युद्ध, संकट और त्रासदियों के बीच पत्रकारिता के भविष्य पर नोबेल पुरस्कार विजेता मारिया रेसा कहती हैं, आज के दौर में तथ्यों के मुकाबले गुस्से और नफरत से लैस झूठ ज्यादा तेजी से फैलता है. बढ़ते फासीवाद से लड़ने के लिए फिर से भरोसा कायम करना जरूरी है. अगर आपके पास तथ्य नहीं हैं, तो
युद्ध, संकट और त्रासदियों के बीच पत्रकारिता के भविष्य पर नोबेल पुरस्कार विजेता मारिया रेसा कहती हैं, आज के दौर में तथ्यों के मुकाबले गुस्से और नफरत से लैस झूठ ज्यादा तेजी से फैलता है. बढ़ते फासीवाद से लड़ने के लिए फिर से भरोसा कायम करना जरूरी है. अगर आपके पास तथ्य नहीं हैं, तो आपके पास सच नहीं है. अगर आपके पास सच नहीं है, तो आपके पास भरोसा नहीं है. सोशल मीडिया के उदय ने खतरनाक प्रोपेगेंडा को पनपने दिया है और पेशेवर पत्रकारों पर हमले का खतरा लगातार बना रहता है.
एक ग्लोबल मीडिया फोरम में दुनियाभर के तमाम जाने माने पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों के सम्मेलन को सम्बोधित करती हुई वह बताती हैं कि कैसे बड़ी टेक कंपनियां फेक न्यूज की समस्या को बढ़ाने और गलत जानकारियां फैलाने में योगदान दे रही हैं. गुस्से और नफरत से लैस झूठ तथ्यों से कहीं ज्यादा तेजी से फैलाया जा रहा है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाए रखने के लिए प्रयासरत रेसा पूछती हैं कि अगर आपके तथ्य ईमानदार नहीं होंगे, तो फिर चुनाव कैसे ईमानदार होंगे. यह स्थिति लोकतंत्र के लिए खतरे पैदा कर रही है. टेक कंपनियों को नियंत्रित करने के लिए कानून की मांग करती हुई वह कहती हैं, अगर वर्चुअल दुनिया में कानून का राज नहीं होगा, तो सामान्य दुनिया में ऐसा नहीं होगा.
रेसा कहती हैं, तानाशाह अपने मानवाधिकार हनन और भ्रष्टाचार के लिए जाने जाते हैं. जिस तरह से सोशल मीडिया पर तथ्यों को गलत तरीके से पेश किया जाता है और डिक्टेटर को नायकों के रूप में चित्रित किया जाता है, उससे जनता की राय में बहुत फर्क पड़ता है. ऐसे शासक अगर जीतते हैं तो यह सोशल मीडिया के प्रचार के कारण ही संभव हो पाता है. ऐसी स्थिति में फर्जी खबरों को बेनकाब करने की जिम्मेदारी पत्रकारों की होती है. इसलिए अब पत्रकारिता का महत्व पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गया है. यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद यह प्रोपेगेंडा तेज हो गया है कि रूस परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है क्योंकि दुनिया तीसरे विश्व युद्ध की ओर बढ़ रही है. ऐसी अनिश्चितताओं में प्रामाणिक समाचारों तक पहुंच महत्वपूर्ण है. लगता है कि ये ऐसे क्षण हैं, जब पत्रकारों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है और वे जो कुछ भी करते हैं, वह महत्वपूर्ण हो जाता है. रेसा ने ये सब बातें ऐसे समय में कही हैं, जब पूरी दुनिया में शासक वर्गों द्वारा मानवाधिकारों के हनन और अत्याचारों को लेकर पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता अपने-अपने देश के ऐसे घटनाक्रमों से लगातार चिंतित हैं.
