पहली जुलाई से लागू हुए तीन नए आपराधिक क़ानून, क्या-क्या बदल गया

पहली जुलाई से लागू हुए तीन नए आपराधिक क़ानून, क्या-क्या बदल गया

तीन आपराधिक क़ानून- भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य संहिता एक जुलाई यानी सोमवार से देश में हो लागू हो गए हैं। इस विधेयक को बीते साल संसद के दोनों सदनों में ध्वनिमत से पारित किया गया था। इस विधेयक को दोनों सदनों से पास करते समय सिर्फ़ पाँच घंटे की

तीन आपराधिक क़ानून- भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य संहिता एक जुलाई यानी सोमवार से देश में हो लागू हो गए हैं। इस विधेयक को बीते साल संसद के दोनों सदनों में ध्वनिमत से पारित किया गया था। इस विधेयक को दोनों सदनों से पास करते समय सिर्फ़ पाँच घंटे की बहस की गई थी और ये वो समय था जब संसद से विपक्ष के 140 से अधिक सांसद निलंबित कर दिए गए थे। उस समय विपक्ष और क़ानून के जानकारों ने कहा था कि जो क़ानून देश की न्याय व्यवस्था को बदल कर रख देगा, उस पर संसद में मुकम्मल बहस होनी चाहिए थी।
दिल्ली पुलिस ने लीफलेट ट्वीट किया है कि महिलाओं को लेकर नए क़ानून में क्या बदलाव हुए हैं। आज से ये नए क़ानून देश में लागू हो गए हैं जबकि कई ग़ैर-बीजेपी शासित राज्यों ने इस क़ानून का विरोध किया है। गत दिवस केंद्र सरकार के अधिकारियों ने कहा था कि राज्य सरकारें भारतीय सुरक्षा संहिता में अपनी ओर से संशोधन करने को स्वतंत्र हैं।
सोमवार से भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, भारतीय दंड संहिता 1860, दंड प्रक्रिया संहिता,1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की जगह ले चुके हैं। नए भारतीय न्याय संहिता में नए अपराधों को शामिल गया है. जैसे- शादी का वादा कर धोखा देने के मामले में 10 साल तक की जेल. नस्ल, जाति- समुदाय, लिंग के आधार पर मॉब लिंचिंग के मामले में आजीवन कारावास की सज़ा, छिनैती के लिए तीन साल तक की जेल।
यूएपीए जैसे आतंकवाद-रोधी क़ानूनों को भी इसमें शामिल किया गया है। एक जुलाई की रात 12 बजे से देश भर के 650 से ज़्यादा ज़िला न्यायालयों और 16,000 पुलिस थानों को ये नई व्यवस्था अपनानी है। अब से संज्ञेय अपराधों को सीआरपीसी की धारा 154 के बजाय बीएनएसएस की धारा 173 के तहत दर्ज किया जाएगा।
एफ़आईआर, जांच और सुनवाई के लिए अनिवार्य समय-सीमा तय की गई है। अब सुनवाई के 45 दिनों के भीतर फ़ैसला देना होगा, शिकायत के तीन दिन के भीतर एफ़आईआर दर्ज करनी होगी। एफ़आईआर अपराध और अपराधी ट्रैकिंग नेटवर्क सिस्टम (सीसीटीएनएस) के माध्यम से दर्ज की जाएगी। ये प्रोग्राम राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के तहत काम करता है। सीसीटीएनएस में एक-एक बेहतर अपग्रेड किया गया है, जिससे लोग बिना पुलिस स्टेशन गए ऑनलाइन ही ई-एफआईआर दर्ज करा सकेंगे। ज़ीरो एफ़आईआर किसी भी पुलिस स्टेशन में दर्ज हो सकेगी चाहे अपराध उस थाने के अधिकार क्षेत्र में आता हो या नहीं।
