भारत में एक दिन में औसतन 87 रेप की घटना होती हैं. राजधानी दिल्ली में एक दिन में 5.6 रेप के मामले सामने आते हैं. NCRB के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़, पिछले सालों के मुकाबले रेप के मामलों में 13.23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. राजस्थान (6342), मध्य प्रदेश (2947), उत्तर प्रदेश (2845) के बाद
भारत में एक दिन में औसतन 87 रेप की घटना होती हैं. राजधानी दिल्ली में एक दिन में 5.6 रेप के मामले सामने आते हैं. NCRB के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़, पिछले सालों के मुकाबले रेप के मामलों में 13.23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. राजस्थान (6342), मध्य प्रदेश (2947), उत्तर प्रदेश (2845) के बाद दिल्ली (1252) में रेप की घटनाएं सबसे ज़्यादा होती हैं. रेप सर्वाइवर के लिए काम करने वाली दिल्ली की स्वयं सेवी संस्था ‘परी’ में काम कर रहीं कार्यकर्ता योगिता भयाना कहती हैं कि कोविड के कारण पिछले दो साल लॉकडाउन रहा. इस दौरान रेप के मामले सामने नहीं आए. ये कहा जा सकता है कि घर के बाहर होने वाले रेप के मामले नहीं या कम हुए, लेकिन ऐसे मामले घर की चाहरदीवारी में होते रहे.
योगिता बताती हैं, निर्भया मामला सामने आने के बाद लोगों में जागरुकता आई है. इसका नतीजा ये हुआ है कि ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग बढ़ी है, लेकिन अभी भी घर के अंदर होने वाले ऐसे अपराध के मामले सामने नहीं आ रहे हैं. हेल्पलाइन पर हमारे पास मदद के लिए मामले आते रहते हैं. इनमें से कई मामले गंभीर होते हैं. निर्भया का मामला सामने आने के बाद लोगों में जो एकजुटता, रोष और संवेदनशीलता देखी गई थी, अब वो ख़त्म हो चुकी है. विडंबना ये है कि निर्भया मामला सामने आने के बाद क़ानून भी सख़्त हुए हैं, लेकिन न्याय लेने की प्रक्रिया अभी भी लंबी है. वह सवाल उठाती हैं कि ऐसे मामलों में कितने ही दोषियों को सज़ा मिल पाती है. ऐसे मामले रोकने के लिए सरकारें क्या कर रही हैं?
साल 2012 में हुए निर्भया रेप मामले के बाद क़ानून में बदलाव किए गए. आपराधिक क़ानून (संशोधन) अधिनियम 2013 में रेप की परिभाषा को विस्तृत किया गया. रेप की धमकी देने को अपराध बताया गया और अगर ऐसा करता कोई व्यक्ति पाया जाता है तो उसके लिए सज़ा का प्रावधान किया गया है. बढ़ते रेप के मामलों को देखते हुए न्यूनतम सज़ा को सात साल से बढ़ाकर 10 साल कर दिया गया है. अगर मामले में पीड़िता की मौत हो जाती है या उनका शरीर वेजीटेटीव स्टेट यानी निष्क्रिय स्थिति में चला जाता है तो उसके लिए अधिकतम सज़ा को बढ़ाकर 20 साल कर दिया गया है. इसके अलावा मौत की सज़ा का भी प्रावधान किया गया है
अगर कोई बच्चा जो 16 साल की उम्र पूरी कर चुका हो या उससे ज़्यादा उम्र का हो और उस पर ऐसे जघन्य अपराध का आरोप लगता है तो जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड से ऐसे बच्चे का मानसिक और शारीरिक आकलन करवाया जा सकता है और उसके आधार पर भारतीय दंड संहिता में सज़ा का प्रावधान किया गया है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो या एनसीआरबी के पूर्व निदेशक शारदा प्रसाद तीन राज्यों राजस्थान, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में रेप के मामलों में बढ़ोतरी का एक बड़ा कारण समाज में सामंती विचारधारा का होना बताते हैं. वह कहते हैं, ”जब ऐसे मामले आते हैं तो इनकी चार्जशीट कम दर्ज होती है. इसके बाद अगर ये मामले दर्ज होकर कोर्ट पहुंचते हैं तो उनमें से दो तिहाई मामलों में लोग छूट जाते हैं और केवल एक तिहाई में सज़ा होती है. ऐसे में संदेश ये जाता है कि अपराध अगर किया भी गया तो सज़ा से बचा जा सकता है. ऐसे में अपराध करने वालों में ये भावना प्रबल हो जाती है कि ऐसा करने में कोई ख़तरा नहीं है.
