शेयर बाज़ार साल के उच्चतम स्तर पर चला गया है. रुपए में भी डॉलर के मुक़ाबले काफ़ी सुधार हुआ है लेकिन पीड़ा की बात यह है कि गेहूं के दाम भी उच्चतम स्तर पर पहुँच गए हैं. 2842 रु. क्विंटल. पीड़ा इसलिए कि इस देश ने कभी किसानों का भला सोचा ही नहीं. कह सकते
शेयर बाज़ार साल के उच्चतम स्तर पर चला गया है. रुपए में भी डॉलर के मुक़ाबले काफ़ी सुधार हुआ है लेकिन पीड़ा की बात यह है कि गेहूं के दाम भी उच्चतम स्तर पर पहुँच गए हैं. 2842 रु. क्विंटल. पीड़ा इसलिए कि इस देश ने कभी किसानों का भला सोचा ही नहीं. कह सकते हैं कि ऐसी मानसिकता ही विकसित नहीं हो पाई.
पेट्रोल और डीज़ल के दामों में आग लग जाए, हमें कोई चिंता नहीं होती. मितव्ययिता तक नहीं बरतते. उतना ही घूमते- फिरते हैं. उतनी ही रेस लगाते फिरते हैं लेकिन गेहूं के दाम बढ़ते ही हमें दिक़्क़त होने लगती है, जबकि इस मूल्यवृद्धि से किसान का कोई लेना देना ही नहीं होता. उसे तो इसका फ़ायदा भी नहीं मिलता. सो बढ़ गए गेहूं के भाव बल्कि कहा यह भी जा सकता है कि व्यापारियों ने अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए ही गेहूं को इस स्तर पर पहुँचाया होगा. अगर सरकार अपने हिस्से की पूरी खरीदी कर लेती तो ये दिन देखने को नहीं मिलते. जहां तक सरकार की ख़रीदी के हाल हैं, वे तो असहनीय पीड़ा से गुजरने जैसे होते हैं.
पहले अपने रकबे की फसल बेचने के लिए नंबर लगाओ. फिर नंबर जल्दी आ जाए, इसके लिए बाबू को पैसे खिलाओ. जब नंबर आ जाए तो तीन- तीन दिन किसान गोदाम के आगे ट्रैक्टर लगाकर वहीं सोना, वहीं खाना, नहाना करता रहता है, फिर भी ख़रीद मंडियों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. वे अपनी ही चींटी की टांग वाली चाल से चलती रहती हैं. यहाँ तक कि थक – हार कर किसान उन हम्मालों को भी पैसा खिलाता है जो उसका गेहूं तौलते हैं. …और यह पूरी प्रक्रिया फिर हम्मालों की पूजा-अर्चना करने के बाद बाक़ायदा संपन्न होती है.
क्या सरकार, उसके मंत्री, कलेक्टर और बाक़ी अफ़सरों को यह ऊबाऊ और भ्रष्ट परम्परा नज़र नहीं आती? लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि खाए हुए पैसों का हिस्सा ऊपर तक जाता है. अब इस ऊपर तक का कोई हिसाब- किताब तो है नहीं जो कहा जा सके कि कितना ऊपर! यक़ीनन किसानों के इस उपहास से मुक्ति का रास्ता खोजना चाहिए. जय जवान, जय किसान का नारा देने वाली सरकारें केवल नारा देकर सो जाती हैं और लाचार किसान बरसों बरस इसकी सजा भुगतता रहता है। यह सजा बंद होनी चाहिए.
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