हरमन खुराना : सिक्ख महिलाएं गुरुद्वारों में ‘शबद’ गाने वाली कीर्तनियों के रूप में न केवल अपनी पहचान बना रही हैं, बल्कि धीरे-धीरे अब उनके इस प्रयास को मान्यता भी मिलने लगी है. हालांकि, इस यात्रा को तय करने में उन्हें अनेक परीक्षाओं से भी गुज़रना पड़ा है. नरिंदर कौर बताती हैं, “महिलाओं ने मुझे
हरमन खुराना : सिक्ख महिलाएं गुरुद्वारों में ‘शबद’ गाने वाली कीर्तनियों के रूप में न केवल अपनी पहचान बना रही हैं, बल्कि धीरे-धीरे अब उनके इस प्रयास को मान्यता भी मिलने लगी है. हालांकि, इस यात्रा को तय करने में उन्हें अनेक परीक्षाओं से भी गुज़रना पड़ा है. नरिंदर कौर बताती हैं, “महिलाओं ने मुझे बताया कि जब वे कीर्तन करती थीं, तब गुरुद्वारा-प्रबंधन कैसे स्पीकरों को बंद कर दिया करता था. उनकी ढोलकी को गुरुद्वारे के परिसर से बाहर रखा जाता था.” नरिंदर, गुरदासपुर ज़िले के काहनूवान से पलायन करने के बाद 41 सालों से दिल्ली में ही रहती हैं.
उम्र में 63 साल की हो चुकीं नरिंदर कौर, नई दिल्ली की एक कीर्तनिया हैं, जिनका सम्मान हर कोई करता है. वह सिक्खों के पवित्र ग्रन्थ – गुरु ग्रन्थ साहिब में लिखे शबद को ख़ुद गाने के अलावा दूसरी सिक्ख महिलाओं को इस कीर्तन-गायन की कला में प्रशिक्षित करने का काम भी करती हैं. इस पवित्र संगीत को शबद-कीर्तन के नाम से जाना जाता है और इसे गुरुद्वारे में या उसके आसपास के इलाक़ों में गाया जाता है. अपने इस हुनर के बाद भी कौर बताती हैं कि दूसरी बहुत सी सिक्ख महिलाओं की तरह उन्हें भी गुरुद्वारों और सिक्खों के अन्य धार्मिक स्थानों पर गाए-बजाए जाने वाले संगीत में अपने कौशल की पहचान बनाने के लिए बहुत जूझना पड़ा.
दिल्ली सिक्ख गुरुद्वारा प्रबंधन समिति द्वारा 2022 में प्रकाशित निर्देशिका में समिति द्वारा संचालित गुरुद्वारों में पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब में उल्लिखित शबद गाने वालों और संगतकार के रूप में वाद्ययंत्र बजाने वालों को सूचीबद्ध किया गया है. नरिंदर के अनुभवों को सार्थक करता हुआ, 62 रागियों और ढाडियों की इस सूची में एक भी महिला का नाम नहीं है. उनकी तुलना में कवियों की स्थिति थोड़ी बेहतर है. कुल 20 कवियों में से 8 स्थान महिलाओं को दिया गया है. बीबी राजिंदर कौर कहती हैं, “अगले महीने मुझे दिल्ली के गुरुद्वारों में कीर्तन संबंधी किसी भी प्रस्तुति में सहभागिता का अवसर दिए जाने के एक साल पूरे हो जाएंगे.” उन्हें समिति द्वारा साल 2022 के आरंभ में एक कवि के रूप में नियुक्त किया गया है.
सिक्ख धर्म के आधिकारिक आचार और परंपरा संचिता (कोड ऑफ कंडक्ट एंड कन्वेंशन्स) अर्थात सिक्ख रहत मर्यादा यह साफ़-साफ़ कहती है कि बप्तिस्मा प्राप्ति के बाद कोई भी सिख किसी भी गुरुद्वारे में शबद कीर्तन कर सकता है और लिंगभेद इस काम में कोई बाधा नहीं है. यहां तक कि ऐतिहासिक गुरुद्वारों के प्रबंधन के लिए अधिकृत मानी जाने वाली सिक्खों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था – शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमिटी (एस.जी.पी.सी.) ने भी महिलाओं को सम्मिलित किए जाने पर उठे प्रश्नों को निरस्त कर दिया है. पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और चंडीगढ़ के सभी गुरुद्वारों का पूरा प्रबंधन इसी कमिटी के निर्देशानुसार ही संचालित होता है.
