रेहान फ़ज़ल : प्रभाष जोशी से हमारी पहली मुलाक़ात लॉर्ड्स के मैदान पर हुई थी. ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान के बीच विश्वकप का फ़ाइनल खेला जा रहा था. प्रभाष जोशी रंगीन राजस्थानी पगड़ी और धोती कुर्ता पहने वो मैच देख रहे थे. बहुत से लोगों का ध्यान मैच में मार्क वॉ के स्क्वायर कट की तरफ़
रेहान फ़ज़ल : प्रभाष जोशी से हमारी पहली मुलाक़ात लॉर्ड्स के मैदान पर हुई थी. ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान के बीच विश्वकप का फ़ाइनल खेला जा रहा था. प्रभाष जोशी रंगीन राजस्थानी पगड़ी और धोती कुर्ता पहने वो मैच देख रहे थे. बहुत से लोगों का ध्यान मैच में मार्क वॉ के स्क्वायर कट की तरफ़ न होकर धोती कुर्ता पहने हिंदी पत्रकारिता के इस शिखर पुरुष की तरफ़ था. इस तवज्जो से बेख़बर प्रभाष जोशी बगल में बैठे एक ज़माने में दुनिया के सबसे तेज़ गेंदबाज़ रहे जेफ़ टॉमसन से शुएब अख़्तर के रन अप पर बात किए जा रहे थे.
लॉर्ड्स के मैदान पर हुई इस छोटी सी मुलाक़ात को बल मिला हमारे दिल्ली आने के बाद. बीबीसी के दिल्ली दफ़्तर में अक्सर इंटरव्यू के लिए उनका आना होता था. इंटरव्यू ख़त्म होने के बाद हम अक्सर बैठकर रोजर फ़ेडेरर के फ़ोरहैंड, सुनील गावस्कर के स्ट्रेट ड्राइव, जेपी के बिहार आँदोलन, इंदिरा गांधी, बीजेपी के उदय, टोनी ब्लेयर की न्यू लेबर पार्टी, और न जाने कितने विषयों पर बात किया करते थे.
प्रभाष जोशी का वर्ल्ड व्यू आम पत्रकारों से काफ़ी जुदा था. भारतीय पत्रकारिता में कम लोग थे जो राजनीति, इतिहास, खेल, संगीत और संस्कृति पर समान अधिकार से बात कर सकते थे. प्रभाष जोशी के साथ सालों काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय याद कहते हैं, “जनसत्ता कई मायनों में दूसरे अख़बारों से अलग था. सबसे पहले तो 12 साल की तपस्या से वो अख़बार निकला था. दूसरा रामनाथ गोयनका से अख़बार चलाने के लिए पूरी आज़ादी लेना सिर्फ़ प्रभाषजी ही कर सकते थे और वो उन्होंने किया. प्रभाषजी ने जनसत्ता को अलग एक भाषा दी. उन्होंने फ़ॉर्मूला ये दिया कि स्थानीय और क्षेत्रीय बोलियों से रस ग्रहण करने से जो भाषा बनेगी वो जनसत्ता की भाषा होगी. उन्होंने बहुत सारे प्रयोग किए. उन्होंने साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं को अप्रासंगिक बना दिया क्योंकि जनसत्ता में खोज ख़बर और संस्कृति के पन्ने आने लगे.”
हिंदी पत्रकारिता में शायद प्रभाष जोशी अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस के चंडीगढ़ संस्करण के संपादक की भूमिका भी बख़ूबी निभाई. जब रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी को चंडीगढ़ भेजा तो कुलदीप नैयर वहाँ के स्थानीय संपादक थे. वहाँ प्रभाष जी ने कई अख़बारों से उभरते हुए पत्रकारों को लाकर एक ऊर्जावान टीम बनाई, जिसमें शामिल थे शेखर गुप्ता, विपिन पब्बी, विजया पुष्करणा, कंवर संधू जैसे लोग. विजया पुष्करणा बताती हैं, “चंडीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस का यह कह कर मज़ाक़ उड़ाया जाता था कि इन्होंने संवाददाता के नाम पर शहर भर में बच्चे छोड़ दिए हैं. लेकिन प्रभाषजी ने हम पर विश्वास किया और हमें हर तरह की आज़ादी दी. कुछ अच्छा किया तो तारीफ़ मिली. ग़लत होने पर डाँटा नहीं , सिखाया. वो हमारे लिए संरक्षक, संपादक और दोस्त की तरह थे.”
