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है. एक आंकड़े के मुताबिक पिछले साल गुजरात से 5,000 करोड़ रुपए के आसपास का मरीन एक्सपोर्ट हुआ और उसमें से 1,700 करोड़ रुपए का सामान चीन को गया यानि राज्य के मरीन उद्योग से लाखों की रोज़ी रोटी जुड़ी हुई है लेकिन पिछले कुछ सालों में डीज़ल और दूसरे सामान की बढ़ती महंगाई, कोविड और यूक्रेन संकट ने गुजरात के मछुआरों और उद्योग के लिए परेशानियां खड़ी कर दी हैं. मछली उद्योग के गढ़ वेरावल में आर्थिक संकट के बादल साफ़ दिखते हैं. मछुआरे बताते हैं, समुद्र से मछलियों की पकड़ कम हो रही है और जल प्रदूषण के कारण मछलियां तट के नज़दीक नहीं आ रही हैं. इसलिए रोज़ी रोटी के लिए उन्हें जान जोख़िम में डालकर कई सौ किलोमीटर दूर बीच समुद्र की और गहराइयों में जाना जाना पड़ रहा है. वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों, बदलते मौसम और संसाधनों पर बढ़ते दबाव के बीच कर्ज़ में डूबे मछुआरों को भविष्य की चिंता सता रही है.
वेरावल के व्यस्त बंदरगाह पर हम हर्जी जीवा लोढारी से मिले. दिन की तेज़ धूप में वो लकड़ी की अपनी फिशिंग बोट के तल में इकट्ठे पानी को निकाल रहे थे. खड़े रहने पर भी पानी नाव में रिस कर जमा हो जाता है. नावों की देखभाल करना हर्जी जीवा लोढारी का रोज़ सुबह और शाम का काम है. बढ़ती महंगाई और घटती मछलियों की पकड़ की वजह से उनकी तीन नावें बंद पड़ी हैं. दो चल रही हैं. और दो उन्होंने कबाड़ में बेच दीं. करीब 60 लोगों के संयुक्त परिवार में रहने वाले हर्जी जीवा पर एक करोड़ रुपये का क़र्ज़ है. 51 साल के लोढारी 300-400 रुपए की दैनिक मज़दूरी से घर का खर्च चलाते हैं. वो कहते हैं कि मुश्किल तो ज़्यादा ही है. सीमा नहीं है उसकी. समुद्र में मछली के लिए नाव तैयार करके भेजना ही कई लाखों रुपए का काम है. हर नाव में 8-9 लोगों का समूह क़रीब 20-25 दिनों तक समुद्र में कई सौ किलोमीटर दूर अनिश्चित ख़तरों से भरी गहराइयों में मछली पकड़ने जाता है. इसके लिए उन्हें पगार, डीज़ल, नया जाल, मछलियों को सड़ने से बचाने के लिए भारी मात्रा में बर्फ़, खाने का सामान आदि देना पड़ता है. ऐसे में अगर मछलियों की पकड़ लागत से कम हो, तो आर्थिक नुकसान होना तय है.
हर्जी जीवा लोढारी कहते हैं कि जब हम ट्रॉलर चालू करते हैं तो हमें लेबर को 5-7 लाख रुपया देने पड़ते हैं. साढ़े तीन-चार लाख का डीज़ल भराना पड़ता है. पूरे पांच छह लाख रुपए का ख़र्च हो जाता है बोट तैयार करने के लिए, फिशिंग जाने के लिए. पूरा बंदरगाह क़र्ज़े में डूबा हुआ है. (हाल चाल जानने के लिए) कोई मिलने नहीं आता. आता है तो आश्वासन देकर चला जाता है. हो जाएगा, हो जाएगा ऐसा बोलकर चला जाता है. सरकार भी नहीं सुनती हमारी.