जानकारों का कहना है कि समाज में रेप के मामलों को अभी भी शर्म और इ़ज़्ज़त से जोड़ कर देखा जाता है, लेकिन अब कुछ लोग आगे आकर इसकी रिपोर्ट दर्ज करा रहे हैं. साथ ही वे मानते है कि पुलिस को और प्रभावी और संवेदनशील होने की ज़रूरत है. राजस्थान में एडीजी क्राइम, रवि प्रकाश मेहरडा इस बात से इनकार करते हैं कि राज्य में रेप के मामले ज़्यादा होते हैं. वह कहते हैं कि साल 2019 के बाद राज्य में हर अपराध की एफ़आईआर दर्ज करना अनिवार्य किया गया है. अगर ऐसा करने से एसएचओ इनकार करता है तो उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाती है. ऐसे में मामलों में वृद्धि का ये एक कारण हो सकता है. ऐसे मामलों के साथ स्टिग्मा या कलंक जोड़ दिया जाता था और लड़कियों को ग़लती का एहसास कराया जाता था, वो अब बहुत कम हुआ है. महिलाएं और लड़कियां अब हिचकती नहीं हैं और सरकार के इस क़दम ने उन्हें ज़्यादा सशक्त किया है. वहीं शिक्षा ने भी एक भूमिका निभाई है और अब वे आगे आकर ऐसे मामले दर्ज करा रही हैं.
रवि प्रकाश मेहरडा कहते हैं कि राजस्थान में ऐसे मामलों का आंकड़ा इसलिए भी बढ़ रहा क्योंकि 498ए के मामले में धारा 376 और 377 जोड़ दी जाती है ताकि मामलों को गैर ज़मानती बनाया जा सके क्योंकि ये मामले भी रेप की परिधि में आ जाते हैं. किसी महिला को उसके पति या पति के रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता की स्थिति से बचाने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए में सज़ा का प्रावधान किया गया है. मध्य प्रदेश में अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति में कार्यकर्ता संध्या शैली का कहना है कि राज्य में पिछले कुछ सालों से ये देखा जा रहा है कि यहां पितृसत्तात्मक सोच बढ़ी है. वहीं कोर्ट में भी कुछ एक मामलों में न्यायाधीश ने लड़की को अभियुक्त को राखी बांधने को कहा है. ऐसे में राज्य में लड़कियों के लिए एक असुरक्षित माहौल बनता है. उनका कहना है कि ये देखा जा रहा है कि राज्य के दो क्षेत्रों मालवा और महाकौशल में ड्रग्स का इस्तेमाल बढ़ा है और देखा जा रहा है कि रेप के मामले भी सामने आ रहे हैं. रेप के मामलों के केस कम दर्ज हो रहे हैं, अगर पूरी रिपोर्टिंग होगी तो आंकड़े बढ़े हुए आएंगे.
वह कहती हैं कि पुलिस को और मुस्तैद होने की ज़रूरत है. वहीं एनसीआरबी के आंकड़ों को देखें तो कुछ राज्य और केंद्रशासित प्रदेश ऐसे भी हैं जहां रेप के मामले 10 से भी कम हैं. इसका विश्लेषण करते हुए शारदा प्रसाद कहते हैं, नागालैंड, पुदुच्चेरी और लक्षद्वीप ऐसे प्रदेश हैं, जहां का समाजिक ताना-बाना कुछ ऐसा है कि वहां का समाज महिलाओं के प्रति अपराध को स्वीकार नहीं करता. ऐसे में अगर कोई व्यक्ति इस तरह का अपराध करता है तो समाज उसे सज़ा भी देता है. इन इलाकों में समाज एक बड़ी भूमिका अदा करता है और उसका अपना महत्व है.