पहले केवल 15 दिन की पुलिस रिमांड दी जा सकती थी. लेकिन अब 60 या 90 दिन तक दी जा सकती है। केस का ट्रायल शुरू होने से पहले इतनी लंबी पुलिस रिमांड को लेकर कई क़ानून के जानकार चिंता जता रहे हैं। भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को ख़तरे में डालने वाली हरकतों को एक नए अपराध की श्रेणी में डाला गया है। तकनीकी रूप से राजद्रोह को आईपीसी से हटा दिया गया है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी रोक लगा दी थी, यह नया प्रावधान जोड़ा गया है। इसमें किस तरह की सज़ा दी जा सकती है, इसकी विस्तृत परिभाषा दी गई है।
आतंकवादी कृत्य, जो पहले ग़ैर क़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम जैसे विशेष क़ानूनों का हिस्सा थे, इसे अब भारतीय न्याय संहिता में शामिल किया गया है। इसी तरह, पॉकेटमारी जैसे छोटे संगठित अपराधों समेत संगठित अपराध में तीन साल की सज़ा का प्रवाधान है। इससे पहले राज्यों के पास इसे लेकर अलग-अलग क़ानून थे। शादी का झूठा वादा करके सेक्स को विशेष रूप से अपराध के रूप में पेश किया गया है। इसके लिए 10 साल तक की सज़ा होगी। व्यभिचार और धारा 377, जिसका इस्तेमाल समलैंगिक यौन संबंधों पर मुक़दमा चलाने के लिए किया जाता था, इसे अब हटा दिया गया है। कर्नाटक सरकार ने इस पर आपत्ति जताई है, उनका कहना है कि 377 को पूरी तरह हटाना सही नहीं है, क्योंकि इसका इस्तेमाल अप्राकृतिक सेक्स के अपराधों में किया जाता रहा है।
जांच-पड़ताल में अब फॉरेंसिक साक्ष्य जुटाने को अनिवार्य बनाया गया है। सूचना प्रौद्योगिकी का अधिक उपयोग, जैसे खोज और बरामदगी की रिकॉर्डिंग, सभी पूछताछ और सुनवाई ऑनलाइन मोड में करना। अब सिर्फ़ मौत की सज़ा पाए दोषी ही दया याचिका दाखिल कर सकते हैं। पहले एनजीओ या सिविल सोसाइटी ग्रुप भी दोषियों की ओर से दया याचिका दायर कर देते थे। दिल्ली पुलिस ने बताया है कि बच्चों के लिए आज से क्या बदलने जा रहा है- तीन आपराधिक बिल संसद से पास, क़ानून बनने पर क्या बदलेगा और आम लोगों पर कितना असर? नए आपराधिक कानूनों में 6 बड़े और महत्वपूर्ण बदलाव क्या हैं? भारतीय न्याय संहिता में महिलाओं के लिए कितने क़ानून बदल जाएंगे?
क़ानूनों को लागू किए जाने से एक सप्ताह पहले विपक्ष शासित राज्यों के दो मुख्यमंत्रियों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु के एम के स्टालिन ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर क़ानूनों को लागू ना करने की मांग की थी। तमिलनाडु और कर्नाटक ने इस क़ानून के नाम पर भी आपत्ति जताई थी कि कर्नाटक और तमिलनाडु का कहना था कि संविधान के अनुच्छेद 348 में कहा गया है कि संसद में पेश किए जाने वाले क़ानून अंग्रेज़ी में होने चाहिए।
देश की जानी-मानी अधिवक्ता और पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने हाल ही में पत्रकार करन थापर को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर तीन नए आपराधिक क़ानून एक जुलाई को लागू होगा तो हमारे सामने बड़ी “न्यायिक समस्या” खड़ी होगा. सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि अभियुक्त की “ज़िंदगी और आज़ादी ख़तरे में पड़ सकती है।”
