समय से कई जरूरी सवाल और जिरह करतीं 5 किताबें

समय से कई जरूरी सवाल और जिरह करतीं 5 किताबें

तीन दशक तक हिंदी पत्रकारिता, साहित्य-सृजन के साथ ही श्रमिक आंदोलनों में भी समान रूप से सक्रिय रहे जयप्रकाश त्रिपाठी के कविता-संग्रह ‘ईश्वर तुम नहीं हो’, ‘तुक-बेतुक’, ‘जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं’ एवं पत्रकारिता पर ‘मीडिया हूं मैं’ (‘बाबू विष्णुराव पराड़कर पुरस्कार’ से सम्मानित) और ‘क्लास रिपोर्टर’ के बाद, हाल ही में पांच

तीन दशक तक हिंदी पत्रकारिता, साहित्य-सृजन के साथ ही श्रमिक आंदोलनों में भी समान रूप से सक्रिय रहे जयप्रकाश त्रिपाठी के कविता-संग्रह ‘ईश्वर तुम नहीं हो’, ‘तुक-बेतुक’, ‘जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं’ एवं पत्रकारिता पर ‘मीडिया हूं मैं’ (‘बाबू विष्णुराव पराड़कर पुरस्कार’ से सम्मानित) और ‘क्लास रिपोर्टर’ के बाद, हाल ही में पांच और पुस्तकें आई हैं- ‘मन का अंतरिक्ष’ (कविता संग्रह) एवं पत्रकारिता पर ‘ख़बर फ़रोश’, ‘गोदी गांव’, ‘शब्द-शब्द परमाणु’ और ‘संवाददाता’। प्रस्तुत हैं सद्यःप्रकाशित इन पुस्तकों पर एक नज़र-


‘मन का अंतरिक्ष’ : मन अंतरिक्ष जैसा हो, याकि कभी न हो, किसको पता, कैसा है ‘मन का अंतरिक्ष’। मन की गति भी अंतरिक्ष की तरह, अगम-अथाह, जो समय की आंखों में ऊब-डूब सी झांकने लगे। मन के साथ, दो शब्द और, वचन और कर्म। मन वैदिक, मन पौराणिक। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के शब्दों में ‘आँख डालकर देखिए, मिलते अल्प विभेद हैं। सकल धर्म सिद्धांत के अवलम्बन ये वेद हैं। आनंदपूर्ण जीवन ही वैदिक काव्य का रस है तो वाक् से चार्वाक, पंच से प्रपंच तक जाप-शुद्धि, षट्कर्म? वैदिक वाङ्मय का बड़ा विचित्र मनोविज्ञान है! अचानक ‘मन का अंतरिक्ष’ भक्तिकाल से आलोकित हो उठता है। सूरदास को मन की ‘अबिगत-गति कछु कहत न आवै, मन-बच-कर्म अगाध, अगोचर, केहि बिधि बुधि सँचरै’। राम चरित का मानस भी कुछ उसी रंग में, बाबा तुलसीदास कहते हैं- ‘ऐसी मूढ़ता या मन की, धूम-समूह निरखि चातक ज्यों, तृषित जानि मति घन की।’ तभी लिए लुकाठा हाथ वाक्धनुर्धर कबीर के झन्नाटेदार शब्द मन के अंतरिक्ष में बरसने लगते हैं- ‘माया मरी न मन मरा मरि-मरि गए शरीर।’ वह प्रश्न करते हैं, जब मन का मैल नहीं छूटना तो फिर नहाने-धोने से क्या होता है- ‘मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय’, सच बात है कि ‘तन को जोगी सब करै मन को करै न कोय, सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय।’
कालांतर में छायावादित ‘मन का अंतरिक्ष’ नए तरह के कोलाहल से उचक जाता है। नीर भरी बदली की रिमझिम में महादेवी के स्वप्न फिर भी खंडित नहीं होते हैं। निराला भक्तिकाल की ओर कनखिया किंचित झांकते हुए, किंतु उर्ध्वमुखी चेतना के साथ काम, क्रोध, मद, लोभ दम्भ से जीवन का एकान्त चाहने लगते हैं- ‘विहग-विहग नव गगन हिला दे, गान खुले-कण्ठ-स्वर गा दे, नभ-नभ कानन-कानन छा दे, ऐसे तुम निष्क्रान्त करो हे..मानव का मन शांत करो हे।’ हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में अंतरनिहित छायावादोत्तर ‘मन का अंतरिक्ष’ एकदम भिन्न नवोन्मेष के साथ काव्य-‘आंदोलन’ की आहट पर नाक-भौंह नचाने लगता है। स्वतंत्र देश में लोकतंत्र की पीठ पर तना मचान, जन-गण की अथाह भीड़ में धक्का-मुक्की, और उसी रौ में हिंदी साहित्य का अंतरिक्ष भी एक और करवट लेता है। मेरे ‘मन का अंतरिक्ष’ यहां से बांचता है शब्द-समय को, आगे दस्तक देता है पत्रकारिता, फिर सूचना प्रौद्योगिकी का युग, कविता होते हुए भी नहीं होती हुई सी रह जाती है। महाकाव्यात्मक नए-नए क्षेत्र आते हैं, ‘प्रीत के गीत’ को समय सोख लेता है। विमर्शों के ये ताज़ा झोंके खुश, अचंभित, समृद्ध करते हैं, अप्रकट कंगाली के गीत गाते हुए। जनतंत्र, लोकतंत्र जो भी कहें, क्रमशः अनवरत धूसर और छिन्न-भिन्न सा होता जाता है। पिछली दो सदियों के विकास का समय पीछे लौटता सा दिखता है, जन-गण-मन के कंप्यूटरीकृत अंतरिक्ष में गांधी होते हैं, किंतु भगत सिंह की तरह निर्मल और अजेय नहीं, क्योंकि अपनों के साथ अब तक एक और स्वतंत्रता संग्राम लक्ष्य पर फैल जाता है। मन के अंतरिक्ष में एक और स्वातंत्र्य-स्वर।
मन का अंतरिक्ष कितना शांतचित्त भला-चंगा साहित्यिक शब्दावलियों में ज्वार-भाटा हो रहा था कि ये क्या, मनुष्यता की, स्वतंत्रता की बात आते ही, और सब उधर-इधर का ‘भकुआने’ लगता है। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद के दशकों में चखा गया धूमिल और पाश के लोहे का स्वाद रीतिकालीन-छायावादी मन का जायका कसैला कर देता है किसी ‘बर्बर प्रेम’ की तरह, क्योंकि नामवर सिंह लिख गए हैं ‘बीच का रास्ता नहीं होता’। नामवर के साथ एक पूरा युग आलोकित हो उठता है मन के अंतरिक्ष में, स्वतंत्रता आंदोलन के बाद के दशकों से गुजरते हुए। फिर एक और स्वतंत्रता आंदोलन का प्रश्न घेर लेता है पाश को, शहीदेआज़म का स्वतंत्रता आंदोलन – ‘भगत सिंह ने पहली बार पंजाब को जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से बुद्धिवाद की ओर मोड़ा था।’ ‘मन का अंतरिक्ष’ पूछता है, हम आगे चल रहे हैं क्या? कहां, किस मोड़ पर ठिठके खड़े हैं? काव्य-वैदिकी से अब तक, अनुभूति से यथार्थ तक का भारतीय कविता-साहित्य ऐतिहासिक संदर्भों और आधुनिक-समकालीन उद्धरणों में चाहे जितने परिवर्तनों, भाव-पराभवों से लौटते, उर्द्धमुखी होते हुए यहां तक आ पहुंचा हो, सब में एक शब्द स्थिर-अमिट और सार्वकालिक है – ‘मनुष्य’। और उसके ही साथ ‘मन का अंतरिक्ष’।


‘गोदी गांव’ : इस ‘गोदी गांव’ में जन-गण-मन के गुस्से की तफ़सील है। गुस्सा किसी एक-अकेले का नहीं, इसमें कई एक नामचीनों से गुजरना होता है। ये गांव साझे का है। प्रतिप्रश्न कि ‘ये कौन सा गांव है जी!’ पूरा देश जानता है। जानता क्या, वर्षों से भोग रहा है। हर किसी को अपना गांव औरों के गांव से ज्यादा प्यारा-न्यारा लगता है। लगे भी क्यों नहीं। इस गांव में कभी मेरे ‘होने’ का हलफनामा होता था। मेरे होने का हलफनामा मेरे अतीत, मेरे शब्दों का सूचनात्मक साक्ष्य और उन दुख-दर्दों का जीवंत सफरनामा भी, जिन्हें भुला देने, ओझल कर देने के लिए कारपोरेट चेहरा ओढ़ चुका ‘चौथाधंधा’ और उसके शीर्ष चाटुकार अभिशप्त रहे। मैं अपने समय और अपने जैसे शब्दों, विचारों का गायक हूं, बाजार और उसके शब्द-शिकारियों का नहीं। जॉन पिल्जर कहता था- मुझे पत्रकारिता, प्रोपेगंडा, चुप्पी और उस चुप्पी को तोड़ने के बारे में बात करनी चाहिए। पाश ने भी तो कहा- हम लड़ेंगे साथी, चुनेंगे जिन्दगी के टुकड़े, प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर, दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है, लड़ते हुए जो मर गए, उनकी याद जिन्दा रखने के लिए हम लड़ेंगे। वह ‘अन्धा युग’ था, नेपथ्य से ही सही, अपने-अपने शब्दों में बार-बार पत्रकारिता के श्वेतपत्र जारी करते हुए पुरखों ने कहा था- पत्रकारिता को मैं रणभूमि से बड़ा समझता हूं। ये पेशा नहीं, उससे ऊंचा है।