इतने शक्तिशाली समर्थन के बावजूद, बड़ी तादाद में सिक्ख इस बात से असहमत हैं कि गुरुद्वारों के धार्मिक क्रियाकलापों में महिलाओं को भी सहभागिता की अनुमति मिलनी चाहिए. इसलिए, आज भी महिला कीर्तनियों की उपेक्षा बदस्तूर जारी है. इस लिंग-विभेद के ख़िलाफ़ सवाल खड़ी करतीं कीर्तनकार जसविंदर कौर पूछती हैं, “अपने पंथ के प्रति समर्पित एक अनुयायी और संगीतकला में प्रशिक्षित औरत स्वर्ण मंदिर के मुख्य कक्ष में कीर्तन क्यों नहीं कर सकती है, जबकि उस परिसर में बने दूसरे गुरुद्वारों में वे कीर्तन कर सकती हैं?” जसविंदर (69 वर्ष) नई दिल्ली के माता सुन्दरी कॉलेज में गुरमत संगीत की प्राध्यापिका भी हैं. वह छात्रों को गुरमत संगीत का प्रशिक्षण देती हैं, जो सिक्ख धर्म जितनी पुरानी एक संगीत परंपरा है.
महिलाएं स्वर्ण मंदिर के सबसे आंतरिक कक्ष अथवा गर्भगृह में नहीं गाती हैं. यह सिक्खों के लिए आराधना का सबसे पवित्र स्थल है. राजनीतिक नेताओं के पास भी इस सवाल का कोई ठोस उत्तर नहीं है, जबकि किसी ज़माने में एक महिला – बीबी जागीर कौर एस.जी.पी.सी. की अध्यक्षा रह चुकी थीं. साल 2004 – 05 में उन्होंने इस मुद्दे को उठाया भी था. उनके बारे में कहा जाता है कि तब उन्होंने महिलाओं को कीर्तन करने का आमंत्रण भी दिया था. लेकिन जैसा वह स्वयं बताती हैं कि समिति को मिलने वाला कोई भी आवेदन पर्याप्त रूप से संतोषजनक नहीं था. लिहाज़ा मामला वहीं समाप्त हो गया.
दसवें सिक्ख गुरु, गुरु गोबिंद सिंह द्वारा स्थापित पुरातनपंथी सिक्ख सेमिनरी दमदमी टकसाल द्वारा भी बीबी जागीर कौर के प्रयासों का विरोध किया गया. गुरु गोबिंद सिंह वह पहले गुरु भी थे जिन्होंने सिक्खों के लिए एक औपचारिक आचार संहिता की शुरुआत की. टकसाल की मान्यता के अनुसार महिलाओं को स्वर्ण मंदिर के अंदर गाने की अनुमति देना उस परंपरा का अपमान होगा, जो सिक्ख गुरुओं के समय से चली आ रही है, और जिस परंपरा के अनुसार केवल पुरुषों को ही कीर्तन करने की अनुमति है. अतीत में इस परंपरा में बदलाव लाने के अनेक प्रयास हुए हैं. पहला प्रयास 1940 में एस.जी.पी.सी. के उस निर्णय के द्वारा किया गया जिसके अनुसार दीक्षित सिक्ख महिलाओं को गुरुद्वारे के भीतर कीर्तन गाने का अधिकार दिया गया. इस निर्णय को अकाल तख़्त के 1996 के हुक़मनामा द्वारा पुनः दोहराया गया, लेकिन लिंग-विभाजन आज भी पूर्ववत जारी है.
