फ़ैसल मोहम्मद अली : कालाहांडी देश के सबसे पिछड़े ज़िलों में शामिल है. ओडिशा के कालाहांडी की आबादी क़रीब 16 लाख है. करीब एक चौथाई आबादी आदिवासी समुदाय की है. ओडिशा सरकार का राज्य में करीब 60 ग़रीब कल्याण योजना चलाने का दावा है. राज्य में बीजू जनता स्वास्थ्य योजना लागू, आयुष्मान भारत योजना लागू
फ़ैसल मोहम्मद अली : कालाहांडी देश के सबसे पिछड़े ज़िलों में शामिल है. ओडिशा के कालाहांडी की आबादी क़रीब 16 लाख है. करीब एक चौथाई आबादी आदिवासी समुदाय की है. ओडिशा सरकार का राज्य में करीब 60 ग़रीब कल्याण योजना चलाने का दावा है. राज्य में बीजू जनता स्वास्थ्य योजना लागू, आयुष्मान भारत योजना लागू नहीं है. सरकार अपने राजस्व का 23 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश सरकार 30 प्रतिशत, पंजाब सरकार 45 प्रतिशत. मध्य प्रदेश सरकार 28 प्रतिशत सब्सिडी पर खर्च करती है. गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेवड़ी कल्चर पर पिछले दिनों निशाना साधा था. उनका मानना है कि मुफ़्त में चीज़ें बांटने से राज्यों का खज़ाना ख़ाली हो जाता है. तभी से से ‘रेवड़ी संस्कृति’ पर चर्चा छिड़ी हुई है. राज्य सरकारों का कहना है कि जन कल्याण की योजना को ‘रेवड़ी बाँटना’ बताना सही नहीं है.
राजनीतिक दलों की तरफ़ से मुफ़्त में चीज़ें देने की संस्कृति को लेकर देश के सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका पर सुनवाई भी जारी है. ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि देश के सबसे पिछड़े ज़िलों में गिने जाने वाले कालाहांडी का अब क्या हाल है, जहाँ राज्य सरकार ने लंबे समय तक बड़े पैमाने पर लोगों को मुफ़्त सहायता दी है. कालाहांडी आज उस डरावने और शर्मनाक सच को नहीं भूला है, जब घमेला मुट्ठी भर चावल के लिए एड़ियां रगड़-रगड़ कर मर गई, छह साल की बच्ची को जब माँ-बाप ने चंद सौ रुपयों के लिए महाजन को बेच दिया, या फिर चौदह साल की बनिता, जिसे उसकी भाभी ने केवल 40 रूपये और एक साड़ी के बदले बेच दिया था. माँ घमेला की भूख से हुई मौत के समय केवल पाँच या छह साल का रहे गुंधर नायक अब ख़ुद एक बच्चे के बाप हैं.
वे उस दिन को याद करते हुए बताते हैं कि तब वह बहुत छोटे थे, माँ मर गई लेकिन मुझे पता नहीं चला. मैं कमरे में माँ-माँ पुकारता रहा. बारिश हो रही थी. जब गाँव वाले शाम चार-पाँच बजे वापस आए तो पता चला कि माँ मर चुकी है. पंद्रह दिन से उसने कुछ खाया नहीं था. किसी तरह चाय पी लेती थी. गुंधर जैसी कहानी पश्चिमी ओडिशा के लगभग हर गाँव में एक नहीं, कई मिल जाएँगी, पर ये बातें अब दो दशक से भी पुरानी हैं. वरिष्ठ पत्रकार रबि दास कहते हैं कि कालाहांडी से अब भुखमरी से मरने की ख़बरें नहीं आतीं. सुपारी पुटेल को हर माह एक रुपये प्रति किलो की दर से 25 किलो चावल मिलता है और विधवा पेंशन के पांच सौ रुपये भी. पहले बेटे की बीमारी और फिर शौहर की मौत की वजह से घर का जो काम रुक गया था, वो पूरा होने को है. ये घर सुपारी पुटेल को ‘बीजू पक्का घर योजना’ के तहत हासिल हुआ है.