जुलाई 1983 में जनसत्ता के प्रकाशन से पाँच महीने पहले प्रभाष जोशी ने अपनी टीम के साथ अख़बार की भाषा शैली पर काम करना शुरू कर दिया था. जनसत्ता की हिंदी बोलियों से बनी आम बोलचाल की भाषा थी जिसमें प्रवाह था और जो पाठकों को सहज लगती थी. एक बार प्रभाष जोशी ने ख़ुद कहा था, “हिंदी पत्रकारिता की भाषा में एक अजीब तरह की औपचारिकता पर मुझे शुरू से ही एतराज़ था. अगर हम अपने पाठकों से अनौपचारिक संवाद नहीं क़ायम कर सकें तो हम पत्रकार नहीं हैं.”
प्रभाष जोशी के साथ काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल बताते हैं, “एक बार मैं बुलंदशहर गया. वहाँ मैंने देखा कि सिकंदराबाद के पास एक जगह लिखा था, ‘आगे पुलिया संकीर्ण है.’ मैंने उनसे कहा कि पुलिया कैसे संकीर्ण हो सकती है? संकीर्ण तो मानसिकता हो सकती है. पुलिया तो संकरी होगी. मैं उस ज़माने में सब एडीटर था लेकिन उन्होंने मेरी बात पर ग़ौर किया और फिर उन्होंने ‘सावधान आगे पुलिया संकीर्ण है’ नाम से एक संपादकीय लिखा. 1983 तक दिल्ली से जो अख़बार छपते थे चाहे वो नवभारत टाइम्स हो या हिंदुस्तान या छोटा अख़बार वीर अर्जुन हो, उन सब में एक आर्यसमाजी मार्का असर था. ये लोग हिंदी की शुद्धता के पक्षपाती थे. उनका कहना था कि हम अख़बार नाइयों और चाय वालों को नहीं पढ़ा रहे. हम एक क्लास को अख़बार पढ़ा रहे हैं. प्रभाषजी ने वो अवरोध तोड़ा. उन्होंने वो हिंदी लिखने पर ज़ोर दिया, जो बोली जाती है.”
शुक्ल आगे कहते हैं, “भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता है, ‘जिस तरह मैं बोलता हूँ, उस तरह तू लिख.’ प्रभाषजी अक्सर इसे कोट करते थे. हम लोग जागरण से आए तो लिखते थे, ‘उसके अनुसार.’ प्रभाषजी ने कहा नहीं इसकी जगह ‘मुताबिक़’ लिखो. आप क्या अपने घर में शुद्ध हिंदी बोलते हैं कि आज मैंने भोजन किया? आप कहते हैं ‘खाना खाया’ तो ‘खाना खाया’ लिखिए भी.” प्रभाष जोशी का गुरुमंत्र था, ‘अनुवाद छोड़िए. घिसेघिसाए शब्द छोड़िए. पहली लाइन में ख़बर दीजिए. वाक्य छोटे बनाइए और शीर्षकों में एक अनौपचारिक और घरेलू रंग लाइए. मज़ेदार और मानवीय रुचि की ख़बरें ज़्यादा लीजिए.’ प्रभाष जोशी ने अपने रिपोर्टरों को न सिर्फ़ पूरी आज़ादी दी बल्कि उनपर भरोसा भी किया. उनपर कभी अपनी पसंद और नापसंद को नहीं थोपा. उन्होंने अपने रिपोर्टरों को हमेशा ये आभास दिया कि वो उनके संरक्षक हैं और उन्हें किसी से डरने की ज़रूरत नहीं हैं.