गौरतलब है कि रेसा ने 2012 में ‘रैप्लर’ के नाम के मीडिया संस्थान की स्थापना की, जो फेक न्यूज और गलत जानकारियों के प्रसार के खिलाफ अग्रणी भूमिका निभा रहा है. ‘रैप्लर’ की आलोचनात्मक रिपोर्टिंग के जवाब में सरकार ने इसके खिलाफ टैक्स चोरी और साइबर अपराधों के आरोप लगाकर बेवसाइट को बंद कराने की कोशिश की. रेसा और उनके साथ काम करने वाले पत्रकारों को खासतौर से निशाना बनाया गया. उन्हें ऑनलाइन धमकियां मिलीं. उनका चरित्र हनन करने की कोशिशें की गईं. रेसा को 2020 में साइबर क्राइम विरोधी कानून के तहत दोषी करार दिया गया. आलोचक इसे उनकी आवाज दबाने का तरीका मानते हैं. इस बारे में बात करते हुए रेसा ग्लोबल मीडिया फोरम से कहती हैं कि वह पीछे नहीं हटेंगी और लड़ती रहेंगी. वह कहती हैं, ‘मैं लड़ूंगी, क्योंकि मुझे कानून के राज में विश्वास करना है.’
58 वर्षीय मारिया रेसा कहती हैं, जहां सोशल मीडिया ने प्रगति की है, वहीं ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ने भी प्रोपेगेंडा को बढ़ावा दिया है. फर्जी खबरों और नकारात्मक प्रचार के कारण कई लोग और संस्थान प्रभावित हो रहे हैं. साथ ही पत्रकारों के लिए स्थिति नाटकीय रूप से निराशाजनक है. वैश्विक स्तर पर मीडियाकर्मियों के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं. इस स्थिति का एक कारण यह भी रहा है कि सूचना प्रसारित करने के साधन नाटकीय रूप से बदल गए हैं. सोशल मीडिया ने झूठी खबरें फैलाना आसान बना दिया है. प्रोपेगेंडा फैलाना आसान कर दिया है, इसके जरिए तथ्यों से इनकार किया जा सकता है और ऐतिहासिक संदर्भों को बिगाड़ा जा सकता है.
ईस्ट-वेस्ट सेंटर में जीरो ट्रस्ट वर्ल्ड में मीडिया के सामने दरपेश चुनौतियों पर रेसा कहती हैं कि वे और उनके साथी फिलिपींस सरकार द्वारा अपनी वेबसाइट ‘रैप्लर’ बंद करने के अंजाम के लिए तो पहले से ही तैयार थे. वे आगे भी अपना काम जारी रखेंगी. वह कहती हैं, अगर आप ऐसे देश में रहते हैं, जहां कानून के शासन को इस सीमा तक मोड़ दिया गया है, कि यह टूट गया है, कुछ भी मुमकिन है. इसलिए आपको तैयार रहना चाहिए. सच की आजादी अब कई देशों में सत्ताधारियों द्वारा बढ़ावा दिए जा रहे दुष्प्रचार के चलते खतरे में है. उन्होंने मर्ज की पहचान कर ली है- सोशल मीडिया का एल्गोरिदम ‘क्रोध और घृणा से लपेटे हुए झूठ को तथ्य की तुलना में ज्यादा तेजी और दूर तक प्रसारित होने’ में मदद करता है. यह बात आसानी से भारत पर भी लागू हो सकती है. साथ ही साथ इसके काम करने का वह तरीका भी, जो सर्वाधिकारवादी नेताओं की खासियत है- नीचे से ऊपर तक लगातार बढ़ते हमले और उसके बाद ऊपर से नीचे तक वार.
मारिया सवाल करती हैं कि एक फासीवादी दुनिया में दाखिल होने में अभी कितना समय बचा है, पत्रकारों को इस विकट स्थिति में भी कर्तव्य पथ पर डटे रहना होगा. सीधा सा सवाल है कि ‘आप क्या करेंगे, अगर सरकार आपको बंद करने का आदेश देती है.’ यह एक वास्तविक संभावना है, खासकर यह देखते हुए कि यूट्यूब खुशी-खुशी सरकार के खिलाफ प्रसारित सामग्री को हटाने के आदेश को लागू कर रहा है.
