‘छठ के बरतिया’ गीत पर मुझे खूब मिल रही बधाई : शारदा सिन्हा

‘छठ के बरतिया’ गीत पर मुझे खूब मिल रही बधाई : शारदा सिन्हा

कई लोग मुझसे मिलते ही कहते हैं कि छठ के गीत मतलब शारदा सिन्हा का गीत माना जाता है। मेरे लिए इससे बड़ा कोई सम्मान नहीं हो सकता। बचपन से ही हमारे घर में नानी पटना में आकर छठ करती थीं। गंगा नदी में अर्घ्य देना बहुत ही शुभ और पावन माना जाता है। उसी

कई लोग मुझसे मिलते ही कहते हैं कि छठ के गीत मतलब शारदा सिन्हा का गीत माना जाता है। मेरे लिए इससे बड़ा कोई सम्मान नहीं हो सकता। बचपन से ही हमारे घर में नानी पटना में आकर छठ करती थीं। गंगा नदी में अर्घ्य देना बहुत ही शुभ और पावन माना जाता है। उसी समय से घर में गाए जाने वाले छठ के गीत मेरे कानों में पड़ते थे। वो सुनने में इतने अच्छे लगते थे कि याद रह जाते थे। शादी के बाद मेरी सास ने बड़ी बहू होने के नाते मुझे छठ के हर रीत-रिवाज सिखाए और कहानियां बताईं। घर और गांव की कहानियों को पिरोकर मैंने छठ के गीत लिखे और उन्हें रिकॉर्ड किया।
‘डोमिनी बेटी सुप लेले ठार छे’, ‘अंगना में पोखरी खनाइब, छठी मैया आइथिन आज’ ‘मोरा भैया गैला मुंगेर’ और श्यामा खेले गैला हैली ओ भैया’ छठ के चार ऐसे गीत थे, जो मैंने 1978 में रिकॉर्ड किया था। हालांकि, लोगों के बीच फेमस होने के बाद दूसरे गायकों ने इन गीतों को गाया। ये ऐसे गीत थे, जो उस समय सुपरहिट हुए। मुझे खुशी है कि आज भी ये गीत छठ के समय बजते हैं और ना केवल बड़े, आज की युवा पीढ़ी भी इन्हें उतने ही प्यार से सुनती और गुनगुनाती है। जिस दौर में हिंदी गानों के बीच अंग्रेजी शब्दों का चलन है, उस दौर के युवा भी मेरे गानों को इतना सुनते, समझते और तारीफ करते हैं तो सुनकर बहुत खुशी महसूस होती है।
मेरे लिए इससे अच्छी बात क्या होगी ट्रेंडिंग के इस दौर में आज की पीढ़ी मेरे गाने पर रील्स बना रही है और वो इंस्टा पर ट्रेंड कर रहा हो। ये मेरे लिए उनका प्यार और सम्मान ही तो है, जिसे देखकर मैं कई बार आत्मविभोर हो जाती हूं। मुझे मेरे पूरे जीवन में अपने परिवार का साथ और लोगों का प्यार मिला है।
घर में मेरे जन्म से 30-35 साल पहले तक कोई बेटी पैदा नहीं हुई थी। बहुत मन्नतों के बाद मेरा जन्म हुआ। 8 भाइयों की इकलौती बहन हूं। मां ने मेरे लिए कोसी भी भरा था (कोसी बिहार और यूपी के कुछ क्षेत्र में छठ पर्व में शाम के अर्घ्य के बाद और सुबह के अर्घ्य से पहले भरा जाता है, जिसमें सोहर और छठ से जुडे़ गीत गाए जाते हैं, दीप जलाए जाते हैं। ये ज्यादातर गोद भरने या किसी मन्नत के पूरा होने पर कोसी भरने की रस्म निभाई जाती है)।
मुझे बचपन से ही गुनगुनाने का शौक था। मुझे याद है कि 3-4 साल की उम्र से ही मैं कविताओं को पढ़ते-पढ़ते उनकी धुन बना लेती थी और उसे गुनगुनाने लगती। मेरे पिताजी सुखदेव ठाकुर बिहार के संयुक्त शिक्षा निदेशक के पद पर कार्यरत थे। उन्होंने शुरुआती दिनों में ही गाने के प्रति मेरे रूझान को समझ लिया था, इसलिए उन्होंने मुझे संगीत सिखाने का फैसला लिया और मेरे लिए एक शिक्षक रखा, जो घर आकर मुझे संगीत सिखाते।
