दिल्ली से लंदन तक बड़े-बड़ों के आंसू निकाल रहा डॉलर

दिल्ली से लंदन तक बड़े-बड़ों के आंसू निकाल रहा डॉलर

दिल्ली के रविंद्र मेहता बरसों से अमेरिकी बादाम और पिस्ता के आयात-निर्यात का कारोबार कर रहे हैं लेकिन रुपये में हुई रिकॉर्ड गिरावट और कच्चे दाम व माल ढुलाई की बढ़ती कीमतों के कारण ये सूखे मेवे इतने महंगे हो गए हैं कि भारतीय ग्राहकों ने खरीदना ही बंद कर दिया है. अगस्त में मेहता

दिल्ली के रविंद्र मेहता बरसों से अमेरिकी बादाम और पिस्ता के आयात-निर्यात का कारोबार कर रहे हैं लेकिन रुपये में हुई रिकॉर्ड गिरावट और कच्चे दाम व माल ढुलाई की बढ़ती कीमतों के कारण ये सूखे मेवे इतने महंगे हो गए हैं कि भारतीय ग्राहकों ने खरीदना ही बंद कर दिया है. अगस्त में मेहता ने 400 कंटेनर बादाम आयात किए थे जबकि पिछले साल उन्होंने 1,250 कंटेनर मंगाए थे. वह कहते हैं कि अगर ग्राहक खरीद ही नहीं रहा, तो पूरी सप्लाई चेन प्रभावित होती है. मेरे जैसे लोग भी. दिल्ली में महंगाई इस कदर बढ़ चुकी है कि सुरक्षा गार्ड के तौर पर काम करने वाले गोविंद पाल को अपनी पत्नी और एक साल की बेटी को वापस गांव भेजना पड़ा ताकि वह शहर में कुछ कमाई सकें.
वह दो जगह नौकरी करते हैं. अब वह कुछ और युवाओं के साथ एक साझा घर में रहते हैं और मांस खाना कम कर रहे हैं. वह कहते हैं कि और कोई चारा ही नहीं था. हर चीज की कीमत दोगुनी हो गई है. गोविंद की कहानी दुनियाभर में करोड़ों लोगों की कहानी है. महंगाई का दर्द दुनिया के हर हिस्से में महसूस किया जा रहा है. नैरोबी के ऑटो पार्ट डीलर से लेकर इस्तांबुल में बच्चों के कपड़ों की दुकान चलाने वाले और मैन्चेस्टर के वाइन इंपोर्टर तक, सबकी एक ही शिकायत हैः चढ़ता डॉलर स्थानीय मुद्रा को लगातार कमजोर कर रहा है जिसके कारण महंगाई सुरसा के मुंह की तरह विकराल होती जा रही है. उस पर से यूक्रेन में जारी युद्ध का असर ऊर्जा क्षेत्र का दम घोंटे हुए है, जिससे खाने-पीने की चीजें मुंह से दूर होती जा रही हैं.
कॉरनेल यूनिवर्सिटी में व्यापार नीति पढ़ाने वाले प्रोफेसर ईश्वर प्रसाद कहते हैं कि डॉलर का मजबूत होना खराब स्थिति को बाकी दुनिया के लिए बदतर बना देता है. यह चिंता कई आर्थिक विशेषज्ञों की है. इस बात की फिक्र बढ़ती जा रही है कि यह चढ़ता डॉलर दुनिया की अर्थव्यवस्था को मंदी में डुबो देगा जो अगले साल की शुरुआत में कभी हो सकता है. विभिन्न मुद्राओं के साथ अमेरिकी डॉलर का तुलनात्मक आकलन करने वाले आईसीई यूएसडी इंडेक्स के मुताबिक इस साल अमेरिकी मुद्रा 18 प्रतिशत तक ऊपर जा चुकी है. पिछले महीने ही इसने 20 साल का सर्वोच्च स्तर हासिल किया था. अमेरिकी डॉलर क्यों ऊपर की ओर भाग रहा है, इसके कारण छिपे-ढके नहीं हैं. अमेरिका में महंगाई की