नवंबर 2019 में पंजाब विधानसभा ने एक संकल्प पारित कर सिक्खों की लौकिक संस्था ‘अकाल तख़्त’ और एस.जी.पी.सी. से अनुरोध किया कि वे महिलाओं को स्वर्ण मंदिर के सबसे आंतरिक कक्ष में कीर्तन करने की अनुमति प्रदान कर दें. इस प्रस्ताव को पारित होने से पहले धर्म के मामलों में राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप के आधार पर विधानसभा-सदस्यों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा था. विवाह के पहले होशियारपुर ज़िले की सोहियन गांव की सिमरन कौर गुरुद्वारा गुरु रविदास जी में रिश्तेदारी में अपनी दूसरी बहनों के साथ कोई घंटे भर या उससे भी अधिक समय तक कीर्तन गाती थीं. सिमरन (27 साल) छोटे से स्थानीय गुरुद्वारे में प्रतिदिन संत बाबा मीहन सिंह जी के साथ जाती थीं और वहां सहज भाव से महिलाओं को गाती हुई देखती थीं. यह गांव के लिए एक सामान्य सी बात थी. चूंकि छोटे गुरुद्वारे एस.जी.पी.सी. से संबद्ध नहीं होते हैं, इसलिए सिमरन को ऐसा लगता है कि उनका प्रबंधन और कायदा-क़ानून अपेक्षाकृत कम सख्त होता है.
सिमरन कहती हैं, “गांवों में गुरुद्वारे के रखरखाव की ज़िम्मेदारियां ज़्यादातर महिलाएं ही उठाती हैं. मर्द आमतौर पर अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं. ऐसे में जो पहले-पहल गुरुद्वारे में आता है, वह रियाज़ शुरू कर देता है.” संभव है, ऐसा सभी गांवों में नहीं होता हो, लेकिन चीज़ें अब बदल रही हैं. यह बात हरमनप्रीत कौर के अनुभवों के आधार पर कही जा सकती है. तरनतारन ज़िले के पट्टी गांव की यह 19 साल की युवा कीर्तनकार बताती हैं कि उनके गांव के गुरुद्वारे – बीबी रजनी जी में महिलाएं कीर्तन नहीं गाती थीं. उनके पिताजी, जो गुरुद्वारे के सार्वजनिक अरदास में गुरु ग्रन्थ साहिब पढ़ने का दायित्व निभाते हैं, ने हरमनप्रीत का परिचय कीर्तनगायन से किया. अब गुरुद्वारे के विशेष आयोजनों में कीर्तन की प्रस्तुतियां वही देती हैं.
कोई 100 किलोमीटर दूर पठानकोट शहर में 54 साल के दिलबाग़ सिंह बताते हैं कि शहर की महिलाएं यहां के गुरु सिंह सभा गुरुद्वारे में हरेक शनिवार को कीर्तन और अरदास गाने के लिए आती हैं. शहर में महिलाओं द्वारा संचालित निजी संगीत मंडलियां भी हैं, जो त्योहारों के अवसर पर प्रस्तुतियां देती हैं. सिक्ख संप्रदाय और धर्म संबंधी विषयों पर पटियाला के पंजाबी विश्वविद्यालय से परास्नातक की दो-दो उपाधियां प्राप्त कर चुकीं सुखविंदर कौर 25 साल की हैं. वह पंजाब के संगरूर ज़िले के लसोई गांव में रहती हैं और उन्हें लगता है कि लिंग श्रेष्ठता का दोषारोपण केवल पुरुषों पर मढ़ना उचित नहीं है. उनका तर्क है कि महिलाओं के लिए गुरुद्वारों के प्रबंधन का पूर्णकालिक दायित्व संभाल पाना बहुत कठिन है. “उनकी प्राथमिकता में कीर्तन गाने की तुलना में घर-परिवार संभालना और बच्चों की देखभाल करना अधिक महत्वपूर्ण काम है.”
दूसरी तरफ़, नरिंदर कौर का मानना है कि महिलाएं दोनों काम एक साथ कर सकती हैं. साल 2012 में उन्होंने गुरबानी विरसा संभल सत्संग जत्था की शुरुआत की, ताकि गुरुद्वारे में कीर्तन गाने की इच्छुक महिलाएं अभ्यास के लिए हफ़्ते में कुछ घंटे एक जगह एकत्र हो सकें. वह आगे कहती हैं, “वे अपने घर-बार और बच्चों की ज़िम्मेदारियां भी निभाती हैं. सिंह [सिक्ख पुरुष] की तुलना में उनकी सेवा दोगुनी समझी जाती है.”