हालाँकि, वो अब भी अपनी उसी पुरानी झोपड़ी में रह रही हैं जिसके भीतर जाने के लिए काफ़ी झुकने की ज़रूरत पड़ती है. टिन के डिब्बों को काटकर उसकी चादर से जो दरवाज़ा तैयार किया गया है, उसके भीतर घुसते और दो क़दम चलते ही कमरा ख़त्म हो जाता है. टाट की उसी चारदीवारी के भीतर मौजूद है सुपारी पुटेल के जीवन भर की कुल जमा-पूंजी-एक चारपाई, जिसकी पट्टियाँ ईटों को जोड़कर तैयार की गई है. रस्सी पर फैली दो साड़ियाँ, ब्लाउज़, कोने में रखीं दो बोरियाँ और बिस्तर के क़रीब पड़ा रसोई गैस सिलेंडर. सुपारी कहती हैं कि बेटे की बीमारी सालों चली, जिसमें वो पैसे भी लग गए, जो सरकार से घर बनाने के लिए मिले थे, फिर भी बेटा बच नहीं पाया. हम पति-पत्नी ने सोचा कि मुंबई जाकर काम करेंगे और पैसे बचाकर घर बना लेंगे क्योंकि ब्लॉक में बाबू ने कहा था कि अगर तुमने घर पूरा नहीं किया तो दिक्क़त होगी लेकिन भाग्य को कौन बदल सकता है. मुंबई पहुँचने के दस दिन में मर्द बीमार पड़ गया और फिर चल बसा.
इस क्षेत्र के बहुत सारे लोग मकान, पुल और सड़क निर्माण में काम करने के लिए मुंबई जाते हैं. गांव हयाल वापस आने के बाद सरकार की ओर से सुपारी को बीस हज़ार रुपये मिल गए, जिसका प्रावधान राज्य सरकार ने कर रखा है. यह पेंशन उस महिला को मिलती है, जिसके परिवार के मुखिया की मौत हो जाती है. कमरे में पड़े गैस सिलेंडर के बारे में पूछने पर सुपारी पुटेल कहती हैं कि मिला तो है लेकिन हज़ार, बारह सौ रुपये, इतना पैसा कहां से लाएंगे? उन्हें ये मालूम नहीं कि गैस सिलेंडर उन्हें किस योजना के तहत मिला है लेकिन ये जानती हैं कि नरेंद्र मोदी ने दिया है.
सुपारी पुटेल से बातचीत के दौरान ही पास-पड़ोस के घरों के लोग आ पहुंचते हैं. इनमें 84 साल के हरी पुटेल और उनकी पत्नी सुशीला पुटेल भी हैं, जो कहते हैं कि पिछले साल से जब उन्हें पांच सौ रुपये (दोनों को मिलाकर एक हज़ार रुपये) वृद्धा पेंशन के मिलनी शुरू हुई हैं, उन्हें मज़दूरी करने नहीं जाना पड़ रहा. खाने को प्रति व्यक्ति पाँच किलो चावल भी मिल जाता है. उनके दो बेटे हैं लेकिन ‘पूछते नहीं हैं,’ और अगर पैसा और चावल नहीं मिलता तो ‘भीख मांगकर खाना पड़ता है.’ बालमति हंसते हुए कहती हैं कि पैसों से तेल, साबुन और दूसरी चीज़ें ख़रीद लेती हूँ. सुशीला पुटेल को सरकारी योजनाओं की ख़ासी जानकारी है. कहती हैं कि सरकार तो अब बहुत कुछ दे रही है, बच्चों को पढ़ा रही है, किताब, ड्रेस, मिड-डे मील मिलता है. गर्भवती महिलाओं को खाने के लिए पैसे दे रही है. बच्चों को अंडा दिया जाता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘रेवड़ी कल्चर’ और मुफ़्त की रेवड़ी बांटकर जनता को ख़रीदने का जो बयान दिया था वो बात शायद यहाँ तक नहीं पहुंची, तभी तो उनकी बातों में सम्मानजनक भाव है कि भीख नहीं माँगनी पड़ रही है. गाँव में मौजूद बुज़ुर्गों में से कई जैसे बालमति, हरी पुटेल, रुद्रा पुटेल पांच सौ रुपये कम होने और इसे बढ़ाने की माँग कर रहे हैं. गांव के मंदिर के पास खड़ी सुमित्रा पुटेल से जब कहा गया कि कुछ लोगों का कहना है, इस तरह से पैसे नहीं बांटे जाने चाहिए, तो वह ग़ुस्से से पूछती हैं, ‘कैसे नहीं मिलना चाहिए!