ये सब इसी गांव की, लेकिन उस वक़्त की बातें हैं; जब ‘वह’ गांव ग्लोबल नहीं हुआ था याकि ग्लोबल होना शुरू ही हुआ था, वही कोई उन्नीस सौ अस्सी-नब्बे के दशक में, और उससे सुदूर बहुत-बहुत पहले, कई दशकों पहले। बताया न, कि तब यह गांव आज जैसा नहीं था। तब इस गांव में हुआ करते थे राजेंद्र माथुर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कमलेश्वर, रामविलास शर्मा, रघुवीर सहाय, मोहन राकेश, मनोहर श्याम जोशी, अक्षय कुमार जैन, शरद जोशी, प्रभाष जोशी, और भी जाने कितने-कितने स्वनामधन्य। और उससे पहले के स्वातंत्र्य-योद्धा महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामवृक्ष बेनीपुरी, बनारसी दास चतुर्वेदी, बारींद्रनाथ घोष, लोकमान्य तिलक, सखाराम गणेश देउस्कर, मदनमोहन मालवीय, रामरख सिंह सहगल, दुलारे लाल भार्गव, लक्ष्मण नारायण गर्दे, श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, काका कालेलकर, शिवपूजन सहाय की तरह अगणित। कह सकते हैं, ‘चौथा खंबा’ था पत्रकारिता की नई, अधुनातन संभावनाओं वाला, तब की नई पीढ़ी के लिए। आज के ‘चौथा धंधा’ जैसा नहीं, कमीनपन में गुमनामी ओढ़ने को विवश कर दिया गया बाजारू-बेशर्म-कफ़नफ़रोश! गांवों को भी कहीं का नहीं छोड़ा है भोगी-भ्रष्ट, आत्महारा आखेटकों ने। जबतक काजल का घर है, तबतक ही दर्पण का डर है।
‘गोदी गांव’ एक शब्द-प्रतीकभर है अक्षरों का। ‘गोदी’ को क्या कहना-बताना। गांव हमारे देश के, हमारी मिट्टी, हमारे वीर किसानों के, जो लगातार तेरह महीने तक दिल्ली की सरहदों पर लड़ते रहे, लौटे तो जीतकर। तब तक उन्हें क्या-क्या नहीं कहा गया- मवाली, खालिस्तानी, देशद्रोही, चीन-पाकिस्तानपरस्त, धनी जाट-सिख कुलक। आख़िरकार, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया को भी एक दिन मीडिया की ऐसी बेशर्म ढिटाई पर आपत्ति व्यक्त करनी पड़ी। नेताओं, अभिनेताओं, खिलाड़ियों के पीछे भाग रहे ‘गोदी गांव’ में भी आधुनिकता की सबसे ज्यादा कीमत गांव ही चुका रहे हैं। खेती की लागत, कर्ज, घर-परिवार के बोझ, जलवायु के खतरों, कारपोरेटपरस्त कृषि नीतियों, बाजार की गिद्ध-दृष्टि से बचकर किसान जाए तो जाए कहां। संघर्ष करते-करते टूट जाता है। थक-हारकर खुदकुशी कर लेता है। देश में प्रतिदिन ऐसी 28 से अधिक आत्महत्याएं। वही बात की, गोद में मीडिया, गांवभर ढिंढोरा। ऐसे समय में, शहर-गांव के दो खांचों में फिट हो चुकी मीडिया बनाम पत्रकारिता को केंद्र में रह कर यह पुस्तक आपको और भी कई तरह के आईनों से रू-ब-रू कराती है। तो आइए, इस पुस्तक के बहाने एक बार नए ठिकानों तक घूम-टहल आते हैं। ‘गोदी गांव’ हो ही आते हैं, कौन जाने, किस भेष में कौन-कौन मिल जायं, लोर्का की इन पंक्तियों के साथ, तो पता चल जाएगा आप को भी कि ये कौन सा गांव है जी- ‘गर मैं मरूं, खिड़की खुली छोड़ देना, छोटा बच्चा संतरे खा रहा है (अपनी खिड़की से मैं उसे देख सकता हूँ), किसान गेंहूँ की फसल काट रहा है (अपनी खिड़की से मैं उसे सुन सकता हूँ), गर मैं मरूं, खिड़की खुली छोड़ देना!’