इंदिरा जयसिंह ने क़ानून मंत्री के साथ-साथ देश के सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं से सार्वजनिक रूप से अपील की है कि वो तीनों आपराधिक क़ानूनों पर तब तक रोक लगा दें, जब तक कि उन पर और चर्चा नहीं हो जाती. उनका कहना है कि एक बार फिर से बारीकी से विचार किया जाए। उन्होंने इस इंटरव्यू में कहा, “क़ानून का मूलभूत तत्व है कि कोई भी तब तक सज़ा का पात्र नहीं है, जब तक उसने वो काम तब ना किया हो, जब वैसा करना अपराध था। इसे क़ानून की भाषा में सब्सटेंसिव लॉ यानी मूल क़ानून कहते हैं। अब जो पहले अपराध नहीं था, आज अपराध बन गया है। ऐसे में ये क़ानून तभी लागू होगा, जब आपने वो अपराध इस क़ानून के लागू होने के बाद किया है। लेकिन हमारे प्रक्रियात्मक क़ानून यानी प्रोसिज़र लॉ, जिसे अब तक हम दंड प्रक्रिया संहिता के नाम से जानते हैं, वो ऐसे काम नहीं करते। अतीत में हमारे पास कई ऐसे फ़ैसले होते हैं, जिनके ज़रिए हम ट्रायल को आगे बढ़ाते हैं, क़ानूनों की व्याख्या अतीत में हुई है तो हमारे लिए क़ानूनों की उस प्रिज़्म से देखने की सहूलियत है। एक जुलाई से पहले जो अपराध हुए हैं, उन पर पुराना सब्सटेंसिव लॉ लगेगा और एक जुलाई के बाद के अपराध के लिए नया क़ानून लागू होगा लेकिन कोर्ट में सुनवाई नए क़ानून से होगी या नए प्रक्रियात्मक क़ानून से इसे लेकर तनातनी बनी रहेगी। मुझे लग सकता है कि नए क़ानून मेरे प्रति भेदभाव कर रहा है तो मैं चाहूंगी कि मेरा ट्रायल पुराने प्रक्रियात्मक क़ानून के तहत हो।”
इस क़ानून की दिक़्क़तों को लेकर वह कहती हैं, “भारतीय दंड संहिता डेढ़ सदी से भी ज़्यादा पुरानी है और दंड प्रक्रिया संहिता को भी1973 में संशोधित किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी न्यायिक व्याख्या की है और इसलिए भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता के बारे में हमारे पास निश्चितता है। नए क़ानून के लिए उस स्तर की निश्चितता हासिल करने में 50 साल और लगेंगे। तब तक मैजिस्ट्रेट को यह नहीं पता होगा कि उसे क्या करना है। जब तक कि सुप्रीम कोर्ट क़ानून के किसी विशेष प्रावधान पर फ़ैसला नहीं ले लेता और देश में सैकड़ों और हज़ारों मैजिस्ट्रेटों में से हर मैजिस्ट्रेट क़ानून की अलग-अलग व्याख्या कर सकता है। ऐसे में एकरूपता होगी ही नहीं लेकिन सवाल ये है कि इन सब में फंसेगा कौन- वो जो अभियुक्त है. मूल चिंता यही है कि अभियुक्त के साथ क्या हो रहा है? इस बात की क्या गारंटी है कि जब यह सब स्पष्ट हो रहा होगा, तो अभियुक्त ज़मानत पर होगा, क़ानून के तहत ऐसी कोई गारंटी नहीं दी गई है। सवाल ये भी है कि क्या आपने बैकलॉग में जो केस पड़े हैं, उनके बारे में सोचा है, क्या उन्हें भी ध्यान में रखा गया है?”
मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ ने भी नए आपराधिक कानूनों को ‘संविधान का मज़ाक’ बताया है। सीतलवाड़ ने ‘भारत के नए आपराधिक कानून: सुधार या दमन?’ विषय पर आयोजित एक कार्यक्रम में कहा, “ये कानून संविधान में निहित अधिकारों का मज़ाक उड़ाते हैं। इन क़ानूनों को पारित करने से पहले विस्तृत चर्चा की ज़रूरत थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।” सीतलवाड़ का कहना है कि ये क़ानून “लोकतंत्र और लोकतांत्रिक तानेबाने के ख़िलाफ़ हैं” और “हिंदू राष्ट्र की दिशा में बढ़ते क़दम की तरह है।”

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