जुलाई में उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि रेवड़ी कल्चर वालों को लगता है कि जनता जनार्दन को मुफ़्त की रेवड़ी बांटकर ख़रीद लेंगे. हमें मिलकर उनकी इस सोच को हराना है. रेवड़ी कल्चर को देश की राजनीति से हटाना है. कभी भारतीय जनता पार्टी के साथ राज्य में साझा सरकार चला चुकी और अभी भी नरेंद्र मोदी सरकार को कई मामलों पर संसद में समर्थन देने वाली नवीन पटनायक सरकार ओडिशा में जनहित के चार दर्जन से अधिक कार्यक्रम चला रही है. ओडिशा को लेकर कहा जाता है कि वहां जन्म से लेकर मृत्यु तक के लिए कोई-न-कोई सरकारी योजना मौजूद है लेकिन रेवड़ी, फ्री-बी, मुफ़्तख़ोरी की जो बहस जारी है, उसमें ओडिशा का ज़िक्र शायद ही हुआ है. मीडिया की बहसों में भी अधिकतर फ़ोकस आम आदमी पार्टी की तरफ़ ही रहा है.
हयाल गांव से कुछ दूरी पर है खेरियार. खेरियार नुआपाड़ा ज़िले में आता है, अस्सी के दशक की वो घटनाएं जैसे बनीता के ‘बेचे’ जाने की घटना जिसने देश भर को हिलाकर रख दिया था और प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पत्नी सोनिया गांधी समेत वहाँ का दौरा किया था, अधिकतर इसी इलाक़े में हुई थीं. सुभाश्री हंस खेरियार स्थित इवैंजिलिकल मिशन अस्पताल में भर्ती हैं, जहां चंद दिनों पहले ही उनकी एक बड़ी सर्जरी हुई है. उन्हें पैर में छोटा-सा ज़ख़्म हुआ था, जो बाद में इतना तकलीफदेह हो गया कि वे चल भी नहीं पाती थीं, फिर सरकारी अस्पताल से उन्हें इधर रेफ़र किया गया, सर्जरी हुई, अब वो एक या दो दिन में घर चली जाएंगी. ऑपरेशन में आए ख़र्च के बारे में पूछने पर सुभाश्री कहती हैं कि बीजू जनता कार्ड (स्वास्थ्य कार्ड) था, कोई पैसा नहीं लगा.
खेरियार सब-डिविजन अस्पताल के ऑफ़िसर इंचार्ज डाक्टर रजित कुमार राउत कहते हैं कि अगर हमें लगता है कि बीमारी का इलाज सरकारी अस्पताल में उपलब्ध और संभव नहीं हो सकता तो हम केस को निजी अस्पताल में रेफ़र कर सकते हैं. अगर ज़रूरत पड़े तो मरीज़ को राज्य के बाहर के अस्पतालों में भी भेजा जा सकता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश भर के दौ सौ अस्पताल ऐसे हैं, जहां इस स्कीम के तहत आने वाले 96 लाख परिवारों का इलाज हो सकता है. स्कीम के तहत महिलाओं के लिए दस लाख और पुरुषों के लिए पांच लाख रुपये सालाना तक के इलाज की सुविधा मिलती है. राज्य सरकार के अनुसार वो इस पर 165 करोड़ रुपये प्रति माह ख़र्च कर रही है.