पत्रकारों को सबसे बुरी स्थितियों के लिए तैयार रहना होगा, अपनी सबसे बुरी स्थितियों का पूर्वाभ्यास करना होगा, इसे अपनी याददाशत में जज्ब करना होगा. आज के पत्रकारों में स्पष्टता, फुर्ती, संयम का होना जरूरी है. उन्हे खुद में बदलाव लाते हुए बचे रहना होगा. हिंदुस्तान की सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और फैक्ट चेकर मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी ‘दुखद’ है. हर किसी को इसके बारे में बात करनी चाहिए, हर किसी को इसके बारे में लिखना चाहिए. इसे ज्यादा सुर्खियों में जगह मिलनी चाहिए.
रेसा कहती हैं कि लोगों के सामने सूचनाओं की बाढ़ की स्थिति है. सोशल मीडिया ने एक सीमा तक यह काम करने का काम किया है. अतीत में सूचनाएं कहां से मिलती थीं? समाचार संस्थानों से, जिन्हें वास्तव में संपादकीय प्रक्रियाओं और वितरण के लिए पैसे खर्च करने पड़ते थे. आज यह वास्तव में झूठ के जंगल की तरह है… तो जब आपके सामने यह स्थिति है… साधारण लोग, जिनकी नौकरी चली गई हो, जो और कुछ नहीं बस एक आसान दुनिया चाहते हैं, जहां कोई और उनके बदले में उनके फैसले ले सके… हम यह होता हुआ देख रहे हैं. मेरा मतलब है. भारत पहला देश था, इंडोनेशिया दूसरा… 2014 के आसपास, एक मजबूत नेता के लिए एक प्रकार की तड़प थी. मीडिया संस्थानों को अपने पाठकों और दर्शकों के समुदाय के साथ मजबूत संबंध रखना चाहिए. हमें समुदायों को यह कहने की जरूरत है कि अगर आप अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ते हैं, तो आप इसे गंवा देंगे. अगर लोग संघर्ष करते हैं, तो यह पत्रकारों के काम को आसान बना देता है.
मारिया कहती हैं कि कोरोना काल का भी वास्तव में सूचना की ही भांति शस्त्रीकरण किया गया. यह भी एक कारण है कि आप लोगों को मास्क पहने हुए देखते हैं या चिंता का स्तर देखते हैं. कोविड ने वास्तव में पहले से मौजूद समस्या को और बढ़ाने का काम किया. हम लोग जबरदस्त सूचना अभियानों (इंफॉर्मेशन ऑपरेशंस) का सामना कर रहे हैं और यह इसकी बस शुरुआत है. मुझे लगता है कि लोग यह सोचते हैं कि उन पर बिना किसी योजना के अनायास हमला हो जाता है. लेकिन ऐसा नहीं है. यह निशाना लगाकर किया जाने वाला हमला है. और इसका मकसद विध्वंस करना होता है.
मारिया बताती हैं, मेरे ख्याल से आपको यूनेस्को के बिग डेटा केस स्टडी का पता होगा. यह काफी सूचनाप्रद था. (सूचनाओं के) 60 फीसदी का मकसद प्रतिष्ठा की धज्जियां उड़ाना, 40 प्रतिशत का मकसद आपके जज्बे को ख़त्म करना होता है. ऐसे में कह सकते हैं कि कोविड ने एक और परत जोड़ने का काम किया और यह मैं कहूंगी कि यह एक कारण है, जैसे कि यह सौ सालों में आने वाला क्षण है लेकिन राजनीतिक दुष्प्रचार के उसी नेटवर्क का इस्तेमाल कोविड दुष्प्रचार के लिए किया गया! मुझे लगता है कि लोग सूचनाओं की बाढ़ में डूब रहे हैं. सोशल मीडिया आज झूठ उगलने वाली नली की तरह है.
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