अच्छी किताबों से होकर जाए बच्चों की बेहतर जिंदगी का रास्ता

अच्छी किताबों से होकर जाए बच्चों की बेहतर जिंदगी का रास्ता

पवन चौहान : बचपन की यादों में बाल साहित्य का अपना एक निश्चित स्थान है। मोबाइल की दुनिया से पूर्व तो यही बच्चों के मनोरंजन के साथ ज्ञानार्जन का अवलम्ब था। किताबें, बाल पत्रिकाएं और दादा-दादी, नाना नानी के क़िस्से बालमन गढ़ने में महती भूमिका निभाते हैं। अब पुस्तकों की वो सुगंध, कल्पना की आज़ादी

पवन चौहान : बचपन की यादों में बाल साहित्य का अपना एक निश्चित स्थान है। मोबाइल की दुनिया से पूर्व तो यही बच्चों के मनोरंजन के साथ ज्ञानार्जन का अवलम्ब था। किताबें, बाल पत्रिकाएं और दादा-दादी, नाना नानी के क़िस्से बालमन गढ़ने में महती भूमिका निभाते हैं। अब पुस्तकों की वो सुगंध, कल्पना की आज़ादी और न जाने कितनी प्रत्यक्ष-परोक्ष सीखें पीछे छूट रही हैं। हम जब भी जीवन के शुरुआती हिस्से को याद करते हैं तो अकस्मात ही हमें तोतली बोली की मिठास अपने सम्मोहन में बांध देती है। यही मिठास हमें बाल मनोविज्ञान की कई तहों को स्पर्श करवाते हुए एक बार फिर उसी मासूमियत, हंसी-ठिठोली, मीठी-शरारतों, अठखेलियों से लेकर कई क़िस्सों से हमारी मुलाक़ात करवा देती है।
जीवन की यह वह महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसमें कोई भी बार-बार लौटना चाहता है। यही वह नाजु़क समय है, जब बच्चा धीरे-धीरे दुनिया को जानने-समझने लगता है, उसमें जीवन मूल्यों का संचार होने लगता है। उसकी यह प्रथम पाठशाला घर से शुरू होकर शिक्षकों, मित्रों, समाज से मिले कई खट्टे-मीठे अनुभवों संग एक अन्य पहलू से भी बच्चों को जोड़ती है। बाल साहित्य वह कड़ी है जो बच्चे की उंगली थामे उसके व्यावहारिक, बौद्धिक, मानसिक, संवेगात्मक, नैतिक, व्यक्तित्व-संबंधी, सृजनात्मक, सामाजिक, भाषिक, चारित्रिक आदि कई जीवन मूल्यों के विकास में अपनी अहम भूमिका निभाती है।
वैज्ञानिक तर्क के अनुसार बच्चों के मस्तिष्क का बहुत-सा विकास छोटी उम्र में ही हो जाता है। यदि इस उम्र में बच्चों को सही, सम्पूर्ण और सकारात्मक शिक्षा उपलब्ध करवाई जाए तो हमें भविष्य में इसके सुखद परिणाम नज़र आते हैं, जिससे एक बेहतर समाज के निर्माण में मदद मिलती है।
वैलेंटाइन के अनुसार- ‘शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है।’ यह काल एक कोरे काग़ज़ की तरह होता है जिस पर अभी कुछ अंकित नहीं होता। इस उम्र में बच्चे को सिखाया, पढ़ाया, समझाया गया सब पहली-पहली बार दर्ज हो रहा होता है। ये शुरुआती बातें उसे बहुत लम्बे समय तक या यह कहें कि ताउम्र याद रहती हैं। इसलिए इस समय हम जो भी बच्चे को सिखाएं, पढ़ाएं, बताएं तो उसमें बहुत एहतियात बरतने की ज़रूरत रहती है। कोई भी ग़लत बात ताउम्र उसका पीछा कर सकती है। इसलिए यह दौर बहुत सचेत रहकर लेखन का है।
आज समय अलग है। सुविधाएं बदली हैं, संसाधन बदले हैं, सोच बदली है। इसी के चलते बच्चों की जिज्ञासाएं, कल्पनाएं, अठखेलियां, बातें, खेल, शरारतें यहां तक कि उनके रहन-सहन में भी काफ़ी बदलाव आया है। लेकिन बच्चा आज भी वही है, पूर्व की तरह सहज, सरल, निश्छल स्वभाव लिए हुए। रूसो लिखते हैं- ‘बच्चे निर्दोष जन्मते हैं, बाद में समाज उन्हें बिगाड़ देता है।’