‘ख़बर फ़रोश’ : अपने सामाजिक सरोकारों के नाते 1980 के दशक में मैं पत्रकारिता के कार्यक्षेत्र में ‘लिखने’ के लिए आया था, खबरें ‘बिकवाने’ के लिए नहीं। शब्द मेरी संपदा थे, और पाठक मेरा पहला सरोकार। लेकिन नब्बे का दशक आते-आते पूरी तरह इस पेशे से मोहभंग हो चला। मिशन के मायने लुप्त होने लगे। स्वंत्रता संग्राम में तपी-निखरी लौह-पुरखों की संतानें पत्रकारिता को धंधा बना देने पर आमादा हो गईं। कारपोरेट मीडिया की शक्ल में पत्रकारिता पूरी तरह हांक कर बाजार के बंजर में रोपी जा चुकी थी। सब कुछ तेजी से ढह रहा था और हम अंदर ही अंदर बिखर रहे थे, न टूटने के जटिल संकल्प के साथ। बाजारवादी मीडिया चिंतकों के अपने अलग कुतर्क और पूर्वग्रह थे और हमारी चिंताएं उनके विपरीत। जन-मीडिया चिंतकों की इच्छा और आवश्यकताओं के विरुद्ध राज्य की मंशा से पूंजी और राजनीति की सरपरस्ती में कोरपोरेट मीडिया को दैत्याकार होना ही था। तो आज पूरा परिदृश्य देश-दुनिया के सामने है। उसी परिदृश्य की साक्षी है पुस्तक ‘ख़बर फ़रोश’।
वर्ष 2014 में मीडिया पर केंद्रित अपनी पहली पुस्तक – ‘मीडिया हूं मैं’ में पत्रकारिता के इस अपंग कालखंड को सविस्तार रेखांकित करने का प्रयास किया था। जरूरी होने के बावजूद अन्य विषयों के समायोजन से विस्तृत आकार ले चुकी उस पुस्तक में मीडिया की खबर फरोशी पर अपेक्षित प्रकाश नहीं डाला जा सका था। तभी से मन था कि वक्त मिलने पर इस विषय पर फिर कभी। मीडिया पर केंद्रित दूसरी पुस्तक रही- ‘क्लास रिपोर्टर’, जो युवा पत्रकारों एवं छात्रों की शैक्षिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए लिखी गई।
वर्ष 1980-90 के दशक से धन-मीडिया का चेहरा पूरी तरह विकृत होने लगा था। उस अंधे वेग ने पत्रकार समुदाय के भी एक सुविधाजीवी बड़े हिस्से को कारपोरेट मीडिया का चरणागत बनाते हुए अपने पाले में खींच लिया। आज विज्ञापन बाजार हथियाने की मीडिया संस्थानों की आपसी गलाकाटू होड़ में हालात बद से बदतर हैं। अंधेरा इतना घना है कि एक हाथ को दूसरा नहीं सूझ रहा है। इस बीच विश्व मीडिया का भी हस्तक्षेप बढ़ने के साथ ही गिने-चुने सरमायेदार हाथों में मीडिया नियंत्रण संक्रेदित होते जाना भी भारतीय पत्रकारिता के भविष्य की भयावता को साफ-साफ परिलक्षित करता है। अब देश के ईमानदार, वरिष्ठ पत्रकारों की ओर से भी बेलगाम धन-मीडिया की करनी-धरनी पर खुले विरोध जताए जाने लगे हैं लेकिन प्रश्न उठता है कि दैत्य काबू में कैसे आए। प्रिंट मीडिया तो भी कुछ लोक-लाज का निर्वाह जाने-अनजाने कर ले रहा, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो खबरों की दुनिया को सब्जी मंडी में तब्दील कर दिया है।