अमूमन भारत में बलात्कार के मामले इतने भयावह होते हैं कि देश में सुर्खियां बनने के साथ साथ दुनियाभर के मीडिया में उनकी चर्चा होती है. दिल्ली में 2012 में निर्भया के सामूहिक बलात्कार के बाद क़ानून को सख़्त बनाया गया और इसके बाद पुलिस के पास दर्ज होने वाले मामलों की संख्या भी बढ़ी है. इसकी एक वजह महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली यौन हिंसा पर बढ़ती बहस बताई जाती है, तो कई जानकार क़ानूनी सुधार की ओर भी इशारा करते हैं. सरकार मौत की सज़ा जैसे कड़े प्रावधान भी लाई है.लेकिन कुछ विश्लेषकों के मुताबिक ऐसे प्रावधान खोखले और आम लोगों का गुस्सा ठंडा करने के लिए लाए जाते हैं और इनमें समस्या की गहराई और उसको जड़ से निपटाने पर ध्यान नहीं दिया गया है.
जब कानून कड़े किए गए तो मक़सद था कि महिलाओं और लड़कियों को पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने में आसानी हो. बलात्कार के मामलों में मौत की सज़ा को भी शामिल किया गया और मामलों की सुनवाई के लिए विशेष फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किए गए. नए प्रावधानों में एक के मुताबिक किसी भी नाबालिग़ लड़की के साथ बलात्कार के मामले की सुनवाई हर हाल में एक साल के अंदर पूरी होनी चाहिए. इसके बाद भी बलात्कार के लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. गुस्सा अब भी कायम है, लेकिन साथ ही उस कड़वी सच्चाई का एहसास भी है कि न्याय हासिल करने की लंबी लड़ाई अकेले ही लड़नी पड़ती है. भारतीय न्यायिक व्यवस्था के पास संसाधन और कर्मचारी, दोनों ही कम हैं. फास्ट ट्रैक कोर्ट तेज़ी से सुनवाई करने की कोशिश करती है लेकिन कभी फॉरेंसिक तो कभी कोई अन्य रिपोर्ट में देरी हो जाती है, डॉक्टर और जांच अधिकारियों का तबादला हो जाता है और गवाहों के अदालत में पलट जाने से भी देरी होती है.
पिछले साल से भारत में नाबालिग़ों के साथ बलात्कार की घटनाओं में एक बड़ा उछाल देखा गया है. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में जहां 18 साल से ज़्यादा आयु की महिलाओं के साथ बलात्कार के कुल 28,644 मामले दर्ज हुए, वहीं नाबालिग़ों के साथ बलात्कार की कुल 36,069 घटनाएं हुईं. इन 36,069 घटनाओं का एक बड़ा हिस्सा प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसिस एक्ट (पॉक्सो) के तहत दर्ज हुआ जबकि बाकि मामले इंडियन पीनल कोड या भारतीय दंड संहिता की धारा के तहत दर्ज किए गए. पिछले पांच साल के आँकड़े बताते हैं कि 18 साल से ज़्यादा उम्र की महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों की तुलना में नाबालिग़ों के साथ बलात्कार की घटनाएं लगातार बढ़ती दिखी हैं.
वकील अनंत अस्थाना बच्चों के अधिकारों से जुड़े मामलों पर काम करते हैं. उनका कहना है कि इन मामलों की रिपोर्टिंग में जो उछाल देखने को मिल रहा है उसकी वजह ना केवल पॉक्सो कानून (का लागू होना) है, बल्कि इसका बेहतर क्रियान्वयन भी है. प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसिस एक्ट (पॉक्सो) साल 2012 में लागू किया गया था जिसका मक़सद बच्चों को यौन उत्पीड़न और अश्लीलता से जुड़े अपराधों से बचाना है. इस कानून के तहत 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति को बच्चा माना गया है और बच्चों के खिलाफ अपराधों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है. ये कानून बच्चों के खिलाफ अपराधों को ‘जेंडर न्यूट्रल’ भी बनाता है जिसका मतलब है कि ये कानून लड़कियों और लड़कों दोनों के खिलाफ हुए अपराधों का संज्ञान लेता है.