सरकारी अस्पतालों में हमें कई स्थानीय लोग बताते हैं कि 133 दवाएँ और संबंधित चीज़ें मुफ्त में उपलब्ध हैं. शुरुआत के समय प्रावधान था कि इस स्कीम के तहत पांच सौ से अधिक तरह की दवाएं मुहैया होंगी. साल 2012 में केंद्र ने भी फ्री दवा स्कीम का प्रावधान किया था लेकिन तीन सालों बाद ही बजट में इसके लिए कोई रक़म नहीं रखी गई थी. इवैंजिलिकल मिशन अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट नितीश चौधरी कहते हैं कि हालांकि हमारे यहां जो इलाज होता है वो बहुत सब्सिडाइज़्ड है लेकिन फिर भी अगर लोगों को स्वास्थ्य योजना का लाभ नहीं मिल रहा होता तो उन्हें या तो अपनी ज़मीनें, घर-बार बेचने को मजबूर होना पड़ता है या फिर वो मरीज़ को उसके हाल पर छोड़ देते हैं.
मिशन अस्पताल में हर माह 100-150 इस तरह के मरीज़ आते हैं जिनका इलाज सरकारी स्वास्थ्य योजना की वजह से संभव हो पाता है. बोलांगीर के हयाल गाँव से कांटाबांजी शहर से वापस आते समय रास्ते में ही पड़ता है खेतों के बीच बना अंजना पुटेल का बिना प्लास्टर वाला पक्का घर. कैंसर से पीड़ित अंजना पुटेल के ससुर की किमोथेरेपी अब प्राइवेट अस्पताल में आगे इसलिए संभव नहीं हो पाएगी क्योंकि उनके कार्ड पर जितना ख़र्च (पांच लाख रूपये सालाना) हो सकता था, वो समाप्त हो गया है. राज्य बीजेपी प्रवक्ता भृगु बक्सीपात्रा कहते हैं कि ओडिशा शायद देश का इकलौता राज्य है, जहां केंद्र सरकार का जन स्वास्थ्य कार्यक्रम ‘आयुष्मान भारत’ लागू नहीं किया गया है, अगर ऐसा होता तो लोगों को दोहरा फ़ायदा मिलता.
नवीन पटनायक सरकार पर जनहित कार्यक्रमों के नाम पर राजनीति का आरोप लगाते हुए भृगु बक्सीपात्रा कहते हैं कि केंद्र की स्कीमों को सिरे से लागू न करने के अलावा जो दूसरा काम सूबे में हो रहा है वो है केंद्रीय योजनाओं का नाम बदलकर उन्हें दूसरे नामों, बीजू या नवीन के नाम से लांच करना, जैसा कि पेयजल योजना को लेकर या बिजली के क्षेत्र में किया गया है. ओडिशा में जनहित कार्यक्रम और राजनीति एक प्रकार के सहयोगी बन गए हैं, जिसका ध्येय बस वोट है. बीजेडी प्रवक्ता लेनिन मोहंती का कहना है कि वो चाहें तो इसे राजनीति कह सकते हैं. ये उनकी सोच है. हमारे हिसाब से ये ज़रूरत है. उन्होंने जो स्वास्थ्य स्कीम लांच की, उसमें सिर्फ़ साठ लाख परिवारों को कवरेज मिल रहा था, जबकि हमने उससे आगे बढ़कर बीजू स्वास्थ्य कल्याण योजना के तहत 36 लाख और परिवारों को शामिल किया.
