अब्दुल गफ्फार : आर के नारायण के उपन्यास ‘द गाइड’ पर आधारित फिल्म ‘गाइड’ को आज भी असाधारण फिल्म माना जाता है. इसे तीसरी सर्वश्रेष्ठ फ़िचर फ़िल्म (हिन्दी) का दर्जा प्राप्त है. इस फिल्म के लिए फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार एवं सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार देव आनन्द, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार वहीदा रहमान, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार
अब्दुल गफ्फार : आर के नारायण के उपन्यास ‘द गाइड’ पर आधारित फिल्म ‘गाइड’ को आज भी असाधारण फिल्म माना जाता है. इसे तीसरी सर्वश्रेष्ठ फ़िचर फ़िल्म (हिन्दी) का दर्जा प्राप्त है. इस फिल्म के लिए फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार एवं सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार देव आनन्द, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार वहीदा रहमान, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार विजय आनन्द, सर्वश्रेष्ठ कहानी पुरस्कार आर के नारायण, सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखन पुरस्कार विजय आनन्द और सर्वश्रेष्ठ छायाकार पुरस्कार फ़ाली मिस्त्री को मिला था.
उम्मीद से परे यह वाकया रहा कि नामांकन के बाद भी सर्वश्रेष्ठ संगीतकार पुरस्कार एस डी बर्मन को और सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका पुरस्कार लता मंगेशकर को नहीं मिल सका, जबकि फिल्म के गानों का चित्रण सिनेमा के छात्रों को क्लासरूम में आज भी पढ़ाया जाता है. सचिन देव बर्मन उस वक़्त बीमार चल रहे थे लेकिन देव आनंद ने कहा, जब आप पूरी तरह से ठीक होंगे, तभी फिल्म के गाने बनेंगे और वही हुआ. गीतकार हसरत जयपुरी से विजय आनन्द का ‘दिन ढल जाए हाय रात न जाए’, मुखड़े को लेकर मनमुटाव हो गया और हसरत जयपुरी फिल्म छोड़कर चले गए. तब विजय आनन्द शैलेन्द्र के पास गए, जो फ़िल्म ‘तीसरी क़सम’ पिट जाने के बाद पूरी तरह बर्बाद हो चुके थे. शैलेन्द्र ने अपनी फ़ीस बहुत बढ़ाकर मांगी फिर भी विजय आनन्द तैयार हो गए. अन्य गीतों के अलावा उन्होंने हसरत जयपुरी के लिखे दो मुखड़ों पर भी दो गीत मुकम्मल किए. नतीजा सबके सामने है.
फिल्म की कहानी की बात करें तो राजू एक हंसमुख और मिलनसार गाइड है. एक अधेड़ पुरातत्वविद् मार्को अपनी नौजवान पत्नी रोज़ी के साथ गुफाओं का शोध करने पहुंचता है. मार्को अपने काम में इतना मग्न हो जाता है कि अपनी पत्नी रोज़ी को यकसर फ़रामोश कर बैठता है. रोज़ी एक देवदासी औरत की बेटी है, जो समाज में प्रतिष्ठा पाने की ग़रज़ से मां के समझाने पर मार्को जैसे अमीर और प्रतिष्ठित व्यक्ति से शादी के लिए तैयार हो जाती है लेकिन मार्को न तो रोज़ी को भावनात्मक सुख दे पाता है और ना स्त्रियोचित संसर्ग. रोज़ी अपनी इच्छाओं को नज़रअंदाज़ कर अपना ध्यान नृत्यकला पर केंद्रित करना चाहती है लेकिन मार्को को उसपर भी एतराज़ होता है. नतीजतन रोज़ी टूट जाती है और मार्को से अलग होकर राजू को अपना लेती है जो उसकी नृत्यकला को प्रोत्साहित करता है और उसे सहारा देता है. ज़माना राजू पर हंसता है और उसे यातनाएं देता है, फिर भी वो रोज़ी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता.