पॉक्सो एक्ट के लागू होने से पहले नाबालिग़ों के साथ होने वाले बलात्कार आईपीसी की धारा 376 के तहत ही दर्ज किये जाते थे. पिछले पांच सालों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स ने जूडिशल और प्रशासनिक स्तर पर जितने प्रयास वो कर सकते हैं वो किए हैं ताकि ये कानून लागू हों. उसका असर ये है कि पहले जिन बहुत सारे मामलों में कोई सोचता भी नहीं था कि ये रिपोर्ट किए जा सकते हैं, वो अब रिपोर्ट होते हैं. उसकी वजह ये है कि सिस्टम पहले की अपेक्षा बेहतर तरीके से काम कर रहा है और समाज में जागरूकता बढ़ी है. कुछ साल पहले तक पॉक्सो जैसे कानून के बारे में लोग जानते ही नहीं थे. पॉक्सो कानून को लेकर बहुत सारे एनजीओ जागरूकता अभियान चलाते रहते हैं. इन कानूनों के बारे में जागरूकता फैली है और भरोसा पैदा हुआ है कि पुलिस के पास जाएंगे तो न्याय मिलेगा.
हक़ सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स नाम की संस्था की सह-संस्थापक भारती अली कहती हैं कि यह नहीं कहा जा सकता है कि आँकड़े सिर्फ इसलिए बढ़ गए हैं क्यूंकि मामलों को ज़्यादा रिपोर्ट किया गया न कि इसलिए कि घटनाएं बढ़ी हैं. ये शायद दोनों ही बातों का मिश्रण है. इस मसले के कई पहलू हैं जिनमें से एक महत्वपूर्ण पहलू बच्चों के पास उपलब्ध वो ऑनलाइन पहुँच है जिसका दुरूपयोग होने का डर बना रहता है. बच्चों की सोशल मीडिया तक पहुंच और जिस तरह से वे दोस्त बनाते हैं, उससे जुड़े कई तरह के मुद्दे हैं. तथ्य यह है कि हमारे बच्चे बहुत सारी संदिग्ध सामग्री और रिश्तों के संपर्क में आते हैं जो ऑनलाइन शुरू होते हैं और अपमानजनक स्थितियों में बदल जाते हैं. उनका ये भी मानना है कि इस तरह के मामलों के बढ़ने के पीछे बच्चों की पॉर्नोग्राफी तक आसान पहुंच भी एक कारण हैं. कोविड-19 महामारी के दौरान भी ऐसी घटनाओं का बढ़ना एक चिंता की बात है. कोई ये सोचेगा कि महामारी के दौरान लॉकडाउन के समय ज़्यादातर लोग अपने घरों में थे इसलिए घटनाएं कम हुई होंगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं. जब बच्चे घर पर थे तब भी यौन शोषण की घटनाएं जारी रहीं. और इस बात की भी पर्याप्त जानकारी है जो हमें बताती है कि बहुत सारे दुर्व्यवहार ऐसे लोग करते हैं जो बच्चों के करीबी जानकार होते हैं और अक्सर उनके अपने परिवारों से ही होते हैं.
चूंकि पॉक्सो कानून 18 साल से कम उम्र के लोगों को बच्चा मानता है इसलिए इस कानून में सहमति की उम्र 16 साल से बढाकर 18 साल कर दी गई थी. सहमति की उम्र को 16 साल से बढाकर 18 साल कर देना भी पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज हो रहे बलात्कार के मामलों की संख्या बढ़ने की एक वजह हो सकती है. सहमति की उम्र बढ़ाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भारत में बाल विवाह के मामले भी पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज किए जाने हैं. आज के समय में युवा सहमति से सेक्स कर रहे हैं और बहुत से मामलों में युवाओं के बीच प्रेम संबंधों को माता-पिता अपराध के तौर पर रिपोर्ट कर देते हैं. तो इससे भी आँकड़े बढ़ते हैं. पॉक्सो अदालतों में करीब 25-30 फीसदी मामले रोमांटिक रिश्तों के ही होते हैं और अब इनमें बाल विवाह के मामले भी जुड़ने लगे हैं.
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