सबसे भयानक सच : महंगाई की आंच पर झुलस रहा देश के करोड़ों बच्चों का ‘आने वाला कल’

सबसे भयानक सच : महंगाई की आंच पर झुलस रहा देश के करोड़ों बच्चों का ‘आने वाला कल’

देश के शायद ही किसी नेता ने कभी पढ़ाई से वंचित किसी बच्चे से उसके घर जाकर जानने की कोशिश की हो कि वह स्कूल क्यों नहीं जा रहा है? उसके साथ ऐसा वाकया गरीब होने की वजह से हो रहा है, या आधार कार्ड नहीं होने की वजह से हो रहा है अथवा स्कूल

देश के शायद ही किसी नेता ने कभी पढ़ाई से वंचित किसी बच्चे से उसके घर जाकर जानने की कोशिश की हो कि वह स्कूल क्यों नहीं जा रहा है? उसके साथ ऐसा वाकया गरीब होने की वजह से हो रहा है, या आधार कार्ड नहीं होने की वजह से हो रहा है अथवा स्कूल छूटने की और कोई वजह है? किसी नेता ने कभी किसी स्कूल से ये भी शायद ही जानने की जहमत उठाई होगी कि उसके बच्चों को कम्प्यूटर उपलब्ध है कि नहीं? यह हमारे वक़्त का सबसे दुखद सच है, ऐसे तमाम सवाल अनायास नहीं पैदा हुए हैं. भारत में स्कूली शिक्षा के लिए एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली प्लस (यूडीआईएसई-प्लस) की 2021-22 की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 14,89,115 स्कूलों में से कम से कम 55.5 फीसदी में कंप्यूटर की सुविधा नहीं है. 2021-22 के शैक्षणिक वर्ष में 66 फीसदी स्कूल इंटरनेट के बिना रहे.
ताज़ा जारी यूडीआईएसई-प्लस की रिपोर्ट सरकारी और निजी स्कूलों के स्वैच्छिक आंकड़ों पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि शैक्षणिक वर्ष 2021-22 में केवल 6,82,566 स्कूलों में कंप्यूटर हैं, जबकि उनमें से 5,04,989 में इंटरनेट की सुविधा नहीं. रिपोर्ट ने स्कूलों के बीच डिजिटल दरार पर प्रकाश डाला है. रिपोर्ट के मुताबिक केवल 2.2 फीसदी स्कूलों में डिजिटल पुस्तकालय हैं और उनमें से केवल 14.9 प्रतिशत के पास “स्मार्ट क्लासरूम” हैं, जिनका इस्तेमाल डिजिटल बोर्ड, स्मार्ट बोर्ड और स्मार्ट टीवी के साथ पढ़ाने के लिए किया जाता है. यही नहीं, 10.6 फीसदी स्कूलों में बिजली नहीं और 23.04 फीसदी स्कूलों में खेल के मैदान नहीं. जबकि 12.7 प्रतिशत के पास पुस्तकालय और पढ़ने के कमरे नहीं हैं.
देश भर में 2020-21 के दौरान 20 हजार से अधिक स्कूल बंद हो गए. जबकि शिक्षकों की संख्या में भी पिछले साल की तुलना में 1.95 फीसदी की गिरावट दर्ज की हुई है. रिपोर्ट के मुताबिक 2021-22 में स्कूलों की कुल संख्या 14.89 लाख है जबकि 2020-21 में इनकी संख्या 15.09 लाख थी. स्कूलों की संख्या में गिरावट मुख्य रूप से निजी और अन्य प्रबंधन के तहत आने वाले विद्यालयों के बंद होने के कारण है. बंद किए गए 20,021 स्कूलों में से 9,663 सरकारी, 1,815 सरकारी सहायता प्राप्त, 4,909 निजी और 3,634 “अन्य प्रबंधन” श्रेणियों के अंतर्गत हैं.