अच्छे बच्चों के निर्माण में उनके मनोविज्ञान के अनुरूप साहित्य रचने की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब लेखक स्वयं बच्चा बनकर, बच्चे के मनोविज्ञान को ईमानदारी से अनुभूत करे। यह स्थिति बच्चे के भीतर बाल साहित्य के प्रति विश्वास जगाती है। यदि इस विश्वास को पा लिया तो बच्चा बाल साहित्य की हर विधा को ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ेगा, समझेगा और अपनाएगा भी। जीवन मूल्यों के अंकुरण का सही समय बचपन ही है, जो बालक के कोमल मन और हृदय में अच्छे से स्थापित हो जाते हैं। उम्दा बाल साहित्य इस अंकुरण को सकारात्मक विचारों से सींचकर स्वस्थ पौधा तैयार करने की ताक़त रखता है।
प्राचीनकाल से ही बाल साहित्य बच्चों को कई क़िस्सों, घटनाओं, लोककथाओं, दंतकथाओं, पहेलियों आदि के माध्यम से मिलता रहा है। इन लोककथाओं का स्वाद हम परम्परागत तरीक़े से पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप में तब तक लेते रहे जब तक बाल साहित्य लिपिबद्ध न हुआ।
बच्चे लोककथाओं को जब अपने बड़े-बुज़ुर्गों के सान्निध्य में बैठकर सुनते थे तो ये नज़दीकियां उन्हें एक-दूसरे को जानने-समझने का एक बेहतर मौक़ा प्रदान करती थीं। यह संस्कारों की पाठशाला थी। यह मौखिक साहित्य जहां बच्चों का भरपूर मनोरंजन करता था वहीं उनमें आदर, स्नेह, सहयोग, करुणा, आत्मविश्वास, ईमानदारी, देशप्रेम, लोककल्याण और नैतिकता जैसे जीवन मूल्यों का विकास दैनिकी के उसी सान्निध्य में करवाता रहता था। इससे बच्चों की कल्पनाशीलता को पंख मिलते थे। ये कथाएं बालमन में नि:स्वार्थ सेवा, परोपकार, त्याग और सामाजिक सौहार्द का बीजारोपण करती थीं।
जब बाल साहित्य लिखित रूप में पहुंचा तो कहानी के साथ कविता, गीत, नाटक, पहेली आदि विधाएं साथ लेकर आया। जब 1882 में भारतेंदु हरिश्चंद्र की अगुवाई में ‘बाल दर्पण’ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ तो बाल साहित्य लेखन में नए युग का सूत्रपात हुआ। पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक, पौराणिक व दंत कथाओं के साथ परीकथाओं ने भी जब भारतीय बाल साहित्य में प्रवेश किया तो इन्होंने बालमन को गहरे छुआ। यह राजा-रानी, पशु-पक्षी, भूत-प्रेत, तिलिस्म, परियों की बातों से सजा साहित्य था। इस साहित्य ने बच्चों में पशु-पक्षी, जानवरों व जनमानस के प्रति संवेदना को जाग्रत करने में अहम भूमिका निभाई।
चित्रकथाएं और चित्रों संग रचनाएं बच्चों को बहुत लुभाती हैं। चित्र रचना को सजीवता प्रदान करते हैं। इसके अलावा बिंदु से बिंदु मिलान, रंग भरो, पहेलियां, माथापच्ची, वर्ग पहेली, गणित पहेली जैसी बहुउपयोगी सामग्री भी इनमें शामिल रहती है, जो बच्चों का ख़ूब मनोरंजन करती है। इससे बच्चों में एकाग्रता, कल्पनाशक्ति, बौद्धिकता, तर्कशक्ति, सोचने की क्षमता आदि गुणों का विकास होता है। पजॉन कोमेनियस द्वारा बच्चों के लिए लिखी गई पहली सचित्र पुस्तक 1657 में ‘औरबिस सेन्युलियम पिक्टस’ नाम से प्रकाशित हुई तो इसने बच्चों में ही नहीं, बड़ों में भी एक आकर्षण पैदा कर दिया था।
बच्चों के लिए जब आप कुछ रचते हैं या उन्हें सुनाते-पढ़वाते हैं तो बच्चा उससे प्रभावित होकर उसे अपनाने लगता है। शिवाजी की बहादुरी के चर्चे जब हम सुनते-पढ़ते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि उनकी माता जीजाबाई उन्हें वीरता और साहस के क़िस्से-कहानी सुनाया करती थीं। ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ पुस्तक के अपने संपादकीय में प्रकाश मनु लिखते हैं- ‘बचपन में पढ़ी पुस्तकों का असर अंत तक मन से नहीं उतरता और घुट्टी की तरह यह हमारे मन और व्यक्तित्व को मज़बूत करता है।’