सरकारी नौकरी में होने के कारण पिताजी का ट्रांसफर होता रहता था, इसलिए मैंने अपनी 10वीं से पहले की पढ़ाई भागलपुर, पटना, रांची के स्कूल से की है। जब मैं 8वीं में पहुचीं तो म्यूजिक को ऑप्शनल सब्जेक्ट के तौर पर रखा। 10वीं के बाद पिताजी ने मुझे बोर्डिंग भेज दिया। मैंने अपना ग्रेजुएशन पटना वीमेंस कॉलेज से किया। हालांकि, शहर में पढ़ने के बाद भी मैं हमेशा छुट्टियों में गांव जाती थी। ये आदत पिताजी की देन थी। हमारे यहां शादी-ब्याह में या बच्चे के जन्म पर कई पारंपरिक गीत गाए जाते हैं। भाभियों के साथ ऐसे मौकों पर मैं भी गाती थी और अगर कोई गीत छोटा होता था तो उसमें अपने शब्द जोड़ देती।
मेरा पहला गीत जो रिकॉर्ड हुआ, वो पहली बार मैंने अपने भैया की शादी में गाया था। ये गाना मैंने भैया से कोहबर द्वार छेकाई का नेग मांगने के लिए गाया था क्योंकि बड़ी भाभी ने बोला कि ऐसे नेग नहीं मिलेगा, गाकर मांगिए। तो मैंने गाया “द्वार के छिकाई नेग पहले चुकैओ, हे दुलरुआ भैया, तब जहिया कोहबर आपन।” भैया की शादी के बाद मेरी भी शादी की तैयारी होने लगी। पिताजी ने शादी के पहले ही लड़के वालों को बता दिया था कि मुझे संगीत और नृत्य से खास लगाव है।
किस्मत से मेरी तरह मेरे पति बृजकिशोर सिन्हा को भी गीतों से खास लगाव था। पेशे से वो समस्तीपुर के साइंस कॉलेज के प्रोफेसर थे, लेकिन दोस्तों के बीच वो भी गुनगुना लेते। 1970 में जब शादी हुई और मैं अपने ससुराल बेगूसराय गई तो वहां का माहौल बिल्कुल अलग था। वहां का रहन-सहन, तौर-तरीका अलग यहां तक कि वहां जो मैथिली बोली जाती है, लेकिन अलग तरीके से। मेरी सासू मां का कहना था कि घर में भजन करने तक तो ठीक है, लेकिन उससे आगे गाना-बजाना नहीं चलेगा। हमारे यहां आज तक घर की बहू ने बाहर जाकर गाना नहीं गाया है, तो तुम भी नही गाओगी। हालांकि, मेरे सुसर जी को भजन-कीर्तन सुनना बहुत पसंद था। शादी हुए 5 दिन ही हुए थे कि मेरे गांव के मुखिया जी ने मेरे ससुर जी को कहा कि सुना है आपकी बहू बहुत अच्छा गाती हैं, तो एक-दो गीत गा दें। आप अपनी बहू से बोलिए कि वह ठाकुरबारी (गांव का मंदिर) में भजन गा दें। ससुर जी ने ठाकुरबारी में भजन गाने की इजाजत दे दी।
ये सुनते ही मैं बहुत खुश हो गई। हालांकि, ठाकुरबारी का दरवाजा घर के बगल का ही था, लेकिन फिर भी मेरी सास नहीं चाहती थीं कि मैं लोगों के बीच गाऊं। मुझे गाने का अवसर मिला था, मैं भी बिना कुछ सोचे, सास से बिना नजर मिलाए ससुर के पीछे-पीछे चली गई। सिर पर पल्लू लेकर तुलसीदास जी का भजन गाने लगी, ‘मोहे रघुवर की सुधि आई।’ गाने का सुख इतना बड़ा था कि भूल ही गई कि कहां हूं। गाने के बाद ससुर जी और गांव के बड़े-बुजुर्गों ने आशीष दिया। मगर, सास इतनी नाराज हुईं कि दो दिन तक खाना नहीं खाया, फिर जैसे-तैसे पति ने उन्हें मनाया और कहा अगर हम गाते तो क्या हमें घर से निकाल देतीं। धीरे-धीरे सास का विरोध कम होता गया।