अगर मंत्री किसी रिपोर्टर की शिकायत कर रहा है तो वो रिपोर्टर को इसकी सूचना दिए बग़ैर खुद उसका जवाब दे रहे हैं. राम बहादुर राय बताते हैं, “उन्होंने जब मुझे चीफ़ रिपोर्टर बनाया तो उन्होंने मुझे निर्देश दिया कि फ़रमाएशी ख़बरें नहीं छपनी चाहिए. रामनाथ गोयनका के सबसे भरोसेमंद जनरल मैनेजर जैन साहब एक बार मेरे पास आए. उन्होंने मुझे एक ख़बर दी, जो मेरी नज़र में एक फ़रमाएशी ख़बर थी, शायद किसी विवाह शादी से संबंधित. मैंने उसको फाड़ कर कूड़े में फेंक दिया. जब दो तीन दिन तक वो ख़बर नहीं छपी जो जैन साहब प्रभाषजी के पास मेरी शिकायत लेकर गए. प्रभाषजी ने कहा कि चीफ़ रिपोर्टर ने सही फ़ैसला किया होगा क्योंकि वो ख़बर छपने लायक़ नहीं रही होगी. बहुत बाद में उन्होंने इसके बारे में मुझे जानकारी दी. ऐसा नहीं था कि उन्होंने मुझे बुला कर पूछा कि क्या ख़बर थी और तुमने उसे क्यों नहीं छापा.”
राम बहादुर राय एक और क़िस्सा सुनाते हैं, ‘उस ज़माने में दिल्ली के एक मशहूर डाक्टर हुआ करते थे अनूप सराया. इस समय एम्स में प्रोफ़ेसर और हेड हैं. उस ज़माने में पंत अस्पताल में हाउज़ जॉब कर रहे थे. एक दिन वो मेरे पास आकर कहने लगे कि जनसत्ता का बहुत नाम है. क्या आप भ्रष्टाचार की ख़बरें भी छापेंगे? हमने कहा कि अगर वो प्रामाणिक ख़बर है तो ज़रूर छापेंगे. किस के ख़िलाफ़ है, ये सवाल नहीं है. अतुल जैन उस ज़माने में हमारे हेल्थ रिपोर्टर हुआ करते थे. मैंने उनसे कहा कि आप इनसे बात करिए और ख़बर की गहराई तक जाइए. प्रभाषजी का निर्देश था कि जब आप ख़बर हाथ में लेते हैं तो वो जहाँ तक जाती है, आप उसको फ़ॉलो करें. अतुल जैन ने वो ख़बर की और जनसत्ता में तीन चार दिन तक वो ख़बर छपी.”
राम बहादुर राय आगे बताते हैं, “वो ख़बर उस ज़माने के मशहूर हृदयरोग विशेषज्ञ डाक्टर ख़लीलुल्ला के ख़िलाफ़ थी. प्रभाषजी ख़लीलुल्ला के मरीज़ थे. वो बहुत नाराज़ होकर आए और बोले आपके अख़बार में हमारे ख़िलाफ़ ख़बर छप रही है. इस पर प्रभाषजी ने कहा कि हम आपके पक्ष में संपादकीय लिख सकते हैं लेकिन वो ख़बर नहीं रोकेंगे.’ प्रभाषजी ने सत्ता से हमेशा सम्मानजनक दूरी बनाए रखी. उनका मेलजोल हमेशा सबसे रहा. 1989 के चुनाव में ज़रूर कांग्रेस के ख़िलाफ़ एक उम्मीदवार खड़ा करने की मुहिम में उनकी भी भूमिका रही.
