लागू हो भी गया तो छुआछूत के कारण औंधे मुँह गिरेगा यूनिफॉर्म सिविल कोड

लागू हो भी गया तो छुआछूत के कारण औंधे मुँह गिरेगा यूनिफॉर्म सिविल कोड

शैलेश : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों के तलाक़ और बहुविवाह जैसे धार्मिक अधिकारों का विरोध करता रहा है. इसलिए वे समान नागरिक संहिता का समर्थन करते दिखायी देते हैं लेकिन हिंदुओं के बीच जो अलग-अलग परंपराएँ हैं, उसको लेकर उनकी सोच कभी सामने नहीं आती. गुजरात चुनाव के

शैलेश : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों के तलाक़ और बहुविवाह जैसे धार्मिक अधिकारों का विरोध करता रहा है. इसलिए वे समान नागरिक संहिता का समर्थन करते दिखायी देते हैं लेकिन हिंदुओं के बीच जो अलग-अलग परंपराएँ हैं, उसको लेकर उनकी सोच कभी सामने नहीं आती. गुजरात चुनाव के एलान से ठीक पहले यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता का मुद्दा सामने आ गया है. समान नागरिक संहिता से विवाद खड़ा हो सकता है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका सीधा असर हिंदू समाज पर पड़ेगा. सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और मुसलमान सभी इससे प्रभावित होंगे क्योंकि सभी धर्मों में परिवार और संपत्ति के बँटवारे से जुड़े क़ानून अलग-अलग हैं. अकेले हिंदुओं में क़रीब एक दर्जन प्रथाएँ चल रही हैं.
आधुनिक युग में समान नागरिक संहिता एक अनिवार्य और क्रांतिकारी क़ानून लगता है, लेकिन यह भी ध्यान में रखना ज़रूरी है कि शिक्षा का व्यापक प्रसार नहीं होने के कारण भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा सामंती युग में जी रहा है. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता ने गोवा के एक परिवार की संपत्ति के बँटवारे पर सितंबर, 2019 में दिए अपने फ़ैसले में गोवा के समान नागरिक संहिता की तारीफ़ की और यह भी टिप्पणी की कि संविधान के अनुच्छेद 44 की अपेक्षाओं के मुताबिक़ सरकार ने समान नागरिक संहिता बनाने की कोई ठोस कोशिश नहीं की. गोवा जब पुर्तगाल का उपनिवेश था तभी समान नागरिक संहिता लागू हो गयी. 1961 में गोवा के भारत में विलय के बाद भी वहाँ यह क़ानून लागू है. इसी तरह पुडुचेरी में भी समान नागरिक संहिता लागू है, जो कभी फ़्रांस का उपनिवेश था. गोवा की समान नागरिक संहिता में स्थानीय ज़रूरत के अनुसार कई बदलाव भी किए गए हैं. इसकी चर्चा बाद में। पहले तो संविधान सभा में क्या हुआ था, इस पर नज़र डालते हैं.
समान नागरिक संहिता के सबसे बड़े समर्थक पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू थे लेकिन संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद और मौलिक अधिकार उप समिति के अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल इसके प्रमुख विरोधी थे. इसके चलते संविधान में समान नागरिक संहिता को जगह नहीं मिली. डॉ. भीम राव आम्बेडकर ने यहाँ तक कहा कि कोई भी सरकार इसके प्रावधानों को इस तरह लागू नहीं कर सकती कि इसके चलते मुसलमानों को विद्रोह के लिए बाध्य कर दिया जाए. पटेल ने इसे मूल अधिकारों से बाहर रखने की वकालत की. अंतत: इसे राज्य के नीति निर्देशक खंड में शामिल किया गया और अनुच्छेद 44 में व्यवस्था की गई कि सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश करे. 1951 में जब हिंदू कोड बिल के ज़रिए हिंदुओं के लिए समान क़ानून बनाने की कोशिश की गई तो सरदार पटेल, सीतारमैया, अयंगर, मदन मोहन मालवीय और कैलाश नाथ काटजू जैसे सदस्यों ने विरोध किया.
नेहरू ने यह क़ानून बनाने से भी रोक दिया जिसके विरोध में डॉ. आम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया. बाद में 1956 में बड़ी मुश्किल से आधा-अधूरा हिंदू कोड बिल पास किया गया लेकिन बाद में चलकर कुछ ऐसे क़ानून बने, जो सभी धर्मों और संप्रदायों के लिए समान हैं और समान नागरिक संहिता के कुछ हिस्सों को पूरा करते हैं. इनमें सिविल मैरिज क़ानून, दहेज विरोधी क़ानून, घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा का क़ानून, बाल विवाह रोकथाम क़ानून, निराश्रित बच्चों को गोद लेने का क़ानून और बुजुर्गों के ख़र्च और सुरक्षा का क़ानून शामिल हैं.