शादी के कुछ महीनों बाद ही यानी 1971 में एचएमवी ने नई प्रतिभा की खोज में प्रतियोगिता आयोजित की थी। मैं इसके लिए लखनऊ पहुंची। वहां बड़े-बड़े गायक मौजूद थे। एचएमवी के रिकॉर्डिंग मैनेजर जहीर अहमद, संगीतकार मुरली मनोहर स्वरूप भी थे। भीड़ इतनी कि धक्का-मुक्की की नौबत आ गई। जहीर अहमद ने एक सिरे से सबको फेल कर दिया। मैं निराश हो गई, लेकिन पति ने जहीर अहमद से दोबारा टेस्ट लेने की गुजारिश की। इस बार मैंने ‘द्वार के छेकाई नेग पहिले चुकइयौ, यौ दुलरुआ भइया’ गाना शुरू किया। मेरा सौभाग्य कहिए या फिर इत्तेफाक इस दैरान एचएमवी के बड़े अफसर वीके दुबे वहां आ गए। उन्होंने मेरी आवाज सुनते ही कहा- ‘रेकॉर्ड दिस आर्टिस्ट!’। गाना रिकॉर्ड और रिलीज हुआ। ऐसा पहली बार हुआ जब कोई भी संस्कार या विवाह गीत श्रोताओं को लाउडस्पीकर पर सुनने को मिला।
कई लोगों को ये बहुत पसंद आया। गांव में भी जब भी मेरी सास को कोई मिलता तो मेरे गाने की तारीफ करता। इसके बाद से मेरी सास भी मेरे गायन को सपोर्ट करने लगीं। मैंने अपने दादी सास के गाने तक उनसे पूछ कर लिख लिए और उन्हें फिर से लिखकर धुन बनाई और गाना रिकॉर्ड किया। मेहंदी कैसेट में ज्यादातर वही गाने हैं।
बचपन से ही हमारे घर में खासकर के नानी पटना आकर छठ करती थीं। गंगा नदी में अर्घ्य देना बहुत ही शुभ और पावन माना जाता है। उसी समय से घर में गाए जाने वाले छठ मेरे कान में पड़ते थे और वो सुनने में इतने अच्छे लगते कि याद रह जाते थे। जब मेरी शादी हुई तो मेरी सास भी छठ करती थी। बड़ी बहू होने के कारण मुझे सासू मां छठ की हर रीत और उससे जुड़ी कहानियां बताती थीं। वो छठ इसलिए करती थीं क्योंकि मेरे पति बचपन में बहुत बीमार रहते थे। उन्होंने छठी मैया से उनके ठीक होने की प्रार्थना की। मैंने अपने जीवन के इन्हीं कहानियों को संजोकर गांव-घर मे गाए जाने वाले छठ गीत लिखे और उन्हें रिकॉर्ड किया।
‘डोमिनी बेटी सुप लेले ठार छे’, ‘अंगना में पोखरी खनाइब, छठी मैया आइथिन आज’ ‘मोरा भैया गैला मुंगेर’ और श्यामा खेले गैला हैली ओ भैया’ छठ के चार ऐसे गीत थे, जो मैंने 1978 में रिकॉर्ड किया था। ‘केलवा के पात पर उगे ला सुरज देव’, ‘हो दीनानाथ’, ‘सोना साठ कुनिया हो दीनानथ’ कुछ ऐसे गाने हैं, जो मैंने अपने घर में नानी को और शादी के बाद छठ के दौरान अपनी सासु मां को गाते सुना था। इन गीतों के जरिए सूर्य देव से जल्दी उगने की प्रथाना की जाती है। उन्हें बताया जाता है कि ये व्रत मैंने अपने पति, बेटे-बेटी, परिवार की अच्छे स्वास्थ्य और सुख-शांती के लिए किया है। यही से मुझे लगा कि इन गीतों को जरूर गाना चाहिए।
