खेती की ज़मीनों में प्लास्टिक की भारी मात्रा से उर्वरता को ख़तरा

खेती की ज़मीनों में प्लास्टिक की भारी मात्रा से उर्वरता को ख़तरा

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य-कृषि संगठन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि खेती-बाड़ी की ज़मीनों में, प्लास्टिक प्रदूषण की मौजूदगी सर्वव्यापी हो गई है, जिसके कारण खाद्य सुरक्षा, जन स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये जोखिम उत्पन्न हो रहा है. समुद्रों व उनके किनारों पर प्लास्टिक कूड़े-कचरे की मौजूदगी तो सुर्ख़ियाँ बटोरती है मगर हम

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य-कृषि संगठन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि खेती-बाड़ी की ज़मीनों में, प्लास्टिक प्रदूषण की मौजूदगी सर्वव्यापी हो गई है, जिसके कारण खाद्य सुरक्षा, जन स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये जोखिम उत्पन्न हो रहा है. समुद्रों व उनके किनारों पर प्लास्टिक कूड़े-कचरे की मौजूदगी तो सुर्ख़ियाँ बटोरती है मगर हम जिस ज़मीन का इस्तेमाल, भोजन उत्पाद उगाने के लिये करते हैं, वो कहीं ज़्यादा बड़ी मात्रा में प्लास्टिक की मौजूदगी से प्रदूषित हो चुकी है. कृषि सम्बन्धित प्लास्टिक कचरा, सबसे पहले मिट्टी में ही पहुँचता है और समझा जाता है कि प्लास्टिक के बारीक कण, समुद्रों की तुलना में, कृषि मिट्टी में कहीं ज़्यादा समाए हुए हैं.
यूएन खाद्य व कृषि संगठन द्वारा एकत्र किये गए आँकड़ों के अनुसार, कृषि मूल्य श्रृंखला में हर साल लगभग एक करोड़ 25 लाख टन प्लास्टिक उत्पादों का इस्तेमाल किया जाता है जबकि अन्य तीन करोड़ 73 लाख टन प्लास्टिक का प्रयोग, भोजन उत्पादों के भण्डारण और पैकेजिंग में होता है. फ़सल उत्पादन और मवेशियों के रखरखाव में एक करोड़ 2 लाख टन, और उसके बाद मछली पालन व समुद्री भोजन सम्बन्धी गतिविधियों में 21 लाख टन प्लास्टिक का प्रयोग होता है. जंगलों और वन सम्बन्धित गतिविधियों में दो लाख टन प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है.
कृषि सम्बन्धी गतिविधियों में प्लास्टिक का सबसे ज़्यादा प्रयोग एशिया क्षेत्र में होता है जोकि कुल वैश्विक प्रयोग का लगभग आधा है. उससे भी ज़्यादा अहम बात ये है कि कोई टिकाऊ विकल्प ना होने की वजह से, कृषि में प्लास्टिक प्रयोग, घटने के बजाय, बढ़ने वाला ही है. 1950 के दशक में प्लास्टिक का प्रयोग शुरू होने के बाद से, उसका इस्तेमाल और मौजूदगी बढ़ती ही गई है और ये प्लास्टिक हर जगह नज़र आता है. खेतीबाड़ी में प्लास्टिक औज़ार व उपकरण, उत्पादकता बढ़ाने में बहुत मदद भी करते हैं. जैसेकि खरपतवार से बचाने के लिये मिट्टी को प्लास्टिक की चादरों से ढकना, पौधों के संरक्षण व उनकी बढ़त के लिये जाल प्रयोग, फ़सल मौसम की अवधि बढ़ाने और उपज बढ़ाने के लिये.
इनमें पेड़ों के इर्द-गिर्द सुरक्षा मज़बूत करने के लिये प्लास्टिक जाल लगाना भी शामिल है जो पशुओं से बचाने में मदद करते हैं. वर्ष 2015 तक, लगभग छह अरब 30 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ, उसमें से लगभग 80 प्रतिशत प्लास्टिक का निपटान सही तरीक़े से नहीं हुआ है. माइक्रोप्लास्टिक्स यानि 5 मिलिमीटर आकार के लघु व सूक्ष्म कण, मानव मल और नाड़ियों में पाए गए हैं, साथ ही गर्भवती माताओं से उनके भ्रूणों में भी स्थानान्तरित हुए हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि प्लास्टिक प्रदूषण पर ज़्यादातर वैज्ञानिक शोध, समुद्री पारिस्थितिकी पर केन्द्रित रहे हैं, जबकि ऐसा समझा जाता है कि कृषि मिट्टी में, माइक्रोप्लाटिक के लघु कण कहीं ज़्यादा बड़ी मात्रा में समाए हुए हैं.
यूएन एजेंसी के अनुसार, चूँकि दुनिया भर में कृषि सम्बन्धी 93 प्रतिशत गतिविधियाँ ज़मीन पर होती हैं, इसलिये इस क्षेत्र में और ज़्यादा जाँच-पड़ताल की आवश्यकता है. टिकाऊ विकल्पों के अभाव में, प्लास्टिक के प्रयोग को पूरी तरह बन्द करना असम्भव है – और प्लास्टिक प्रयोग से होने वाले नुक़सान को ख़त्म करने के लिये, कोई जादुई तरीक़ा भी मौजूद नहीं है. रिपोर्ट में, कृषि आधारित तमाम भोजन श्रृंखलाओं में, प्लास्टिक प्रयोग के लिये, व्यापक स्वैच्छिक आचार संहिता बनाने की सिफ़ारिश भी की गई है. साथ ही, विशेष रूप में प्लास्टिक के माइक्रो व अति माइक्रो यानि सूक्ष्म कणों के स्वास्थ्य प्रभावों के बारे में और ज़्यादा शोध की सिफ़ारिश भी की गई है. यूएन कृषि सम्बन्धी गतिविधियों में प्रयोग से होने वाले प्लास्टिक के मुद्दे पर कारगर भूमिका निभाता रहेगा, जिसमें खाद्य सुरक्षा, पोषण, जैव-विविधता और टिकाऊ खेती-बाड़ी के पहलू शामिल हैं.

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