शंभूनाथ शुक्ल बताते हैं कि शुरू में प्रभाषजी राजनीतिज्ञों से मिलना भी पसंद नहीं करते थे. एक बार धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती उनसे मिलने आए थे तो वो उठ कर उनसे मिलने आए थे. तब तक उनके पीए ने उन्हें मेरे कमरे में बैठा दिया था. वो उन्हें अपने साथ अपने कमरे में ले गए. लेकिन 1987 में इंडियन एक्सप्रेस में हड़ताल के दौरान कई विपक्षी नेता उनसे मिलने आने लगे क्योंकि कहीं न कहीं ऐसा लगता था कि ये हड़ताल अख़बार के कांग्रेस विरोध के कारण करवाई गई है. मिलने आने वालों में अटल बिहारी वाजपेई, विद्या चरण शुक्ल और आरिफ़ मोहम्मद ख़ाँ भी थे. अटलजी ने प्रभाषजी को देख कर कहा, ‘संपादकजी नमस्ते.’ इन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. उन्होंने फिर कहा, ‘संपादकजी नमस्ते.’ तब हमारे एक साथी थे महादेव चौहान, उन्होंने इनका हाथ पकड़ कर कहा कि ये अटलजी हैं. तब वो जाकर अटलजी से मिले.” तब उन्हें लगा कि शायद प्रभाष जोशी को राजनीतिज्ञों से मिलना जुलना पसंद नहीं है.
लेकिन 1990 के बाद से ये दृश्य बदल गया था. वो कहते हैं, “वी पी सिंह से उनकी (प्रभाष जोशी) दोस्ती रही. चंद्रशेखर के यहाँ भी उनका आना-जाना था. वाजपेईजी के साथ भी उनकी नज़दीकी बढ़ गई. जब वाजपेईजी प्रधानमंत्री बने तो उनकी गाड़ी उनके गेट पर नहीं रोकी जाती थी और वो सीधे उनसे मिलने जाते थे.” उनका अनुमान था कि बाबरी मस्जिद प्रकरण में बातचीत से कोई रास्ता निकल आएगा. अगर नहीं भी निकला तो भी संघ परिवार के लोग बाबरी मस्जिद को नुक़सान नहीं पहुंचाएंगे. लेकिन जब ये घटना हो गई तो उन्होंने संघ परिवार की कड़े से कड़े शब्दों में निंदा की.
घटना के दूसरे दिन उन्होंने अपने संपादकीय में लिखा, “राम की जय बोलने वाले विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम की रघुकुल रीति पर कालिख पोत दी. वह धर्मस्थल बाबरी मस्जिद भी था और रामलला का मंदिर भी. ऐसे ढ़ांचे को विश्वासघात से गिरा कर जो लोग समझते हैं कि वे राम का मंदिर बनाएंगे, वे राम को न तो मानते हैं और न ही जानते और समझते हैं. अयोध्या में जो लोग एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं, वो भले ही अपने को साधू-साध्वी, संत-महात्मा और हिंदू हितों का रक्षक कहते हों, लेकिन उनमें और ब्रिटेन में इंदिरा गांधी की हत्या की ख़बर सुनकर तलवार निकाल कर ख़ुशी से नाचने वाले लोगों की मानसिकता में कोई फ़र्क़ नहीं है.”
राम बहादुर राय बताते हैं, “6 दिसंबर, 1992 एक निर्णायक क्षण है जब प्रभाषजी ने माना कि जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद को धवस्त किया है, उन्होंने दग़ाबाज़ी की है अपने धर्म के साथ भी और देश के साथ भी. ये उनकी धारणा थी. मैं (प्रभाष जोशी) जो कुछ भी लिखूँगा वो प्रभाष जोशी का मत है. उससे आप अख़बार को प्रभावित मत होने दीजिए. ये उन्होंने कहा. लेकिन उसका पालन नहीं हुआ. ये होता भी नहीं है. लीडर कोई दूसरी लाइन ले और अख़बार दूसरी. लेकिन तब भी उन्होंने अपने रिपोर्टरों की ख़बर को छपने से नहीं रोका चाहे, वो उनकी सोच के कितनी ही ख़िलाफ़ हो.”