दिल्ली में वित्तीय सलाहकार के तौर पर काम करने वाले वकार खान की आय लगभग 20 फीसदी घट गई है. इस साल जब उनके बेटे के प्राइवेट स्कूल ने 10 प्रतिशत फीस बढ़ाई तो उनके पास वो स्कूल छोड़कर सरकारी स्कूल में जाने के अलावा कोई चारा नहीं था. एक छोटे से घर में रहने वाला तीन बच्चों वाला यह परिवार महंगाई के कारण निजी स्कूल छोड़ने वाले हजारों परिवारों में से एक है. 45 साल के वकार खान बताते हैं कि 2021 में उन्होंने अपने बड़े बेटे को भी प्राइवेट स्कूल से निकालकर सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दिया था. वकार खान कहते हैं, मेरे पास और कोई रास्ता ही नहीं था. पिछले दो साल से घर का खर्च 25 प्रतिशत तक बढ़ गया था. ऊपर से प्राइवेट स्कूल की फीस बढ़ गई.
भारत में महंगाई अपने चरम पर है और देश का गरीब और मध्यवर्ग इसकी आंच को सबसे ज्यादा झेल रहा है. उन्हें ऐसे-ऐसे खर्चे घटाने पड़ रहे हैं जैसा पिछले कई सालों में नहीं हुआ था. 2020 से लाखों परिवारों ने निजी स्कूल छोड़कर सरकारी स्कूलों का रुख किया है. 2021 में 40 लाख बच्चों ने निजी स्कूल छोड़े हैं, जो भारत के स्कूली छात्रों का चार प्रतिशत से ज्यादा है. भारत में नौ करोड़ से ज्यादा बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जो कुल छात्रों का 35 प्रतिशत है. 1993 में सिर्फ 9 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते थे. यह पिछले दो दशक से चले आ रहे चलन का उलटा है जबकि हर वर्ग के परिवारों में अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी थी. हर माता-पिता यह मान रहे थे कि निजी स्कूल उनके बच्चों को आधुनिक बाजार की मांग के हिसाब से रोजगार के लिए बेहतर तैयार कर सकते हैं. लेकिन कोविड और उसके बाद आई महंगाईने इस चलन को पलट दिया है.
खान बताते हैं, “मेरे परिवार की तो चूलें हिल गई हैं. कई बार तो बहुत निराश और बेबस महसूस होता है कि मैं इतनी मेहनत के बावजूद अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दे पा रहा हूं.” खान की बेटी 12वीं में है और अभी भी निजी स्कूल में जा रही है क्योंकि उसके लिए किसी सरकारी स्कूल में सीट नहीं मिल पाई. भारत के निजी स्कूलों की फीस का ढांचा बहुत ऊंचा और जटिल है. वहां कई तरह की फीस ली जाती है जो स्कूल के रुतबे के मुताबिक कुछ से कई हजार तक हो सकती है. और इस बार सिर्फ स्कूल फीस नहीं बढ़ी है बल्कि और खर्चे भी बढ़ गए हैं. जैसे कि बच्चों को स्कूल लाने ले जाने वाली वैन की फीस 15 प्रतिशत तक बढ़ गई है.
लखनऊ में रहने वाली नौ साल की राखी और उनके दो भाई-बहनों को स्कूल में होना चाहिए. लेकिन उनकी दोपहर पापा के फोन पर कार्टून देखते गुजरती है. पिछले साल ही वे हरदोई से लखनऊ रहने चले आए थे लेकिन यहां उन्हें स्थानीय स्कूल ने दाखिला देने से मना कर दिया क्योंकि उनके पास आधार नहीं है. राखी जैसे लाखों बच्चे हैं जो इसी कारण स्कूलों से वंचित हैं. अपनी झोपड़ी के बाहर टॉफी-चॉकलेट जैसी छोटी-मोटी चीजें बेचने वाला यह परिवार कई नाकाम कोशिशें कर चुका है. राखी की मां सुनीता सक्सेना बताती हैं, “जब हम हरदोई में थे तो बच्चे पास के एक प्राइवेट स्कूल में जाते थे. उन्होंने तो आधार नहीं पूछा. पिछले साल बच्चों का आधार बनवाने के लिए हमने बहुत भागदौड़ की लेकिन कुछ नहीं हुआ. हम सोच रहे हैं कि बच्चों को उनके दादा-दादी के पास वापस हरदोई भेज दें ताकि वे पढ़ सकें.”