राज्य सरकार की स्वास्थ्य योजना का लाभ ग़रीबी रेखा से नीचे और ऊपर दोनों श्रेणी के लोगों को मिल सकता है. आयुष्मान भारत में पाँच लाख सालाना स्वास्थ्य पर ख़र्च के दायरे में वही लोग आते हैं जो ग़रीबी रेखा के नीचे हों. लेनिन मोहंती कहते हैं कि दूसरे जनहित कार्यक्रमों में भी हमने अधिक से अधिक लोगों को लाभ देने की कोशिश की है. जैसे भोजन के अधिकार के मामले में हम जो चावल वितरण की योजना चला रहे हैं उसमें पच्चीस लाख और लोगों को शामिल किया गया है. वह मिशन शक्ति का भी ज़िक्र करते हैं जिसके तहत महिलाओं को इस तरह के अवसर और सुविधाएं दी जा रही हैं, जिससे वो राजनीतिक और आर्थिक तौर पर मजबूत बन सकें. ऐसे लाभार्थियों की संख्या अस्सी लाख है.
ऑरगस नाम की उड़िया और अंग्रेज़ी न्यूज़ वेबसाइट के एक्ज़क्यूटिव एडिटर संजय जेना मानते हैं कि बीजेडी सरकार महिला सेल्फ़ हेल्प ग्रुप्स का इस्तेमाल बूथ (मतदान) और वोट मैनेजमेंट के लिए करती है और महिला सशक्तीकरण की बात नारा अधिक है. दो बहनें सुजाता मंजरी थपा, ममता मंजरी थपा और दूसरी कुछ महिलाएं विश्व माँ भगवती सेल्फ़ हेल्प ग्रुप (एसएचजी) की सदस्य हैं. सुजाता मंजरी कहती हैं कि जबसे पैसे कमाने लगे हैं, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता है. मर्द बहुत कुछ बोल नहीं पाते हैं. राज्य में बिजली बिल क्लेक्शन से लेकर मिड-डे मील, स्कूल में ड्रेस की सप्लाई, यहां तक कि तालाब खुदाई का काम महिला एसएचजी के माध्यम से किया जा रहा है.
कवि और लेखक केदार मिश्र कहते हैं कि महिलाएं नवीन बाबू की बहुत बड़ी समर्थक हैं. मार्च 2000 में राज्य की बागडोर संभालने वाले नवीन पटनायक ने सूबे की ग़रीब जनता के लिए दो रूपये प्रति किलो चावल कार्यक्रम की शुरुआत लगभग उसी समय की, जब उन्होंने आठ साल पुराने सहयोगी राजनीतिक दल बीजेपी से अलग चलने की राह पकड़ी. कंधमाल ईसाई-विरोधी दंगों के बाद, जब कहा जाता है कि नवीन पटनायक ने बीजेपी से अलग होने का मन बना लिया था, उन्होंने दो रूपये की दर से बीपीएल परिवारों को चावल देने की योजना लांच की और तबसे लगातार राज्य में जनहित कार्यक्रमों की बौछार जारी है.
राजनीतिक विश्लेषक रबि दास कहते हैं, ‘जैसे साथ छोड़ने का सोचा, दिमाग़ में आया कि कौन-सा काम करना है कि लोग हमारे साथ आएंगे. तभी दो रूपए चावल का स्कीम लांच कर दिया. वो काम जो ओडिशा में पहले कभी नहीं हुआ था. ओडिशा में अनुसूचित जाति-जनजाति की बड़ी आबादी है, जो तब तक कांग्रेस के साथ होती थी, उसने नवीन बाबू की तरफ़ रुख़ कर लिया.’ ग़रीब परिवारों के लिए जो चावल राज्य सरकार दो रुपये की दर से दे रही थी उसे एक रूपये प्रति किलो करने की शुरुआत मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने फ़रवरी 2013 से आदिवासी-बहुल मलकानगिरी ज़िले से की. ये लाभ बीपीएल श्रेणी के अलावा अनुसूचित जाति-जनजाति, विकलांगों को भी दी जानी थी. कई लोगों का मानना है कि चावल को जनाधार बढ़ाने के लिए इस्तेमाल में लाने का गुर नवीन पटनायक ने पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ से सीखा. छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री रमण सिंह को राशन वितरण (पीडीएस) में अपार बेहतरी लाने के लिए एक समय चावल वाले बाबा के नाम से बुलाया जाने लगा था.