‘पहली पहल हम कईनी छठी मैया व्रत तोहार’ लिखने का कारण नई पीढ़ी थी। ये मैंने और ह्दय नारायण झा ने नई पीढ़ी यानी ऐसे जोड़ों को ध्यान में रखते हुए लिखा था जो बाहर रहते हैं, जॉब करते हैं या जिस घर की बहू अलग परिवेश से आती है। इसमें दर्शाने की कोशिश की गई है कैसे पंजाबी फैमली की लड़की, जो कि एक बिहारी बहू है वो छठ करती है और अपने घर के परंपरा को बरकरार रखती है। मैं 1988 में एक भोजपुरी फिल्म ‘माई’ के गाने की रिकॉर्डिंग के लिए मुंबई गई थी। बगल के ही बिल्डिंग में राजश्री प्रोडक्शन का ऑफिस था। तब तक मेरे कई गाने और लोकगीत लोगों के बीच आ चुके थे और लोकप्रिय थे। 1983 में मैंने मैथिली कोकिल विद्यापति के लिए श्रद्धांजलि गीत रिकॉर्ड किया था। ये एक तरह का क्लासिकल लोकगीत था, ये तारा चंद्र बड़जात्या जी को सुनना बहुत पसंद था। जब उन्हें पता चला कि मैं मुंबई में हूं तो उन्होंने मुझे मिलने के लिए बुलाया। उन्होंने मुझे एक चिट्‌ठी भी लिखी थी, ‘आपका कैसेट सुनते-सुनते घिस चुका है और वो नहीं मिल रहा है, मुझे बताएं कि वो कहां से लेना है।’
मुंबई आने पर मैं उनसे मिली तो उन्होंने मुझे मेरे गानों के लिए बधाई दी और उन्होंने मुझे ‘मैंने प्यार किया’ का फेमस गाना ‘कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनिया’ गाने का ऑफर दिया। उस फिल्म के अधिकतर गाने लता जी ने गाए थे। उस फिल्म में मेरा भी एक गाना होना सौभाग्य की ही बात थी। इस गाने के बाद बॉलीवुड के लिए मैंने दूसरे कई गाने गाए। ‘बाबुल जो तुमने सिखाया’, ‘तार बिजली से पतले हमारे पिया’ कुछ ऐसे गाने हैं, जो लोगों ने बहुत पसंद किए। हाल ही में, मैंने ‘महारानी-2’ वेब सीरीज के लिए ‘निरमोहिया’ गाया है। बॉलीवुड से मेरा कुछ ऐसा रिश्ता है कि उन्हें जब भी लगता है कि किसी गाने को मेरी आवाज की जरूरत है, वहां से मुझे बुलावा आ जाता है।
1978 में बेटी वंदना और 1983 में बेटे अंशुमान के जन्म के बाद मुझे बच्चों के साथ रिकॉर्डिंग और संगीत मैनेज करने में मुश्किल तो हुई। लेकिन, धीरे-धीरे मैंने बच्चों को भी संगीत की आदत डाल दी। क्योंकि मैं रोजाना रियाज करती थी इसलिए बच्चे भी छोटी उम्र में घर के महौल में ढल गए। उन्हें भी मेरे सुर ताल की आदत हो गई, कई बार रियाज इतना लंबा चलता था कि दोनों तबला-हार्मोनियम की आवाज के बीच वहीं सो जाते थे। कई बार जब मुझे रिकॉर्डिंग के लिए बाहर जाना होता था तो मैं अक्सर बच्चों को अपनी मां के पास छोड़कर जाती थी। ये भी एक वजह रही कि मेरे बच्चे शुरुआत से ही लोकगीतों और ग्रामीण परिवेश से जुड़े जितनी की मैं जुड़ी थी। मेरे बच्चों ने मेरे संगीत के इस सफर में मेरा बहुत साथ दिया। उनकी वजह से मैं कभी परेशान नहीं हुई। ये एक वजह रही कि संगीत से मेरा फोकस कभी नहीं हिला। वो चाहते तो अपनी इच्छा के अनुसार आगे बढ़ सकते थे। उनके पास कई संभावनाएं थी। मगर उन्होंने मुझे चुना और सच कहूं तो मुझे भी उनकी जरूरत थी। संगीत के कारण लोगों का प्यार और मेरे बच्चे मेरी जीवन की सबसे बड़ी कमाई है।
