छठ : पहले दिन नहाय खाय, दूसरे दिन खरना, तीसरे दिन डूबते हुए, चौथे दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य

छठ : पहले दिन नहाय खाय, दूसरे दिन खरना, तीसरे दिन डूबते हुए, चौथे दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य

लोक आस्था का महापर्व छठ इसी महीने 28 अक्टूबर से 31 अक्टूबर तक रहेगा. बिहार और वहां के लोग जहां-जहां बहुतायत में हैं, इन दिनों छठ पर्व की तैयारियां ज़ोरों पर चल रही हैं. कार्तिक माह के चतुर्थी तिथि को पहले दिन नहाय खाय, दूसरे दिन खरना, तीसरे दिन डूबते सूर्य और चौथे दिन उगते

लोक आस्था का महापर्व छठ इसी महीने 28 अक्टूबर से 31 अक्टूबर तक रहेगा. बिहार और वहां के लोग जहां-जहां बहुतायत में हैं, इन दिनों छठ पर्व की तैयारियां ज़ोरों पर चल रही हैं. कार्तिक माह के चतुर्थी तिथि को पहले दिन नहाय खाय, दूसरे दिन खरना, तीसरे दिन डूबते सूर्य और चौथे दिन उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. इसके बाद व्रत का पारण किया जाता है. मुख्यतः यह त्योहार बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाक़ों में मनाया जाता है. इसके अलावा बिहार से सटे नेपाल के कुछ इलाक़ों में भी छठ का त्योहार मनाते हैं. हालांकि इन इलाक़ों के लोग जहां भी बसे हैं, वहां छठ का त्योहार भी पहुंच गया है. श्रद्धालुओं की मान्यता है कि छठ के दिन सूर्य की उपासना से छठी माई प्रसन्न होती हैं. छठ का पहला दिन ‘नहाय खाय’ के रूप में मनाया जाता है जिसमें घर की सफ़ाई, फिर स्नान और शाकाहारी भोजन से व्रत की शुरुआत की जाती है. दूसरे दिन व्रतधारी दिनभर उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं. इसे खरना कहा जाता है. तीसरे दिन छठ का प्रसाद बनाया जाता है. प्रसाद के रूप में ठेकुआ, चावल के लड्डू और चढ़ावे के रूप में फल आदि भी शामिल होते हैं. शाम को बांस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और तालाब या नदी किनारे सामूहिक रूप से सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी को उगते सूरज को अर्घ्य दिया जाता है. व्रतधारी दोबारा वहीं जाते हैं जहां शाम को अर्घ्य दिया था. दोबारा पिछली शाम की तरह ही सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है . छठ व्रत एक कठिन तपस्या की तरह माना जाता है. छठ व्रत मूल रूप से महिलाएं ही करती हैं. हालांकि कुछ पुरुष भी इस व्रत को रखते हैं.
बिहार की राजधानी पटना के मशहूर महावीर मंदिर से जुड़े और ‘धर्मायण’ पत्रिका के संपादक भवनाथ झा कहते हैं, “परंपरा के मुताबिक़ इस त्योहार में कोई पुरोहित नहीं होता है. दरअसल इसके पीछे एक व्यवहारिक समस्या भी है. इस त्योहार को सभी लोग एक समय पर मनाते हैं ऐसे में इतने पुरोहित एक साथ मिलना संभव नहीं है.” भवनाथ झा के मुताबिक़, छठ मूल रूप से दो त्योहार है. पहला कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की छठी तिथि को मनाते हैं. इसमें छठी मैया की पूजा होती जो बच्चों के लालन-पालन की देवी मानी जाती हैं. छठी मैया की पूजा की पूरे देश में एक बड़ी परंपरा है. जबकि 7वें दिन भगवान सूर्य की पूजा होती है. सूर्य आरोग्य यानी अच्छी सेहत के देवता माने जाते हैं. ये दोनों त्योहार एक साथ आते हैं इसलिए एक-दूसरे से जुड़ गए.”