भाषा ज्ञान बढ़ने के साथ ही कथा-कहानी से कल्पनाशक्ति का विकास भी होता है। बाल साहित्य का पठन व श्रवण बालक की कल्पना की उड़ान को एक अलग ही दुनिया की सैर पर ले जाता है। मारिया मॉण्टेसरी का कथन है- ‘कल्पनात्मक क्रियाएं सत्य और यथार्थ पर आधारित होनी चाहिए, जिससे सक्रिय विज्ञान में उचित सामग्री प्राप्त हो सके।’ इस विचारधारा में मात्र कोरी कल्पना में रचा साहित्य सिरे से नकार दिया जाता है। पाठ्यपुस्तकों से इतर बच्चों को अन्य पुस्तकें पढ़ने की भी आदत डलवानी चाहिए। इसका फ़ायदा उन्हें ताउम्र मिलता रहेगा। पढ़ना कोई घाटे का सौदा नहीं है। शिक्षक व अभिभावक इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। रूसो के अनुसार- ‘बालक का मन ही अध्यापक की पाठ्यपुस्तक है।’
एक अनुभव बताता हूं। जब मैं राजकीय उच्च विद्यालय बीणा, सुंदरनगर में गणित का अध्यापक था तो वहां पाठ्यक्रम के अलावा अन्य पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने और लिखने का एक माहौल तैयार किया गया। इस माहौल ने बच्चों में एक अलग ही आत्मविश्वास जगा दिया था। बच्चों की रचनाएं देश की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो रही थीं। सातवीं कक्षा की सविता बहुत ही कम बोलती थी। अधिकतर ‘हूं’ या ‘हां’ में ही जवाब देती थी। एक दिन सविता ने कहा कि उसे भी पर्यावरण दिवस पर भाषण देना है, और प्रतियोगिता में उसने तीसरा स्थान प्राप्त किया। यह लिखने-पढ़ने से आए आत्मविश्वास का एक जीता-जागता उदाहरण था।
एक ही रचना को वर्षों-वर्ष तक पढ़ते रहना किसी को भी ऊब से भर सकता है। इसलिए समय-समय पर समयानुकूल पाठ्यक्रम की रचनाओं में भी बदलाव ज़रूरी है ताकि शिक्षक और बच्चों में कुछ नया सीखने, पढ़ने और जानने की ऊर्जा का भरपूर संचार होता रहे। कभी-कभी बालमन में चल रही उठा-पटक से उपजे कई प्रश्न हमें चकित करते हैं। इन्हीं प्रश्नों और जिज्ञासाओं को बाल साहित्य बड़े प्यार और तसल्ली के साथ शांत करने में सक्षम है। सुदूर पहाड़ी इलाक़े, ग्राम या फिर आदिवासी इलाक़े की बात तो दूर, शहरी इलाक़ों में भी बाल साहित्य की पहुंच अत्यल्प ही है। सुखद बात यह है कि बाल साहित्य विस्तार के लिए राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, चिल्ड्रंस बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग आदि महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। कई पत्रिकाएं व संगठन बच्चों में साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए पूरी तन्मयता के साथ लगे हुए हैं।
बच्चों में वैज्ञानिक सोच के साथ हमें उनकी अच्छी समझ के विकास पर बल देना है। वर्तमान में ऑनलाइन माध्यम से परोसी जा रही हिंसा, अपराध, गुंडागर्दी जैसी नकारात्मकता तथा मोबाइल से उसके मन तक पहुंच रही अवांछित सामग्री को लेकर सचेत रहने की आवश्यकता है। बाल साहित्य के केंद्र में निश्चित ही बच्चे हैं। उनके बालमन को गहराई से झांकते, समझते, जानते हुए अपनी क़लम के शब्दों को हमें तरतीब से रखना है। यह नाज़ुक समय बाल विकास के लिए बाल साहित्यकारों से बहुत उम्मीद लगाए हुए है। लेखक को हर बालमन तक पहुंचना है और उसके विश्वास पर खरे उतरना है।

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