साल 2008 में छत्तीसगढ़ चुनाव में चावल एक बहुत बड़ा मुद्दा रहा था और कहा जाता है, उसने रमण सिंह को दोबारा राज्य सत्ता के शीर्ष में बैठाने में अहम भूमिका निभाई. भोजन के क्षेत्र में ओडिशा में काम कर रहे कार्यकर्ता समित पांडा कहते हैं कि अलग-अलग दरों को ख़त्म कर एक दर लागू करने से पीडीएस में होनेवाले भ्रष्टाचार में भारी कमी आई है. राज किशोर मिश्र कहते हैं कि जनहित के कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण लाभार्थी को चुनने की प्रक्रिया ही है. डिजिटाइज़ेशन ख़ासी बड़ी आबादी के पास स्कीमों को पहुंचने में बाधा बन रही है. ओडिशा ही क्या देश के कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां फ़ोन कनेक्टिविटी नाम की चीज़ दूर-दूर तक नहीं, वो लोग जो बेहद ग़रीब हैं, उनको ये लेकर सोचना ही ग़लत है कि उनके पास फ़ोन होंगे, या सारे काग़ज़ात मौजूद होंगे.
राजकुमार मिश्र भोजन के अधिकार मामले पर सुप्रीम कोर्ट की समिति में ओडिशा से सलाहकार रहे हैं. वह कहते हैं कि सरकारों की ये योजना भी ग़लत है कि स्कीम में इतने लोगों को शामिल किया जाएगा. होता क्या है कि जो कमज़ोर होता है, वो पीछे छूट जाता है और राजनीतिक फ़ायदे के बदले अपने लोगों को शामिल करने की होड़ मच जाती है. ओडिशा में राज्य सरकार ने स्कीमों को विस्तार देकर वैसे समूहों को भी शामिल कर लिया है, जो सामान्यत: इसके दायरे से बाहर रह जाते हैं, जैसे ट्रांसजेंडर, ग़ैर शादी-शुदा महिलाएँ, एचआईवी पीड़ित वग़ैरह. समित पांडा कहते हैं, इसे ‘राजनीतिक हथकंडे’ के तौर पर भी देखा जा सकता है.
साल 2014 जब मोदी लहर देश भर में चल रही थी तब नवीन पटनायक के दल बीजेडी ने राज्य की 21 लोकसभा सीटों में से बीस जीती थीं. पिछले आम चुनावों में (2019) में बीजेडी फिसलकर 12 पर पहुँच गई. मगर विधानसभा में 113 सीटों पर उसका क़ब्ज़ा है जबकि कुल 147 सीटों में से बीजेपी का आंकड़ा महज़ 23 का है. हालांकि बीजेपी का मत प्रतिशत पिछली बार के मुक़ाबले लगभग 17 प्रतिशत बढ़ गया है.
रबि दास कहते हैं कि शायद राज्य के इतिहास को देखते हुए नवीन पटनायक ने दो चीज़ों पर लगातार अपना फ़ोकस बनाकर रखा है. पहला प्राकृतिक आपदा, दूसरा अकाल और भुखमरी. नवीन पटनायक सरकार में वित्त मंत्री रह चुके पंचानंद कानूनगो कहते हैं कि पिछले 22 सालों से लगातार पद पर बने रहनेवाले मुख्यमंत्री के लिए हालात भी मददगार साबित हुए हैं. साल 2001-02 में राज्य का बजट घाटे में चल रहा था, लगभग 2800 करोड़ रूपए का रेवन्यू डिफ़िसिट था तब, हम राज्य के पूर्व कर्मचारियों को पेंशन तक नहीं बांट पाते थे समय पर, फिर साल 2003-04 से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में खनिजों के दामों में तेज़ी आई और फिर शुरु हुआ उद्योग-धंधों का आना.