दिलचस्प बात थी कि प्रभाष जोशी बने बनाए रास्ते पर कभी भी नहीं चले. औपचारिक शिक्षा और प्रमाणपत्र आधारित शिक्षा उनको कभी रास नहीं आई. शंभुनाथ शुक्ल बताते हैं, “प्रभाषजी भूदान और सर्वोदय आँदोलन से जुड़े हुए थे. लेकिन असली बात ये थी कि वो बहुत निचली पायदान से ऊपर आए थे. उन्होंने अंग्रेज़ी की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी. मुझे याद है कि एक बार उनके पास एचआर वाले आए और बोलने लगे कि हमें रिकार्ड के लिए आपकी शैक्षणिक योग्यता का विवरण चाहिए. उन्होंने कहा मेरे पास इसका कोई रिकार्ड नहीं है. बाद में उन्होंने बताया कि उनकी औपचारिक शिक्षा नहीं हुई है, मैं सिर्फ़ दसवीं तक पढ़ा हूँ. उसके बाद मैं ग्रामसेवक हो गया था. पत्रकारिता में वो ‘नई दुनिया’ के ज़रिए आए. अंतत: उन्होंने तय कर लिया कि अब लिखना ही उनका काम है. लेकिन ये भी कितनी विचित्र बात है कि इंडियन एक्सप्रेस जैसे अख़बार में दो दिग्गज संपादकों हिरण्यमय कार्लेकर और प्रभाष जोशी की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी और वो कितनी ऊँचाइयों पर पहुंचे. प्रभाषजी की अंग्रेज़ी बहुत अच्छी थी. जब मैं दिल्ली आया तो वो दिल्ली में इंडियन एक्सप्रेस के स्थानीय संपादक थे.”
क्रिकेट में उनकी रुचि का ज़िक्र हमने पहले किया लेकिन हिंदी पत्रकारिता में ऐसे लोग कम हुए हैं जिन्होंने ये साबित करने की कोशिश की कि खेल का भी एक दर्शन होता है. प्रभाष जोशी कहा करते थे, “खिलाड़ी ने रन तो बनाए , लेकिन कैसे बनाए इस पर बात होनी चाहिए.” ‘कागद कारे’ के उनके पहले लेख का शीर्षक था ‘कंगारुओं का कोकाकोलाकरण.’ वो खेल को मनोरंजन और तमाशे से ऊपर उठकर देखते थे. प्रभाष जोशी के बड़े बेटे और प्रथम श्रेणी की क्रिकेट खेल चुके संदीप जोशी याद करते हैं, “क्रिकेट का एक ही रिप्ले वो कई बार देख सकते थे और उसमें कई-कई चीज़ें नई निकाल सकते थे लेकिन उनके काम के आड़े क्रिकेट कभी नहीं आता था. क्रिकेट में उनके फ़ेवरेट हमेशा बदलते रहते थे. सी के नायडू से लेकर, सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुल्कर और विराट कोहली को भी वो बहुत पसंद करते थे. जो अच्छा खेले और उन्हें आनंद दे, वो उनका फ़ेवरेट हो जाता था. उनसे हमारी ख़ूब बहस होती थी जब टी-20 शुरू हो रहा था. टी-20 को वो ‘बीसमबीस’ कहा करते थे. शुरू में वो इसे पसंद नहीं करते थे क्योंकि उनका मानना था कि उसपर बाज़ार हावी हो रहा है. हमारी इस बारे में बहुत बहस होती थी लेकिन बाद में उन्होंने अपने को उसके अनुसार ढ़ाल लिया था और टी-20 का भी मज़ा लेने लगे थे.”
दो दशकों तक चलने वाले उनका कॉलम ‘कागद कारे’ हिंदी अख़बारों में सबसे लंबे समय तक चलने वाला कॉलम था. उसकी निरंतरता कभी नहीं टूटी. जब वो अपनी बाईपास सर्जरी कराने बॉम्बे हॉस्पिटल गए तो उन्होंने अपनी सर्जरी के दिन भी बोल कर अपना कॉलम लिखवाया था. उसको भारत का जनमानस भी शिद्दत से पढ़ता था और जनमत निर्माता भी. (बीबीसी से साभार)
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