समान नागरिक संहिता में अब तक जो चीजें शामिल नहीं हैं उनमें विवाह और तलाक़, संपत्ति का बँटवारा आदि हैं. बीजेपी और आरएसएस की नज़र इसी तरह की बातों पर है. क़ानून में बदलाव के बाद हिंदू पुरुष या स्त्री को तलाक़ के लिए सिविल कोर्ट जाना पड़ता है. मुसलमान कोर्ट से बाहर तलाक़ दे सकते हैं. इसमें से एक साथ तीन बार तलाक़ बोल कर तलाक़ ए बिद्दत को क़ानून बनाकर हाल में अवैध क़रार दे दिया गया लेकिन एक-एक महीने के अंतराल पर कोर्ट के बाहर तलाक़ का अधिकार अब भी मुसलमानों को है. मुसलमान पुरुषों को कुछ शर्तों के साथ चार शादियाँ करने का अधिकार है. गोवा के जिस सिविल कोड की सुप्रीम कोर्ट ने तारीफ़ की उसमें हिंदुओं को भी बेटे का जन्म नहीं होने पर दूसरी शादी का प्रावधान है. ज़ाहिर है, आज के संदर्भ में यह भी पिछड़ा हुआ क़ानून ही है.
सबसे ज़्यादा पेचीदगी उत्तराधिकार और संपत्ति के बँटवारे को लेकर है. हिंदुओं में इसके लिए दो धार्मिक क़ानून हैं. पहला है दायभाग, जो मुख्य तौर पर बंगाल, असम और ओडिशा में प्रचलित है. इस परंपरा के मुताबिक़ बेटी को भी पिता की संपत्ति में अधिकार होता है. दूसरी परंपरा मिताक्षरा है. इसमें बेटी को पिता की संपत्ति में अधिकार नहीं होता है. संविधान सभा की बहसों में मिताक्षरा को ख़त्म करने की वकालत करने वालों में नेहरू भी थे, लेकिन कई सदस्यों के विरोध के कारण इसे समाप्त नहीं किया जा सका. मिताक्षरा के चार उप परंपराएँ प्रचलित हैं. इनमें बनारस (यूपी), मिथिला (बिहार), मयूरवा (महाराष्ट्र) और द्रविड़ (दक्षिण) में प्रचलित हैं. दक्षिण के राज्यों ने मिताक्षरा को समाप्त तो नहीं किया, लेकिन अलग-अलग क़ानूनों के ज़रिए उत्तराधिकार और संपत्ति में बेटी के अधिकार को सुरक्षित किया.
मुसलिम क़ानून यानी शरिया के मुताबिक़ बाप की संपत्ति में बेटे को बेटी से दो गुणा संपत्ति मिलती है. पत्नी को अगर बच्चे हैं तो आठवाँ हिस्सा और बच्चे नहीं हैं तो चौथा हिस्सा मिलता है. अगर एक से ज़्यादा पत्नियाँ हैं तो आठवाँ हिस्सा संपत्ति सबमें बँटती है. सवाल यह है कि समान नागरिक संहिता में क्या-क्या बातें शामिल होंगी. क्या तलाक़ के लिए सबको सिविल कोर्ट जाना अनिवार्य किया जाएगा? क्या एक से ज़्यादा विवाह पर रोक लगेगी? क्या उत्तराधिकार में पत्नी और बच्चों, ख़ासकर, लड़कियों को समान अधिकार मिलेगा? गुज़ारा भत्ता फिर उसी रूप में जीवित होगा जिस रूप में शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी? क्या सभी विवाह का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य होगा? अब तक जो संकेत मिल रहे हैं, उसके मुताबिक़ मुसलमान इन प्रावधानों के ख़िलाफ़ हैं. संपत्ति का बँटवारा और उत्तराधिकार के मुद्दों पर हिंदू भी अपने-अपने क्षेत्र की परंपरा से चिपके हुए दिखायी देते हैं.
दरअसल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों के तलाक़ और बहुविवाह जैसे धार्मिक अधिकारों का विरोध करता रहा है. इसलिए वे समान नागरिक संहिता का समर्थन करते दिखायी देते हैं लेकिन हिंदुओं के बीच जो अलग-अलग परंपराएँ हैं, उसको लेकर उनकी सोच कभी सामने नहीं आती. समान नागरिक संहिता के अंतर्गत स्त्री- पुरुष समानता जैसे मुद्दे आएँगे या नहीं, इस सवाल पर भी ख़ामोशी दिखायी देती है. हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा, जो ख़ास कर गाँवों में रहता है और सामंती मानसिकता में जी रहा है, स्त्री और पुरुष की बराबरी को स्वीकार नहीं करता है. शिक्षा की कमी, अंधविश्वास और सामंती मानसिकता इसके बड़े कारण हैं. अंध हिंदू राष्ट्रवाद दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती जैसी देवियों की पूजा तो करने के पक्ष में है लेकिन माता, पत्नी, बहन और बेटी को समान अधिकार देने के लिए तैयार नहीं है. मंदिर में जो हिंदू स्त्री पूजक है, वह मंदिर परिसर के बाहर घोर स्त्री विरोधी है. इस सबके बावजूद समान नागरिक संहिता हिंदू राष्ट्रवाद के अंध भक्तों को सम्मोहित कर सकती है. तीन तलाक़ और कश्मीर से संबंधित क़ानूनों से जो आँधी शुरू हुई है, उसे पंख लग सकते हैं लेकिन ज़मीन पर इन क़ानूनों को भी दहेज विरोधी, छुआछूत विरोधी क़ानूनों की तरह औंधे मुँह गिरना पड़ सकता है.

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