आकाशवाणी रांची में कार्यरत और धार्मिक मामलों के जानकार राजेश कर्म्हे ने बताया, “ये वही छठी मैया हैं जिनकी पूजा बच्चे के जन्म के छठे दिन कई परंपराओं में होती है. मान्यता के मुताबिक़, छठी माई ने कार्तिकेय को दूध पिलाकर पाला था. इसी से छठ में दूध का अर्ध्य देने की परंपरा जुड़ी है.” बिहार सरकार के 1970 के गजेटियर के मुताबिक़, यह त्योहार कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की छठी और सातवीं तीथि को मनाया जाता है. गजेटियर के मुताबिक़ छठ मगध का त्योहार है. यानी आज के बिहार और उससे सटे हुए पड़ोसी इलाक़ों का यह त्योहार रहा है. इसके मुताबिक़, सूर्य को कुष्ठ की बीमारी के उपचार के देवता के रूप में माना जाता है और सूर्य प्रत्यक्ष देवता माने जाते हैं. ऐसे में लोग गंगा में स्नान कर सूर्य को अर्ध्य देते हैं और अच्छे स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हैं.
धार्मिक मामलों के जानकार राजेश कर्म्हे बताते हैं, “दरअसल ऐतिहासिक रूप से मगध के इलाक़े में कुष्ठ की बीमारी बहुत आम बात थी. सूर्य को इस बीमारी के उपचार के देवता के रूप में जाना जाता है. आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति में तो ‘सन बाथ’ का भी ज़िक्र है. इसलिए गंगा नदी के किनारे सूर्य को अर्ध्य देकर ऐसी बीमारी से बचने या उसके ठीक होने की प्रार्थना की जाती है.” राजेश कर्म्हे के मुताबिक़, आयुर्वेद के अनुसार हमारा शरीर धरती, जल, अग्नि, वायु और आकाश जैसे पांच तत्वों से मिलकर बना है. जब तालाब या नदी में खड़े होकर ऐसे त्योहार मनाते हैं तो हम इन पांचों चीज़ों के संपर्क में होते हैं. बिहार के धर्म और संस्कृति के जानकार मधुबनी के अमल झा के मुताबिक़, यह आम लोगों का त्योहार है. परंपरा से यह त्योहार एक से दूसरे व्यक्ति और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचा है. अमल झा कहते हैं, “छठ के त्योहार में 90 फ़ीसदी लोग किसी तरह का मंत्र नहीं पढ़ते हैं. इसमें कोई पुरोहित नहीं होता है. इसमें संतान देने वाली छठी मैया और आरोग्य देने वाले भगवान सूर्य की प्रार्थना की जाती है.”
राजेश कर्म्हे बताते हैं, “सूर्य की उपासना कई संस्कृतियों में की जाती है. यह बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए सूर्य की पूजा से शुरू हुई परंपरा है. ऐसी आस्था आम लोगों में सबसे ज़्यादा होती है. इसलिए इसे लोक आस्था का त्योहार कहते हैं.” राजेश के मुताबिक़, भारत में अध्यात्म दो तरीकों का रहा है. जप और तप. जप का अर्थ होता है मंत्रोच्चार से उपासना करना, जो पढ़े-लिखे लोग करते थे. जबकि दूसरा है ‘तप’ यानी शरीर को तपाना. आम लोगों की उपासना का माध्यम तप होता है. इस तरह से आम लोग कठिन तप से यह त्योहार मनाते है इसलिए छठ को लोक आस्था का त्योहार कहते हैं. राजेश कर्म्हे के मुताबिक़, ”इतिहास हमेशा ख़ास लोगों का लिखा जाता रहा है. छठ का त्योहार आम लोगों से जुड़ा हुआ है. पुराने समय में राजाओं और सामंतों या धनी लोगों के इलाज के लिए वैद्य हुआ करते थे.