रफ्तार थामने के लिए वहां का केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ा रहा है. इसी साल कम अवधि वाली ब्याज दरें पांच बार बढ़ाई जा चुकी हैं और इसमें और वृद्धि की संभावना है. इसके चलते अमेरिका सरकार और अन्य कॉरपोरेट बॉन्ड की दरें महंगी हो रही हैं, जिससे निवेशक उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं और डॉलर के दाम बढ़ते जा रहे हैं.
डॉलर की इस मजबूती का असर दुनिया की सभी मुद्राओं पर हो रहा है और वे डॉलर की तुलना में कमजोर हो रही हैं. सबसे बुरा असर गरीब देशों में हो रहा है. भारत का रुपया इस साल डॉलर की तुलना में करीब दस प्रतिशत गिर चुका है. मिस्र का पाउंड 20 फीसदी और तुर्की की लीरा 28 प्रतिशत नीचे आ चुकी है. 60 साल के चेलाल कालेली इंस्ताबुल में बच्चों के कपड़े और डायपर आदि बेचते हैं. अब उन्हें सामान मंगवाने के लिए ज्यादा लीरा चाहिए क्योंकि आयात डॉलर में होता है. उनकी लागत बढ़ गई है तो मजबूरन उन्हें दाम बढ़ाने पड़ रहे हैं. नतीजा, उत्पाद महंगे हो गए हैं और अब कम लोग खरीद पा रहे हैं और कालेली की कमाई घट गई है. कालेली कहते हैं कि हम नए साल का इंतजार कर रहे हैं. देखेंगे कि अकाउंट्स की क्या हालत रहती है और उसी हिसाब से लोगों की छंटनी करेंगे. और कुछ ज्यादा हम कर नहीं सकते.
यह आंच अमीर देशों तक भी पहुंच रही है. यूरोप पहले ही महंगे होते ईंधन की जलन झेल रहा था. अब वहां मुद्रास्फीति का प्रकोप है. 20 साल में पहली बार ऐसा हुआ है कि एक यूरो की कीमत एक डॉलर से कम हो गई हो. ब्रिटिश पाउंड पिछले साल के मुकाबले 18 प्रतिशत नीचे है. आमतौर पर जब मुद्राएं डॉलर के मुकाबले कमजोर होती हैं तो अन्य देशों को कुछ फायदा मिलता है क्योंकि इससे उनकी चीजें सस्ती हो जाती हैं और विदेशों में उनके उत्पाद ज्यादा बिकने लगते हैं. लेकिन इस वक्त ऐसा नहीं हो रहा है क्योंकि सभी लोगों की खरीद क्षमता घट गई है. इससे अन्य देशों का आयात महंगा हो जाता है और पहले से बढ़ती मुद्रास्फीति और ज्यादा तेजी से बढ़ती है.
डॉलर में उधार लेने वालीं कंपनियों, उपभोक्ताओं और सरकारों पर कर्ज का दबाव बढ़ जाता है क्योंकि उन्हें ज्यादा स्थानीय मुद्रा चुकानी पड़ती है. केंद्रीय बैंकों को ब्याज दरें बढ़ानी पड़ती हैं ताकि उनके देश से धन बाहर ना चला जाए. लेकिन ऊंची ब्याज दरों के कारण स्थानीय आर्थिक वृद्धि कमजोर पड़ती है और बेरोजगारी बढ़ती है. कैपिटल इकनॉमिक्स की आरियाना कर्टिस इसे और आसान भाषा में समझाती हैं. वह कहती हैं, डॉलर की मजबूती अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए बुरी खबर है. यह एक और कारण है कि हमें अगले साल वैश्विक इकॉनमी के मंदी में डूबने का डर है.

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