चार्वाक युग आ चुका है. आप जिसे राम राज्य लाने वाला समझ रहे थे, उसने चार्वाक राज ला दिया है. लोग लोन लेकर सोनपापड़ी खरीद रहे हैं, लेकिन अखबार लिख रहा है परचेजिंग पावर बढ़ गई है. मतलब भुखमरी के हालात हैं लेकिन अखबार को दिख रहा है, लोग डाइटिंग पर हैं. इसी को कहते
चार्वाक युग आ चुका है. आप जिसे राम राज्य लाने वाला समझ रहे थे, उसने चार्वाक राज ला दिया है. लोग लोन लेकर सोनपापड़ी खरीद रहे हैं, लेकिन अखबार लिख रहा है परचेजिंग पावर बढ़ गई है. मतलब भुखमरी के हालात हैं लेकिन अखबार को दिख रहा है, लोग डाइटिंग पर हैं. इसी को कहते हैं पॉजिटिव जर्नलिज्म. त्यौहारों पर मजबूरी होती है, लोग मजबूरी में लोन लेने लगते हैं. इनमें से जरूर कुछ लोन ना चुका पाने के कारण आत्महत्या भी कर लेते हैं, लेकिन अखबार रिपोर्ट करेगा- लोगों में बढ़ रही है दुखी जीवन को पीछे छोड़ने की प्रवृत्ति. कंगाली को कलेवर के साथ रिपोर्ट करने का ये हुनर अद्भुत है. ऐसा लग रहा है राम राज लाने का वादा था लेकिन चार्वाक युग आ गया है. चार्वाक कहते थे, “यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत” अर्थात लोन लेकर घी पी लो, कल किसने देखा है, इस जीवन के बाद कुछ नहीं.
त्योहारों पर गाहे बगाहे विचित्र इनोवेशन देखने को मिलते हैं. आम तौर पर पाठकों की शिकायत होती है कि उनके लिए इसमें सिवाय विज्ञापनों के कुछ नहीं होता. असल में पाठक विज्ञापन देखने के लिए अख़बार का मूल्य चुकाता है. हिंदी दैनिक ‘प्रजातंत्र’ की हमेशा से कोशिश रही है कि वह पाठकों के साथ खड़ा रहे. कभी इनोवेशन से, कभी ले-आउट से तो कभी अपनी बेहद जुदा हेडलाइन से. पिछले त्योहार के लिए भी ‘प्रजातंत्र’ की टीम कुछ ऐसा सोच रही थी, जो पूरी दुनिया में इससे पहले किसी अख़बार ने कभी नहीं किया हो। साथ ही, विज्ञापनों की भरमार के बीच पाठकों को कुछ तो ऐसा मिले, जो नया, उपयोगी और इनोवेटिव हो.
लिहाज़ा, अख़बार के साथ एक लाया गया एक ऐसा दीया (दीपक) जिसे सिर्फ़ दो बूँद पानी डालकर 24 घंटे तक जलाए रखा जा सके. दीये से पानी सूखा देने पर दीया रोशनी देना बंद कर देगा. यह कैसे होगा इसका वीडियो जारी कर दिया. दीपक बुड़ाना के नेतृत्व में टीम प्रजातंत्र ने इसे लोगों तक पहुँचाया. फ़िलहाल यह प्रयोग सिर्फ़ इंदौर शहर तक सीमित रखा गया. इस इंटरनेशनल इनोवेशन को लोगों तक पहुँचाने में गोधा एस्टेट का सहयोग मिला. उनके बिना इस इनोवेशन को लोगों तक पहुँचा पाना सम्भव नहीं था.
प्रिंट मीडिया का एक सच और. कई बार हिंदी अखबारों के संपादक गिरहकट लगते हैं. 800 करोड़, 1500 करोड़ और 40 हज़ार करोड़ में उनको कोई अंतर नहीं लगता है. जिसको जो मन मे आये लिख दो. फैक्ट के दुश्मन. सुप्रिया पहले पत्रकार थीं. अंग्रेज़ी की पत्रकार. आजकल कांग्रेस की दबंग प्रवक्ता हैं. अपने गुजरात दौरे के दौरान एक सुबह उन्होंने टाइम्स आफ इंडिया अख़बार को पलटा और फिर मोदी भक्ति में डूबे इस पेपर की जमकर खबर ले ली.
अब एक ताज़ा वाकया. अमर उजाला अखबार में गुजरात में हुई घटना की कवरेज की धत्करनी. वैसे तो खबर के साथ टाइटल भी एक रिपोर्टर ही लिख देता है लेकिन विशेष खबरों या विशेष स्थिति में टाइटल डेस्क पर संपादक या डेस्क इंचार्ज के द्वारा संशोधित कर दिया जाता है. पहले शीर्षक पढ़िए. झूलते पुल पर पांच गुना भीड़ —-पुल झूल रहा था, और प्रशासन ने फिर भी उस पुल को हादसे के लिए खोल रखा था. सेल्फी लेने की होड़ में टूटा पुल — वाह क्या जांच कर डाली, पुल में कोई कमी नहीं, निर्माण सामग्री में कोई कमी नहीं, डिजाइन में कोई कमी नहीं, पुल बनाने वाले इंजीनियर की कोई कमी नहीं, गुणवत्ता में कोई कमी नहीं, बस कमी सेल्फी लेने के चलते हुई. पुल पर 500 लोग थे —– जैसे वहां जाकर इन्होंने गिने थे या किसी प्रत्यक्षदर्शी ने गिनकर इन्हें बताए थे. ऐसी जगह हर पत्रकार लगभग 500 का इस्तेमाल करता. अगर क्षमता 100 लोगों की थी तो 500 लोगों को क्यों जाने दिया, प्रशासन की क्या व्यवस्था थी वहां.
दीवाली से 2 दिन पहले ही 2 करोड़ की लागत से हुई थी मरम्मत —- बजट मरम्मत के लिए दिया था सरकार ने या कुछ लोगों को दिवाली का गिफ्ट. 2 करोड़ लगाकर भी पुल न बचा पाए. बस इतना कहना है कि ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर जहां जनता की जान गई हो, कम से कम सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत तो करिए. शासन प्रशासन के जांच परख पर सवाल तो खड़े करिए. इस घटना के गुनहगार दोषी अधिकारियों को सामने तो लाइए. ये क्या बात हुई कि पुल जनता ने तोड़ दिया, जनता की ही गलती है उसने पुल पर सेल्फी क्यों ली. मीडिया के साथियों के लिए चिंतन और मनन का समय है. कम से कम जनहित में लिखने का साहस कीजिए. ऐसे पत्रकारों को बुरा लग सकता है जो आज केवल स्वार्थ , चाटुकारिता, लालच और पक्षपात की पत्रकारिता कर रहें हैं. अमर उजाला जैसे अखबारों को निष्पक्ष माना जाता है, पत्रकारिता के सरोकार के लिए जाना जाता है. जब ये भी वही सब करने लगेगा तो सारे अखबार एक जैसे हो जाएंगे. अमर उजाला प्रबंधन के लिए भी चिंतन मनन का समय है.
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