सरकार कहती है कि किसी बच्चे को दाखिला देने से मना नहीं किया गया है. उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में वरिष्ठ अधिकारी विजय किरण आनंद कहते हैं, “किसी सरकारी स्कूल में आधार ना होने के कारण बच्चों को दाखिला देने से मना नहीं किया गया है.” भारत ने 2009 आधार व्यवस्था शुरू की थी जिसका मकसद लोगों को कल्याणकारी योजनाओं के तहत होने वाले भुगतान को नियमित करना था. तब से आधार को सभी तरह के कामों के लिए अनिवार्य बना दिया गया है. अब टैक्स भरने से लेकर सरकारी सब्सिडी पाने तक हर काम में आधार कार्ड मांगा जाता है. यह कार्ड एक पहचान पत्र जैसा है, जिसमें हर व्यक्ति को एक विशेष नंबर दिया गया है. साथ ही उंगलियों के निशान, आंखों का स्कैन और फोटो भी है. सरकारी आंकड़े कहते हैं कि 1.2 अरब से ज्यादा लोगों को आधार कार्ड दिए जा चुके हैं. तब भी करोड़ों भारतीयों के पास अब तक भी आधार कार्ड नहीं हैं. इनमें बेघर, ट्रांसजेंडर, आदिवासी या गरीब तबके के लोग ज्यादा हैंजिनके पास कोई स्थायी पता या रजिस्ट्रेशन के लिए जरूरी अन्य दस्तावेज नहीं हैं.
आधार पर रिसर्च करने वालीं आंबेडकर यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर दीपा सिन्हा इस बात की तस्दीक करती हैं. वह कहती हैं, “गरीब, कमजोर तबके के ऐसे लोग ज्यादा आधार से वंचित हैं जो इसकी मांग करने वाले स्कूलों या संस्थाओं के सामने आवाज ऊंची नहीं कर सकते.” 2014 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आधार को कल्याणकारी योजनाओं के लिए अनिवार्यता नहीं बनाया जाना चाहिए. जब सरकार ने पेंशन से लेकर सिम कार्ड तक हर चीज के लिए आधार को अनिवार्य बनाने की कोशिश की तब 2018 में भी सुप्रीम कोर्ट इस पर पाबंदी लगा दी थी. सिन्हा बताती हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का कोई खास असर नहीं हुआ. वह बताती हैं, “हालांकि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि आधार ना होने के कारण किसी को भी सुविधाओं से वंचित नहीं किया जाना चाहिए लेकिन तब भी ऐसा हो रहा है.”
इसी साल अप्रैल में एक रिपोर्ट में ऑडिटर जनरल ने कहा था कि आधार जारी करने वाली संस्था यूआईडीएआई को पांच साल से कम आयु के बच्चों के लिए आधार की अनिवार्यता पर फिर से विचार करना चाहिए. यूआईडीएआई ने इस रिपोर्ट पर टिप्पणी नहीं की है. ऐसी खबरें हैं कि गर्भवती महिलाओं और छह साल तक के गरीब बच्चों को मुफ्त भोजन उपलब्ध कराने वाली योजना के लिए भी अब आधार अनिवार्य किया जाएगा. हालांकि इन खबरों पर टिप्पणी करते हुए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने ट्वीट किया कि बच्चों के लिए आधार अनिवार्य नहीं है लेकिन माता-पिता के पास आधार होना चाहिए.