राजू के प्रयास से रोज़ी जब नलिनी के रूप में स्टार बन जाती है और पैसे बरसने लगते हैं, तब राजू जुए और शराब में पैसे पानी की तरह बहाने लगता है, जिससे रोज़ी नाराज़ रहने लगती है. इस बीच मार्को रोज़ी से मिलकर उसके ज़ेवरात लॉकर से निकालने की जुगत लगाना चाहता है लेकिन राजू उसे रोज़ी की क़ुर्बत हासिल करने नहीं देता और बैंक के काग़ज़ात पर रोज़ी का जाली दस्तख़त कर के मार्को को लौटा देता है. जब भेद खुलता है तब राजू को जेल जाना पड़ता है. जेल से लौटने के बाद राजू अपने समाज में मुंह दिखाना नहीं चाहता और दूर दराज़ के एक गांव के मंदिर में शरण लेता है. गांव वाले राजू को संत-महात्मा समझ लेते हैं और उसपर अंध-विश्वास करने लगते हैं. राजू गांव वालों को अंध-विश्वास और आडंबरों से दूर रहने की सलाह देता है लेकिन गांव वाले नहीं मानते.
इस बीच गांव में अकाल पड़ता है, खेतों में दरारें पड़ जाती हैं, आदमी और जानवर पानी बिना मरने लगते हैं. एक नासमझ आदमी के चलते गांव में यह बात फैल जाती है कि महात्मा जी अकाल टालने के लिए 12 दिनों का उपवास रख रहे हैं, जबकि राजू उपवास से अकाल टलने पर विश्वास तक नहीं करता. फिर भी गांव वालों की आस्था का सम्मान करते हुए वो उपवास रखता है और आख़िरकार मर जाता है. राजू की मां, उसका दोस्त ग़फ़ूर और रोज़ी ग़म से निढाल हो जाते हैं जबकि गांव वाले बारिश होने की ख़ुशी में राजू को भूलकर जश्न मनाने लगते हैं.
उस वक़्त इस फिल्म को समय से बहुत आगे की फिल्म माना गया था, इसलिए कि इस फिल्म की हीरोइन विवाहिता होते हुए भी न सिर्फ़ ग़ैर मर्द से प्रेम करती है बल्कि अपने पति को साफ़-साफ़ बता भी देती है, “मैं बेवफ़ाई करूंगी मार्को तो खुलेआम, काम का बहाना करके घने जंगल में चुपके से नहीं!” इसलिए कि रोज़ी मार्को को एक आदिवासी लड़की की आग़ोश में देख चुकी होती है.
इस फिल्म को बनाने के लिए पहले अमेरिकी निर्देशक टाड डेनियलवस्की और लेखक पर्ल एस बक ने देव आनंद से संपर्क किया था और देव आनंद के बड़े भाई चेतन आनंद के निर्देशन में फिल्म बनाने की बात तय हुई थी लेकिन उनमें किसी बात पर विवाद हो गया. फिर देव आनंद ने आर के नारायण से उपन्यास पर फिल्म बनाने का अधिकार ख़रीद लिया. इस उपन्यास के लिए नारायण को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था. फिर बात बनी और अंग्रेज़ी संस्करण का निर्देशन टैड डेनियलवस्की ने किया और हिंदी संस्करण का निर्देशन देव आनंद के छोटे भाई विजय आनंद ने.
एक साहित्यिक कहानी को विजय आनंद ने एक फिल्मी पटकथा में रूपांतरित किया. फिल्म के क्राफ्ट में कहानी को ढालने के लिए उपन्यास की कहानी में कुछ परिवर्तन करने पड़े. चेतन आनंद चाहते थे कि लीला नायडू इस फिल्म की हीरोइन बनें क्योंकि वहीदा रहमान की अंग्रेज़ी ठीक नहीं थी लेकिन देव आनंद ने कहा कि फिल्म बनेगी तो रोज़ी के रोल में वहीदा रहमान के साथ ही बनेगी, अन्यथा नहीं। वहीदा रहमान उनकी पहली और आख़िरी पसंद थीं जिन्होंने अपनी बेहतरीन अदाकारी से फिल्म में चार चांद लगा दिए।
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