हर्जी जीवा लोढारी कहते हैं कि नाव को समंदर में ले जाने में पांच-छह लाख का ख़र्च आ जाता है. कई मछुआरों से बातचीत में राजनीतिक पार्टियों और पत्रकारों के बारे में उनकी सोच में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं दिखा. उन्हें लगा कि दोनों आएंगे और बात करके चले जाएंगे लेकिन उनकी परेशानियों का समाधान नहीं होगा. हर्जी जीवा कहते हैं कि पहले हम महीने में दो-तीन लाख कमा लेते थे. अभी तो पैसा डालना पड़ता है डीज़ल में. पास ही बोट पर बैठे हर्जी जीवा की बातें सुन रहे वसंत हर्जीभाई वैश्य 35 साल से इस बिज़नेस में हैं. वो अपनी पांच फिशिंग बोट कबाड़ में बेच चुके हैं. उनके मुताबिक मछुआरों की परेशानियों की जड़ है उन्हें ख़रीदार कंपनियों से समय पर पेमेंट और बाज़ार में मछली का सही दाम न मिलना. इसके अलावा जिस संख्या में समुद्र से पहले मछलियां मिलती थीं, उसमें भी गिरावट आई है यानि कुछ सालों से मछुआरों को निवेश के मुकाबले रिटर्न्स नहीं मिल रहा है जिससे वो कर्ज़ में डूब रहे हैं. इसके अलावा खड़ी नावों से चोरी और तूफ़ान में उनकी तबाही का डर भी उन्हें लगातार सताता है.
हर्जीभाई वैश्य 35 अपनी पांच फिशिंग बोट कबाड़ में बेच चुके हैं. वह कहते हैं कि मेरा कर्ज़ा करीब एक करोड़ के ऊपर का है. मैं भर नहीं पा रहा हूं. क्या करें? अगर गिरफ्तार करेंगे तो जेल में खाना तो मिलेगा ना? यहां खाने के लिए भी मोहताज हैं हम. वेरावल में मछुआरे सोना गिरवी रख रहे हैं. वो बच्चों को कह रहे हैं कि वो कोई और काम करें, और खर्च निकालने के लिए पचास-पचास लाख वाली नावें, दो-ढाई लाख रुपए में कबाड़ में बेच रहे हैं. हमें वेरावल में कई बंद नावें या तो बंदरगाह पर या तो बंदरगाह से बाहर ज़मीन पर खड़ी दिखीं. हर्जीभाई कहते हैं, कि हमारी एक ही मांग है. जिस तरह किसानों की फसल फेल होने पर उन्हें मुआवजा मिलता है, वैसे ही हमारे साथ भी ऐसा होना चाहिए. हम सरकार से बड़े पैकेज की मांग कर रहे है. नहीं तो पूरा बिज़नेस ठप हो जाएगा.
मछुआरों की मानें तो वेरावल में 800 नावों और ट्रॉलर्स के लिए बनी जगह में आज 5,000 से ज़्यादा फिशिंग बोट्स खड़ी हैं, जिनमें से 25-30 प्रतिशत बंद पड़ी हैं. गुजरात खारवा समाज के वाइस प्रेसिडेंट जीतूभाई मोहनभाई कुहाडा कहते हैं कि पांच छह साल में सब ख़त्म हो गया. उनकी 19 फिशिंग बोट्स में से 14 बंद पड़ी हैं. मछुआरों की मजबूरी है कि वो मछलियों को लंबे देर तक रोक कर नहीं रख सकते और ख़रीददार कंपनियों उनकी इस मजबूरी का फ़ायदा उठाती हैं. किसान को सरकार ने कोल्ड स्टोरेज बनाकर दिया है, वैसा कोल्ड स्टोरेज हमारे पास नहीं है. हमारे पास तो मछली है. अगर वो दो घंटा भी धूप में रही तो ख़त्म हो जाएगी.
ख़रीददार कंपनियों की ओर इशारा करते हुए वह कहते हैं कि कम से कम रेट तो अच्छा दीज़िए. आप 10-15 साल पहले जो रेट दे रहे थे, वो रेट आज भी दे रहे हो. तो उसका मतलब क्या है? डीज़ल का रेट बढ़ गया, जाल, मशीन, सबका रेट बढ़ गया. लेबर पहले हमें 250 रुपए में मिल रहा था. आज वो रोज़ का 1,000 रुपए ले रहा है लेकिन मछली का रेट वहीं पर रुका हुआ है. मछुआरों की परेशानियों का एक और कारण है कि सरकार में उनकी आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं है. उनके मुताबिक पूरे गुजरात में मछुआरों के 40-45 लाख वोटर हैं और वो कई विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव प्रभावित कर सकते हैं. गुजरात के माछीमार समाज की मांग है कि पार्टियां माछीमार के लड़के को टिकट दें. पार्टियां हर समाज को टिकट दे रही हैं तो माछीमार को क्यों नहीं? क्या माछीमार ख़राब हैं? माछीमार गुजरात के नहीं हैं? माछीमार इंडिया के नहीं? माछीमार का लड़का अगर गुजरात में एमएलए होकर आएगा, वो सरकार में आएगा तो उसके सवालों का हल निकलेगा.