मानवाधिकार कार्यकर्ता इस फैसले से चिंतित हैं क्योंकि लगभग आठ करोड़ बच्चे इस योजना के तहत भोजन पाते हैं. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक पांच साल से कम आयु के एक चौथाई बच्चों के पास ही आधार कार्ड है. सिन्हा कहती हैं कि इस योजना के लिए आधार अनिवार्य हुआ तो करोड़ों बच्चे इसके दायरे से बाहर हो जाएंगे जिनमें वे परिवार भी होंगे जो अब तक कोविड महामारी के दुष्परिणाम झेल रहे हैं. प्यू रिसर्च सेंटर ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि 2020 में कोविड महामारी के कारण भारत में गरीबों की संख्या यानी ऐसे लोगों की संख्या जिनकी रोजाना आय दो डॉलर या डेढ़ सौ रुपये से भी कम है, साढ़े सात करोड़ बढ़ गई. सिन्हा कहती हैं, “महामारी के कारण अब बहुत ज्यादा लोग इन कल्याणकारी योजनाओं पर निर्भर हैं. अब तो समय है कि बच्चों को स्कूल या अन्य सामाजिक केंद्रों में वापस लाया जाए ना कि आधार की अनिवार्यता बनाकर उन्हें रोका जाए.” वैसे तो दुनियाभर में ही आधार जैसी व्यवस्थाएं अपनाई जा रही हैं ताकि गवर्नेंस को बेहतर बनाया जा सके लेकिन मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष अधिकारी का कहना है कि डिजिटल आईडी जैसी इन व्यवस्थाओं के कारण कमजोर तबके के लोग पीछे छूट रहे हैं. भारत में मानवाधिकार कार्यकर्ता और तकनीक विशेषज्ञों ने निजता का उल्लंघन और डेटा की सुरक्षा जैसी चिंताएं भी जाहिर की हैं. उनका कहना है कि आधार के तहत जमा किए गए डाटा का गलत इस्तेमाल हो सकता है. हालांकि यूआईडीएआई ने इसकी संभावना से इनकार करते हुए कहा है कि उसकी सुरक्षा व्यवस्था कड़ी है और डेटा व निजता की सुरक्षा के लिए डिजाइन की गई है.
47 साल के अर्जुन सिंह एक स्कूल वैन चलाते हैं. उनकी अपनी तीन स्कूल वैन हैं. उन्होंने कहा कि अप्रैल से उन्होंने फीस 35 फीसदी बढ़ाई है क्योंकि तेल बहुत महंगा हो गया है. वह कहते हैं कि सीएनजी के दाम लगभग दोगुने हो चुके हैं. मार्च में भारत की मुद्रा स्फीति की दर 6.95 प्रतिशत पर थी, जो 17 महीने में सर्वाधिक है और केंद्रीय रिजर्व बैंक के लक्ष्य से ऊपर है.
दिल्ली पेरंट्स एसोसिएशन की अध्यक्ष अपराजिता गौतम बताती हैं कि कई निजी स्कूलों ने इस साल से फीस 15 प्रतिशत तक बढ़ाई है. उनके संगठन ने कई निजी स्कूलों के बाहर विरोध प्रदर्शन भी किया था. इसके जवाब में दिल्ली की सरकार ने सरकारी स्कूलों में दाखिले की प्रक्रिया आसान कर दी और निजी स्कूलों के ऑडिट की भी बात कही. सरकार चाहती थी कि फीस की वृद्धि की सीमा 10 प्रतिशत कर दी जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. गौतम कहती हैं, “ज्यादातर स्कूल माता-पिता को मजबूर कर रहे हैं कि बढ़ी हुई फीस दो नहीं तो नतीजे के लिए तैयार रहो.”
यही स्थिति देश के अन्य शहरों में भी है. कोलकाता में पिछले महीने ही शहर के करीब 70 फीसदी निजी स्कूलों ने फीस में 20 प्रतिशत की वृद्धि की थी. स्कूल इस वृद्धि को सही ठहराते हैं. नेशनल प्रोग्रेसिव स्कूल्स कॉन्फ्रेंस की प्रमुख और आईटीएल पब्लिक स्कूल की प्रिंसीपल सुधा आचार्य कहती हैं कि स्कूलों पर भी महंगाई का असर हो रहा है. आचार्य ने बताया, “स्कूल फीस बढ़ाए बिना शिक्षा की गुणवत्ता बरकरार रखना संभव नहीं है.” दिल्ली स्थित सेंटर स्क्वेयर फाउंडेशन ने एक अध्ययन में पाया कि 2021 में देश के साढ़े चार लाख निजी स्कूलों में से 70 प्रतिशत की न्यूनतम मासिक फीस एक हजार रुपये प्रति छात्र है. इन स्कूलों को महामारी के दौरान 20-50 प्रतिशत तक का घाटा झेलना पड़ा.