एमए करने के बाद मैंने वीमेन कॉलेज समस्तीपुर में प्रोफेसर के तौर पर जॉइन किया। हालांकि, गायिकी में कामयाबी के बाद भी मैंने पढ़ाना नहीं छोड़ा। मैं रेगुलर क्लासेज लेती रही। 5 साल पहले ही मैं रिटायर हुई हूं। 1974 में पहली बार भोजपुरी गीत गाना शुरू किया। भोजपुरी के फेमस सिंगर भिखारी ठाकुर जी और महेंद्र मिश्र के लिखे हुए कई गीतों में मैंने गाया। 1979 में मैंने ‘जगदम्बा घर में दियरा बार अइनी हो’ रिकॉर्ड किया था, जिसके लिए मुझे एचएमवी से ‘आर्टिस्ट ऑफ द ईयर’ का अवॉर्ड मिला था। उस दौर में लोगों के मन में भोजपुरी के लिए बहुत सम्मान था, जो अब कहीं खोता जा रहा है। लोग अब भोजपुरी सुनकर उसको अश्लीलता से जोड़ने लगते हैं। इसमें लोगों से ज्यादा उन लोगों की गलती है, जिन्होंने भोजपुरी को उस तरह पेश किया और कहने लगे कि लोग सुनना पसंद करते हैं तभी तो हम गाते हैं। जबकि ऐसा नहीं है पहले भी विरह गीत, निरगुन के जरिए प्रेम को दर्शाया जाता है।
मगर अब क्योंकि गानों को सुने जाने से ज्यादा देखा जाने लगा है, इसलिए उसमें अश्लीलता का प्रदर्शन किया जा रहा है। लोगों को समझना होगा कि इससे हम अपनी ही संस्कृति बिगाड़ रहे हैं। मेरा अबतक का करियर लगभग 53 सालों का रहा है। इस दौरान मुझे लगभग हर पार्टी से पॉलिटिक्स ज्वाइन करने का ऑफर आ चुका है। मगर मैंने आजतक किसी को हां इसलिए नहीं कहा क्योंकि पॉलिटिक्स मेरी लिस्ट में कभी नहीं था और मैं संगीत पर से अपना ध्यान भटकाना नहीं चाहती थी। हालांकि, मुझे संगीत और कला को बढ़ावा देने के क्षेत्र में जब भी काम करने का अवसर मिलता है तो मैं उसके लिए जरूर काम करती हूं और आगे भी करती रहूंगी। मैं आज भी लगातार काम कर रही हूं। मेरी कोशिश होती है कि लोगों के बीच बनी रहूं। छठ से मेरा विशेष लगाव है इसलिए हर साल इस पावन पर्व के मौके पर मैं एक नई कहानी और गीत के साथ लोगों के बीच आती हूं।
जब कई सालों बाद 2018 में ‘पहीले पहीले हम कईनी छठी मैया वरत तोहार’ रिलीज हुआ तो लोगों ने इस गीत को उसी तरह पसंद किया जैसे कि मेरे पहले गीत को किया था। उसके बाद ‘सुपवा ना मिले माई है’, ‘अइसन बिपतिया आएल’, ‘छठी माई की महिमा’ जैसे गीतों के जरिए लोगों का प्यार मिलता रहा। इस साल ‘छठ के बरतिया’ गीत के साथ मां के बाद बेटे की छठ व्रत करने की कहानी दिखाने की कोशिश की है। हर बार की तरह बहुत अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है। लोग मुझे टैग कर के बधाई दे रहे हैं। मेरी तो अब बस यहीं कोशिश है कि जब तक रहूं छठ के गीत गाती रहूं, ताकि लोगों से मिले सम्मान को अपने गीतों में समेट कर उन्हें कुछ लौटा पाऊं।

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