पंचानंद कानूनगो चंद सालों पहले बीजेडी से अलग होकर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए थे. पूर्व वित्त मंत्री कहते हैं, फंड के आने के बाद राज्य में वेलफेयर स्कीम शुरू हो गईं, जो बेहतर बात है लेकिन एक बेहद बीमार आदमी को सिर्फ मामूली दवाई के सहारे कब तक ज़िंदा रखा जा सकता है! रिज़र्व बैंक ने चंद माह पहले अपनी एक रिपोर्ट में ओडिशा को उन राज्यों में शामिल बताया है, जिनकी सब्सिडी का बोझ पिछले तीन सालों में सबसे तेज़ी से बढ़ा है. हालांकि कई दूसरे पैमानों पर राज्य की वित्तीय स्थिति दूसरों के मुक़ाबले बहुत बेहतर बताई गई है.
सोलह जून, 2022 की रिपोर्ट, ‘स्टेट फाइनेंसेस – ए रिस्क अनेलिसिस’ में आरबीआई ने कहा है कि श्रीलंका में जारी वित्तीय संकट के मद्देनज़र ये विश्लेषण उन राज्यों पर तवज्जो दिलाने की कोशिश है, जहाँ भारी क़र्ज में होने के कारण आर्थिक संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है. आरबीआई का कहना था कि कोविड के कारण सरकारों की आमदनी में पहले ही कमी आ गई थी, इस बीच टैक्स की उगाही में भी धीमापन देखा गया है लेकिन दूसरी ओर राज्यों की नॉन मेरिट फ्रीबीज़ के कारण उनका वित्तीय बोझ बढ़ गया है, जिससे नए संकट पैदा हो सकते हैं. केंद्रीय बैंक की इस रिपोर्ट पर हालांकि कई राज्यों ने सवाल भी खड़े किए थे. जहाँ केरल के पूर्व वित्त मंत्री ने रिपोर्ट को अदूरदर्शी बताया, वहीं राजस्थान का कहना था कि क़र्ज़ का बोझ सभी सूबों और यहां तक कि केंद्र पर भी बढ़ा है, साथ ही केंद्र सरकार जीएसटी में राज्यों का हिस्सा भी ठीक से नहीं दे रही है.
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के वित्तीय सलाहकार सन्यम लोधा ने पूरे हालात के लिए नोटबंदी और जीएसटी जैसे फ़ैसलों को भी ज़िम्मेदार बताया है. स्वंयसेवी संस्था ऑक्सफ़ैम से जुड़े अर्थशास्त्री प्रवास मिश्रा कहते हैं कि एक रूपये की दर से पांच किलो चावल प्रति व्यक्ति देकर के सरकार भूख छिपाने की कोशिश कर रही है. पाँच किलो चावल मिलने से भुखमरी पर क़ाबू ज़रूर हो गया है लेकिन भूख पर नहीं, क्योंकि सिर्फ़ चावल से ही शरीर को उतना पोषण नहीं मिल जाता, जिसकी ज़रूरत है. ये कहा जा सकता है कि सरकार ने एक रूपए की दर से चावल देकर भूख पर एक तरह की चादर डाल दी है, एक तरह का परदा जिससे वो दिख नहीं रहा है लेकिन भूख ख़त्म नहीं हुआ है.
नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार बहुआयामी पैमाने पर ग़रीबी के मामले में ओडिशा नौवें नंबर पर है. इस रिपोर्ट को तैयार करने में पोषण, पेय जल, स्वास्थ्य, शिक्षा, जीवन स्तर जैसे पैमानों को आंका जाता है. इस सूचकांक के लिहाज से सबसे ख़राब स्थिति बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की है. वहीं केरल, गोवा, सिक्किम और तमिलनाडु जैसे राज्य सबसे बेहतर राज्यों में शामिल हैं. खेरियार स्थित बीजेपी नेता यदुमणि पाणिग्रही कहते हैं, सब कुछ स्कीमों के सहारे छोड़ दिया गया है मगर दूसरे बुनियादी सवालों जैसे रोज़गार के अवसर की बात नहीं हो रही है. इसलिए हमारे क्षेत्र से अभी भी बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है क्योंकि लोगों के पास यहां काम नहीं है. रात दस बजे का समय, कांटाबांजी रेलवे स्टेशन पर तिरुपति जा रही ट्रेन के इंतज़ार में दर्जनों लोग बैठे हैं. बोलांगीर और पास के दूसरे ज़िलों से यहाँ पहुंचे ये ग्रामीण आंध्र प्रदेश के अलग-अलग जगहों पर ईंट भट्टों में काम करने जा रहे हैं.
सुबह चेन्नई जा रही ट्रेन के समय हमारी भेंट संतोष नायक और गौरव भुईंया से होती है, गौरव भुईंया इसलिए जा रहे हैं क्योंकि उन्हें क़र्ज़ चुकाना है, वहीं संतोष का कहना है कि वहां उन्हें बारह हज़ार रूपए महीने ट्रैक्टर चलाने के लिए मिलेंगे जबकि बोलांगीर में उसी काम के पांच हज़ार से ज़्यादा देने को कोई तैयार नहीं. संतोष नायक और उनकी पत्नी को एजेंट से तीस हज़ार रूपये प्रति व्यक्ति एडवांस भी मिले हैं, और उनके अनुसार वो कम-से-कम उतने ही पैसे और कमाकर लौटेंगे. बिष्णु शर्मा दशकों से इलाक़े से हो रहे पलायन पर पैनी नज़र रखते रहे हैं. कहते हैं कि पहले तो हफ्तों आकर स्टेशन के सामने इंतज़ार में बैठे रहते थे कि कोई आए और काम के लिए ले जाए. तब उन्हें ये भी नहीं मालूम होता था कि कहां जाना है, कितने दिनों के लिए जाना है, कितने पैसे मिलेंगे लेकिन अब स्थिति बदल गई है. मज़दूर मोल-तोल भी करने लगे हैं. एडवांस भी मिलता है.
उनके अनुसार ये डिस्ट्रेस माइग्रेशन नहीं है, हालांकि प्रवास मिश्रा इसे डिस्ट्रेस माइग्रेशन ही मानते हैं क्योंकि काम नहीं तो लोग जा रहे हैं. राजकिशोर मिश्र का मानना है कि बेहतर जीवन के लिए माइग्रेशन है. इधर कथित रेवड़ी कल्चर की बहस में चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के आ जाने के बाद लग रहा है कि बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी लेकिन इतिहासकार और इस क्षेत्र पर कई शोध कर चुके फनिंदम देव चेतावनी देते हैं कि कल्याणकारी क़दमों को बंद करना देश के हित में नहीं है.
वे कहते हैं कि बाहर से तो लगता है कि ये रेवड़ी है लेकिन अगर आप ग्राउंड पर जाकर देखेंगे तो हालात बिल्कुल अलग हैं. जैसे कालाहांडी या नुआपाड़ा हैं. बड़ी जनसंख्या ग़रीबी रेखा के नीचे हैं. बीस-तीस प्रतिशत तो ऐसे हैं, जो कल्याणकारी योजनाओं के बंद होने पर दोबारा भूख से मरने के कगार पर आ जाते हैं. मौजूदा समय में ओड़िशा में क़रीब 60 छोटी बड़ी योजनाएं, जिनसे ग़रीबों को मदद देने का दावा किया जा रहा है, लेकिन एक आदमी को एक वक्त में सभी योजनाओं को लाभ नहीं मिल सकता. फिर भी समग्र शिक्षा अभियान, कृषक सहायता योजना, ममता योजना, बीजू जनता स्वास्थ्य योजना और बीजू पक्का घर योजना का असर दिखता है.
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