एजुकेशन कैननॉट वेट

दुनिया के कई इलाकों में जलवायु संकट और अन्य संकटों की वजह से बच्चे स्कूलों से और शिक्षा से दूर होते जा रहे हैं. ‘एजुकेशन कैननॉट वेट’ एक ऐसा कोष है, जो ऐसे इलाकों में शिक्षा पर ध्यान केंद्रित कर रहा है. कोष की मुखिया यास्मीन शरीफ कहती हैं, यह बड़ी विकट और अकल्पनीय स्थिति है. वे अपना सब कुछ खो चुके हैं और उसके ऊपर से अच्छी शिक्षा से भी महरूम हो गए हैं. संयुक्त राष्ट्र की सालाना महासभा से एक दिन पहले शिक्षा के संकट पर शरीफ ने एएफपी समाचार एजेंसी से बातचीत की. अलग अलग संघर्षों या जलवायु से जुड़ी आपदाओं की वजह से पूरी दुनिया में 22.2 करोड़ बच्चों की शिक्षा अस्त व्यस्त हो गई है. इनमें करीब आठ करोड़ ऐसे बच्चे भी हैं जिन्होंने कभी स्कूल में कदम ही नहीं रखा है आजतक. 2016 के बाद से ‘एजुकेशन कैननॉट वेट’ ने एक अरब डॉलर से भी ज्यादा धनराशि जुटाई है जिससे स्कूल बनाए जा सकें, शिक्षण सामग्री खरीदी जा सके और रोज भोजन व मनोचिकित्सीय सेवाएं भी मुहैया कराई जा सकें. इससे 32 देशों में करीब 70 लाख बच्चों की मदद की जा रही है, लेकिन शरीफ कहती हैं कि स्थिति की यह मांग है कि और बड़ी कोशिश की जाए. उन्होंने कहा, अगर हमें जरूरतों को पूरा करना है तो हमें बिलकुल नए तरीके से सोचना पड़ेगा. हम यहां लाखों नहीं बल्कि करोड़ों डॉलरों की बात कर रहे हैं.
संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन के बाद शरीफ फरवरी में जिनेवा में एक सम्मलेन का आयोजन करेंगी जहां कोष के लिए अतिरिक्त 1.5 अरब डॉलर धनराशि मांगी जाएगी. इसका लक्ष्य अतिरिक्त दो करोड़ बच्चों तक पहुंचना होगा. स्वीडिश मूल की शरीफ कहती हैं कि कुछ पश्चिमी देश एक बच्चे को पढ़ाने के लिए एक साल में 10,000 डॉलर तक खर्च कर देते हैं, जबकि संघर्ष वाले इलाकों में हर बच्चे तक एक साल में सिर्फ 150 डॉलर पहुंच पाते हैं. वो कहती हैं कि आप इस चरम विभाजन को देख सकते हैं. संघर्ष वाले कुछ इलाकों में स्कूलों को तबाह कर दिया गया है. शरीफ इसे युद्ध अपराध मानती हैं. कुछ स्कूलों को तो हथियारों के अड्डों में बदल दिया गया है, जो अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है. दूसरे स्थानों में शारीरिक खतरों या जनसेवाओं और मूलभूत ढांचे के धीरे धीरे नष्ट होने से शिक्षा क्षेत्र ही बंद हो गया है. शरीफ के अनुसार शिक्षा दुनिया के युवाओं के लिए जीवन रेखा होनी चाहिए.
उन्होंने बताया कि हम जिसकी पेशकस कर रहे हैं वो एक औजार है, एक उम्मीद है, एक सशक्तिकरण है ताकि संघर्ष की शक्तियों का मुकाबला किया जा सके और वो अपने दम पर उस राख से निकल सकें. शिक्षा के अभाव के प्रत्यक्ष और तत्कालीन परिणाम होते हैं. बच्चे कभी कभी सड़कों पर पहुंच जाते हैं, जहां वे हिंसा, मानव तस्करी, हथियारबंद समूहों द्वारा भर्ती जैसे खतरों का सामना करने लगते हैं. लड़कियों के लिए जबरन विवाह का भी खतरा रहता है. शरीफ कहती हैं कि उन्होंने अपने गांवों को जलकर नष्ट होते हुए देखा है, अपने माता पिता की हत्या देखी है, उनके साथ भी हिंसा हुई है. अब उनके लिए बस यही बचा है कि ‘अगर मुझे शिक्षा मिल जाए तो मैं इससे निकल सकती हूं और अपने जीवन को बदल सकती हूं’. हम अगर उन्हें शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं तो हम उम्मीद के उस आखिरी टुकड़े को भी छीन ले रहे हैं.

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