वेरावल इंडस्ट्रियल एसोसिएशन के चेयरमैन इस्माइल भाई मोठिया का कहना है कि पिछले तीन सालों से इंडस्ट्री घाटे में चल रही है. ऐसा नहीं कि सिर्फ़ मछुआरे ही खराब आर्थिक स्थिति की गिरफ़्त में है. एक आंकड़े के मुताबिक, गुजरात का 60 प्रतिशत कैच चीन को जाता है लेकिन चाहे चीन की ज़ीरो कोविड नीति हो या फिर यूक्रेन संकट से जूझती यूरोपीय अर्थव्यवस्था, वहां के आर्थिक हालात का सीधा असर वेरावल के उद्योग और मछुआरों पर पड़ रहा है. वेरावल में 100 से ज्यादा एक्सपोर्ट यूनिट्स हैं. अभी हमारी रोज़ की कपैसिटी 20 टन की है. हमको माल पांच टन मिल रहा है लेकिन ख़र्च 20 टन का है. इस वजह से से हम बाज़ार में दो रुपए, पांच रुपए और बढ़ाते हैं ताकि हमें ज़्यादा तादाद में माल मिले. तो आपस में प्रतियोगिता की वजह से मछुआरों को बढ़िया रेट मिल रहा है.
मोठिया के मुताबिक प्लांट को चलाने के लिए मछलियों को दूसरे राज्यों से लाने पर इंडस्ट्री पर आर्थिक बोझ बढ़ता है. वह इनकार करते हैं कि मछली के दाम नहीं बढ़ रहे हैं, कहते हैं कि दरअसल, मछलियों की पकड़ कम हुई है, जिस वजह से वो लोग परेशान हैं. मोठिया आगाह करते हैं कि हालात अगर ऐसे ही रहे तो आर्थिक दबाव झेल रहे एक्सपोर्ट यूनिट्स भी बंद शुरू होने शुरू हो सकते हैं. रोज़ाना के ख़र्चे निकल नहीं रहे हैं तो फिर क्या करेंगे? हम लेबर कम करेंगे, स्टॉफ़ कम करके कम लेबर में काम चलाएंगे. द सीफ़ूड एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगदीश फ़ोफंडी चाहते हैं कि मछुआरों को किसानों की तरह क्रेडिट कार्ड दिए जाएं. ऐसे हालात में मछुआरे और उद्योग सरकारी मदद की बात कर रहे हैं. मौसम में बदलाव की वजह से मॉनसून पहले आने लगे हैं. तूफ़ान के हालात कभी आगे बढ़ जाते हैं. तो कई बार ऐसा महसूस किया है कि दो तीन बार समुद्र में जाने पर भी मछुआरों की फ़िशिंग पूरी नहीं हो पाती लेकिन उनका ख़र्च वैसे का वैसा रहता है.
उद्योग बचाने के लिए इससे जुड़े लोग चाहते हैं कि छोटी मछलियों को पकड़ने पर भी रोक लगे ताकि मछलियों की संख्या कम न हो. चुनाव में स्थानीय कांग्रेस विधायक विमल चुदासमा किसानों को आर्थिक सहायता का भरोसा दिला रहे हैं. भाजपा कहती है, उसने मछुआरों के लिए बहुत काम किया है. भाजपा नेता मानसिंह परमार बताते हैं कि अभी थोड़े दिन पहले ही नरेंद्र मोदी जब जूनागढ़ आए थे तो पोर्ट के विकास के लिए 286 करोड़ रुपए वीरावल पोर्ट के लिए प्रावधान किया गया था. ऐसे हमारे गीर सोमनाथ में आठ पोर्ट हैं. एक नवा पोर्टबंदर पर काम चालू हो गया है.
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