आम लोग ईश्वर की आस्था के भरोसे बीमारियों से बचने की प्रार्थना करते थे और छठ इसी आस्था से जुड़ा हुआ था. इसलिए इसके बारे में लिखित रूप से कोई ऐसा दस्तावेज़ नहीं है, जहां से पता चले कि यह त्योहार कब से मनाया जा रहा है.” अमल झा बताते हैं, “बिहार में पाल वंश के शासन के दौरान कई मंदिर बनवाए गए थे. इनमें कई सूर्य मंदिर भी थे, तो हम मान सकते हैं कि 12वीं सदी के आसपास बिहार में सूर्य की उपासना होती थी. लेकिन संभव है कि छठ जैसा त्योहार उससे भी पहले से मनाया जा रहा हो, इसलिए पाल वंश के शासन के दौरान सूर्य मंदिरों का निर्माण कराया गया.”
पटना के भवनाथ झा बताते हैं, “13वीं शताब्दी में आज के गुजरात के इलाक़े में हिमाद्रि ने चतुर्वग चिंतामणि की रचना की थी. इस पुस्तक में अलग-अलग व्रत त्योहारों के बारे में चर्चा की गई है. इसमें हर महीने की 7वीं तिथि को सूर्य को अर्ध्य देने का ज़िक्र किया गया है.” इनसे भी क़रीब 120 साल पहले कन्नोज के गढ़वाल वंश के शासन में एक विद्वान मंत्री थे ‘लक्ष्मीधर’. लक्ष्मीधर ने अपनी रचना ‘कृत्यकल्पतरू’ में सूर्य उपासना का ज़िक्र किया है. बिहार सरकार के गजेटियर के मुताबिक़, पटना ज़िले के ही इस्लामपुर में मौजूद सूर्य मंदिर और उसके बाहर के तालाब में छठ पर्व मनाने की बड़ी मान्यता रही है. मौजूदा समय में भी दूर-दराज़ से लोग यहां आकर छठ का त्योहार मनाते हैं.
छठ के त्योहार में कोई कर्मकांड नहीं होता है इसलिए इसमें कोई पुजारी नहीं होता है. जिस तरह जन्म के बाद शिशुओं को कोई संक्रमण न हो इसके लिए माताएं या शिशुओं के पास रहने वाली महिलाएं स्वच्छता का पूरा ख़्याल रखती हैं और छठी का रस्म होता है. ठीक वैसे ही इस त्योहार में स्वच्छता को पवित्रता से जोड़कर उसका पालन किया जाता है. अमल झा बताते हैं कि बिहार के मिथिला में कई मुस्लिम परिवार भी छठ मनाते रहे हैं. उनके मुताबिक़, छठ का त्योहार धार्मिक और सामाजिक एकता का त्योहार रहा है. इसमें छठ करने वाली महिलाओं के अलावा ‘सूप-डाला’ बनाने वाले लोग, फ़सल पैदा करने वाले किसान, फल और प्रसाद बेचने वाले दुकानदार, घर, सड़क और घाटों की सफ़ाई करने वाले पुरुष सदस्य सभी की अपनी-अपनी भूमिका होती है.
छठ का त्योहार साल में दो बार मनाया जाता है. ज्योतिषीय मान्यता के मुताबिक़ सूर्य चैत्र महीने के आसपास जब मेष राशि में होते हैं, उस समय सूर्य को उच्च का माना जाता है. इस समय जो छठ मनाया जाता है उसे ‘चैती छठ’ कहते हैं. राजेश कर्म्हे के मुताबिक़, “कार्तिक महीने में सूर्य तुला राशि में होते हैं. यहां सूर्य अपनी निम्न राशि में होते हैं. धार्मिक मान्यताओं में यह समय कार्तिकेय के जन्म से जुड़ा हुआ है. इसलिए इस समय मनाए जाने वाले छठ की मान्यता सबसे ज़्यादा है.”

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