जीएसटी से बिगड़े पिज़्ज़ा, रोटी, पराठे के ज़ायके का घमासान अब अदालत में

जीएसटी से बिगड़े पिज़्ज़ा, रोटी, पराठे के ज़ायके का घमासान अब अदालत में

जीएसटी की एक अदालत के फ़ैसले के मुताबिक़ पिज़्ज़ा की टॉपिंग पर पिज़्ज़ा से अधिक टैक्स लगेगा. किसी पिज़्ज़ा को स्वादिष्ट बनाने के लिए उस पर क्या-क्या टॉपिंग किस तरह डाली जाएं ये तय करना एक चुनौती हो सकती है. अगर अधिक टॉपिंग डाल दी जाएं तो आटा गीला रह सकता है और अगर ग़लत

जीएसटी की एक अदालत के फ़ैसले के मुताबिक़ पिज़्ज़ा की टॉपिंग पर पिज़्ज़ा से अधिक टैक्स लगेगा. किसी पिज़्ज़ा को स्वादिष्ट बनाने के लिए उस पर क्या-क्या टॉपिंग किस तरह डाली जाएं ये तय करना एक चुनौती हो सकती है. अगर अधिक टॉपिंग डाल दी जाएं तो आटा गीला रह सकता है और अगर ग़लत मात्रा में डाल दी जाएं तो फिर स्वाद का मज़ा बिगड़ सकता है लेकिन अगस्त में पिज़्ज़ा की टॉपिंग बनाने वाली एक भारतीय कंपनी ने अदालत में अलग तरह की चुनौती पेश की. ये टॉपिंग के टेस्ट के बारे में नहीं थीं. बल्कि ये टॉपिंग पर लगने वाले जीएसटी (गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स) की दर को लेकर थी. गौरतलब है कि भारत में रोटी पर पांच और पराठे पर 18 फ़ीसदी जीएसटी क्यों है
भारत में जीएसटी को पांच साल पहले लागू किया गया था. देशभर में एक समान रूप से लगने वाले इस कर ने भारत में टैक्स में बढ़ोतरी की है. दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत में हर महीने सिर्फ़ जीएसटी से ही अब 17 अरब डॉलर से अधिक कर जुटाया जाता है. अदालत में खेड़ा ट्रेडिंग कंपनी ने तर्क दिया है कि उसकी मोज़रेला टॉपिंग को पनीर माना जाए जिस पर कम दर से 12 प्रतिशत जीएसटी लगती है. कंपनी का कहना है कि इस टॉपिंग के दो-तिहाई से अधिक हिस्से में पनीर और दूध से बने ठोस पदार्थ ही होते हैं लेकिन हरियाणा राज्य की एक अदालत इससे अलग राय रखती है. अदालत का कहना है कि इस टॉपिंग को सही मायनों में सिर्फ़ पनीर नहीं माना जा सकता है.
अदालत का कहना है कि टॉपिंग में वेजीटेबल ऑयल होते हैं. सटीक रूप से कहा जाए तो इसमें 22 प्रतिशत वेजिटेबल ऑयल होते हैं. वहीं कंपनी का कहना है कि तेल से टॉपिंग को सही रंग मिलता है और ये सस्ता भी होता है. अदालत का कहना है कि वेजिटेबल फ़ैट पनीर का घटक नहीं होता है. ऐसे में इस टॉपिंग को पनीर नहीं माना जा सकता है बल्कि इसे ‘एडिबल प्रेपरेशन’ (खाने योग्य तैयार की हुई सामग्री) माना जाएगा जिस पर ऊंची दर से 18 फ़ीसदी जीएसटी लगती है. अदालत में ये कंपनी मुक़दमा हार गई. भारत में पांच साल पहले जीएसटी लागू किया गया था. अब हर महीने 17 अरब डॉलर जीएसटी जमा होता है
अदालत में इस तरह के मुक़दमों की वजह से भारत के टैक्स विशेषज्ञों को लगता है कि भारत में टैक्स सुधार करने वाली जीएसटी, जिसने 29 राज्यों में कई तरह से स्थानीय करों को ख़त्म भी कर दिया है, बहुत जटिल है. जीएसटी की पांच अलग-अलग दरें हैं. 5%, 12%, 18% और 28%. खुले में बिकने वाले खाने पर कोई जीएसटी नहीं लगती है. विशेषज्ञों का मानना है कि 2000 से अधिक तरह के उत्पादों पर लगने वाले ये टैक्स बहुत ही भारी हैं. (जबकि पेट्रोल, डीज़ल, बिजली और रियल एस्टेट क्षेत्र इस टैक्स के दायरे से बाहर हैं. इन पर अलग तरह से टैक्स लगता है.)
अगर बात भारत के खाद्य उद्योग की हो तो ऐसा लगता है कि जैसे ये टैक्स कई अलग-अलग गांठों में बंधा हो. सितंबर में अदालत ने परांठे पर जीएसटी की दर को लेकर बीस महीने से चले आ रहे मुक़दमे फैसला दिया. अदालत ने कहा कि परांठों पर, रोटी पर लगने वाले 5 फ़ीसदी जीएसटी के बजाए 18 फ़ीसदी की दर से जीएसटी लगेगी. गुजरात से संचालित फ़र्म वाडीलाल इंडस्ट्रीज़ बीते साल जून में अदालत में चली गई थी. फ़र्म का कहना था कि उसके पैक किए गए फ्रोज़न पराठों पर रोटी से अलग टैक्स क्यों लगता है. कंपनी आठ अलग-अलग तरह के पैक पराठे बेचती है जिनमें कुछ में सब्ज़ियां भी होती हैं. कंपनी का तर्क था कि रोटी और पराठा दोनों ही आटे से बनते हैं. रोटी को साधारण खाना माना जाता है जिस पर जीएसटी 5 फ़ीसदी है. अदालत ने इससे इनकार कर दिया. जज इस बात से तो सहमत थे कि पैक किए गए परांठे में मुख्य तौर पर आटा ही होता है, लेकिन इसमें दूसरे घटक भी होते हैं जैसे पानी, वेजिटेबल ऑयल, नमक, सब्ज़ियां और मूली. याचिका को ख़ारिज करते हुए अदालत ने कहा, “याचिकाकर्ता जो पराठे बेचते हैं वो रोटी से अलग हैं.”