सिक्ख अल्पसंख्यक कॉलेजों की डिविनिटी (धर्मशास्त्र) सोसाइटी, गुरमत संगीत सीखने में रुचि रखने वाले सिक्ख छात्रों के लिए एक प्रकार से प्रशिक्षण की बुनियाद हैं. साल 2018 में दिल्ली विश्वविद्यालय के गुरु गोबिंद सिंह कॉलेज में इकोनॉमिक्स ऑनर्स की पढ़ाई पूरी करने वाली काजल चावला (अब किरपा कौर नाम का इस्तेमाल करती हैं) कॉलेज की डिविनिटी सोसाइटी – ‘विसमाद’ की सदस्या थीं. उम्र में 24 साल की हो चुकीं काजल अब भी इस सोसाइटी के साथ जुड़ी हुई हैं और बताती हैं, “हमारे सदस्य अलग-अलग सामाजिक पृष्ठभूमियों से आते हैं और यहां कीर्तन, भक्ति-कविता लेखन और कथावाचन से संबंधित प्रतियोगिताओं के लिए प्रशिक्षित किए जाते हैं. कॉलेज के उत्सव हमें धार्मिक और सामाजिक रूप से तैयार करते हैं और हमारे भीतर आत्मविश्वास का संचार करते हैं.”
दिल्ली विश्वविद्यालय के एस.जी.टी.बी. खालसा कॉलेज की डिविनिटी सोसाइटी के लिए तबलावादन करने वाले 24 साल के बक्शंद सिंह कहते हैं, “जो ज़्यादा रियाज़ करेगा वो राज करेगा.” यहां से निकले छात्र गुरुद्वारों और दिल्ली के विभिन्न आयोजनों में प्रस्तुतियां देने के अतिरिक्त दूसरे राज्यों के आयोजनों में भी शामिल होने जाते हैं. हालांकि, युवा सिक्खों के इस रुझान के बाद भी कीर्तनगायन में उनकी पहचान और उनके स्थान का यह संकट पहले की तरह ही बना हुआ है. दिल्ली सिक्ख गुरुद्वारा प्रबंधन समिति (डी.एस.जी.एम.सी.) के पूर्व सदस्य 54 वर्षीय चमन सिंह कहते हैं, “अनेक महिलाएं आज इस गुरुद्वारों में कीर्तन करती हुई देखी जा सकती हैं, इसके बावजूद मैंने आज तक किसी महिला को रागी या एक ग्रंथी के रूप में नियुक्त होते नहीं देखा है.” वह कहते हैं कि महिलाएं या तो लिपिकीय और हिसाब-किताब के कामों के लिए रखी गई हैं या फिर वे लंगर के लिए भोजन पकाती हैं. एक कीर्तनकार की तनख़्वाह 9,000 से लेकर 16,000 रुपए प्रति माह होती है.
दिल्ली की परमप्रीत कौर पूछती हैं, “सारे अधिकार गुरुद्वारा प्रबंधन समितियों के हाथ में होते हैं. जब वे गुरुपर्व [त्योहार] या समागम [कोई निजी धार्मिक कार्यक्रम] का आयोजन करते हैं, तब भी वे युवा छात्रों और महिलाओं को प्रस्तुतियां देने के लिए आमंत्रित और प्रोत्साहित करने के बजाय स्थापित रागियों को ही क्यों आमंत्रित करते हैं?” परमप्रीत (32 साल) हिन्दुस्तानी संगीत में पारंगत हैं और पटियाला के पंजाबी विश्वविद्यालय से गुरमत संगीत में परास्नातक (एमए) हैं. दूसरी युवा महिलाओं की तरह वह भी अब अपनी आवाज़ बुलंद करने लगी हैं. आशा है कि आज नहीं तो कल गुरुद्वारे निश्चित रूप से अपने प्रार्थना-स्थलों को महिलाओं के स्वागत के लिए खोल देंगे, और उनकी आवाज़ गुरुद्वारों में गूंजती सुनाई देगी.
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