जीएसटी को लेकर मुक़दमों में ऐसे कई और फ़ैसले भी हैं. कई लोग इन फ़ैसलों पर सर खुजाने लगते हैं. एक अदालत ने तय किया था कि पॉर्लर में बिकने वाली आइसक्रीम पर 18 प्रतिशत की ऊंची दर से जीएसटी लगेगा. अदालत ने कहा था कि पॉर्लर में पहले से तैयार आइसक्रीम बिकती है और ये रेस्तरां की तरह आइसक्रीम तैयार नहीं करते हैं. ‘पार्लर में आइसक्रीम वस्तु की तरह बेची जाती है ना की सेवा की तरह, भले ही आपूर्ति के कई घटक सेवा के ही क्यों ना हों.’ गुजरात में ही एक और मामला ‘फ्रायम्स’ को लेकर आया था. फ़्रायम्स एक भारतीय स्नैक है जो आलू और साबूदाने से तैयार होता है.
ये कंपनी चाहती थी कि उसका उत्पाद भी पापड़ की तरह जीएसटी के दायरे से बाहर हो. अदालत ने इस मामले में कहा था कि जब फ़्रायम को बेचा जाता है तो वो रेडी टू ईट (तुरंत खाने योग्य) होता है जबकि पापड़ को सेंकने की ज़रूरत पड़ती है. जज ने कहा, “दोनों ही उत्पाद अलग हैं और उनकी अलग-अलग पहचान है.” फ़्रायम पर 18 फ़ीसदी की जीएसटी लागू रही. लेकिन परांठे पर 18 फ़ीसदी जीएसटी लगेगी. एक फ़्लेवर्ड मिल्क उत्पादक अपनी ड्रिंक पर 12 प्रतिशत की जीएसटी को चुनौती देने अदालत पहुंच गया. भारत में सामान्य दूध पर जीएसटी नहीं लगती है.
कंपनी ने अदालत में कहा कि उसके उत्पाद में 92 फ़ीसदी दूध होता है और सिर्फ़ आठ प्रतिशत शुगर होती है. लेकिन अदालत ने कहा कि फ़्लेवर्ड मिल्क क़ानून के तहत ‘दूध की तय परिभाषा’ से बाहर आता है और इसलिए इसे टैक्स में छूट नहीं मिलेगी. इस बात को लेकर भी विवाद हुआ कि क्या तुरंत खाने योग्य डोसा और इडली पर उन्हें बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले बैटर से अधिक टैक्स लगना चाहिए या नहीं. टैक्स विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की परिस्थितियों से बचने का एक सरल तरीक़ा ये होगा कि अलग-अलग दरों को ख़त्म करके एक टैक्स दर तय कर दी जाए. दुनियाभर में 1995 के बाद से जीएसटी लागू करने वाले देशों ने इस टैक्स की एक ही दर रखी है.
अर्थशास्त्री विजय केलकर और अजय शाह कहते हैं, “भारत में अलग-अलग दबाव समूह किसी एक उद्योग या दूसरे पर ऊंची या नीची टैक्स दर लागू करने के लिए लॉबीइंग करते हैं. और इसकी वजह से अर्थव्यवस्था के लिए संसाधन निर्धारित करने में दिक़्क़तें आती हैं.” सरकार ही वस्तुओं और सेवाओं की मुख्य ख़रीदार होती है, ऐसे में उन्हें लगता है कि एक कम दर की समान जीएसटी से ‘सरकार में हर स्तर पर ख़र्च में कटौती होगी.’ एक कम दर की जीएसटी से उत्पादों को अलग-अलग श्रेणियों में रखने के लिए होने वाले विवाद समाप्त हो सकते हैं, टैक्स चोरी पर बचत कम होगी और इसके अलावा टैक्स लागू करने पर होने वाले ख़र्च में भी कटौती होगी.
वैश्विक अकाउंटिंग और कंसलटेंसी फ़र्म ईवाई से जुड़े उदय पिमरिकार कहते हैं, “जैसे ही आप दर कम करेंगे या एक ही दर तय करेंगे, विवाद कम हो जाएंगे. लेकिन भारत जैसे देश में जहां लोगों की आय में बहुत फ़र्क़ है, एक ही दर या दो जीएसटी दरों वाले टैक्स ढांचे से ग़रीबों पर टैक्स का बोझ बढ़ने का ख़तरा पैदा हो जाएगा.” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार जीएसटी को गुड एंड सिंपल टैक्स (अच्छा और सरल टैक्स) कहा था, ऐसा लगता है कि चीज़ें वैसी नहीं हो पाईं, जैसी सोची गई थीं. (बीबीसी से साभार सौतिक बिस्वास की रिपोर्ट)

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