ऐसे में ले-देकर मझोले-छोटे सूचना-माध्यम ही भरोसे के लगते हैं लेकिन उनमें भी अधिकांश का जन्म पैसा कमाने के लिए होता है, न कि मिशनरी पत्रकारिता उनकी चिंताओं में होती है। इसके बाद, सोशल मीडिया, साहित्यकारों और उन संगठनों से एक उम्मीद बचती है, जो सामाजिक मंचों और सूचना माध्यमों के स्तर पर ‘सिर्फ और सिर्फ’ जनता के हित के लिए सक्रिय हैं। साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग अपनी ‘छपास’ विह्वलता में कारपोरेट मीडिया के सामने घुग्घू बना रहता है। अपनी सूचनाएं प्रकाशित-प्रसारित होने से कहीं रह न जाएं, इस डर से सामाजिक संगठनों के भी बड़े धड़े की भूमिका कमोबेश वही नजर आती है, जैसी समूचे कारपोरेट मीडिया परिवार की। इसके साथ ही एक सवाल और, मीडिया और साहित्य में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक सरोकार की दृष्टि से साहित्य और पत्रकारिता, दोनों तपोवन क्षेत्र हैं। दोनों के अपने-अपने साधना-परिसर हैं। और कोई जाने, न जाने, साधना से चूके रचनाकार, पत्रकार का मन स्वयं स्वीकार लेता है कि अपनी कर्म-साधना में वह कितना कम साधक, कितना अवास्तविक है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न सर्व प्रथम इसी सत्य से टकराता है। जार्ज बर्नार्ड शॉ कहता है, ‘विकास की पहली शर्त अभिव्यक्ति की आज़ादी है।’ इन्हीं सब स्थितियों पर सविस्तार प्रकाश डालती है पुस्तक ‘ख़बर फ़रोश’। यह पुस्तक पत्रकारिता की समकालीन चिंताओं से कितना कितना रू-ब-रू करा पाती है, समाधान की दिशा में उठ रहे सवालों से कितना आश्वस्त कर पाती है, इसे पाठकों तक पहुंचने के बाद ही जाना जा सकेगा क्योंकि शब्द-विश्व में पाठक ही सबसे बड़ा न्यायाधीश है।
‘शब्द-शब्द परमाणु’ : युद्ध, विश्वयुद्ध से भुखमरी तक हमने समय को जितने रंगों में धुंआ-धुंआ, आदमी को ठठरियां होते देखा, जाना, भोगा है, लकड़बग्घों की हंसी में सब दफ्न होता गया है जैसे, इतिहास की ओर से भी। जब दफ्न ही होना है तो लिखा जाना भी आख़िर क्यों! क्योंकि आगे का वक़्त ये झुठला न सके कि कोई सनद नहीं, गवाही नहीं। युद्धों से, भुखमरी से, महामारियों से मौत के साथ, कुछ और भी मिला है- दुनिया को दो हिस्सों में विभाजित करने वाली ताकतों का तांडव। यहां बातें युद्धों की, बीतें दो विश्वयुद्धों की, और पूरी दुनिया के दिल-दिमाग को मथ रहे उस तीसरे विश्वयुद्ध की, जिसको महाशक्तियां अपने-अपने बाज़ार के नशे में, वैसे तो मुद्दत से हवा दे रहीं, लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध, चीन-ताइवान तनातनी के बाद से ऐसे अंदेशे कुछ ज्यादा ही सघन हो उठे हैं। इन्ही ताज़ा हालात पर सविस्तार रोशनी डालती है पुस्तक ‘शब्द-शब्द परमाणु’।
युद्धोन्मत्त महाशक्तियों और उनके पिछलग्गुओं ने किस तरह पूरे विश्व में हर आम आदमी की आर्थिकी को हाशिये पर डाल रखा है, सिर्फ इस बात से पता चल जाता है कि वर्ष 2021 में पहली बार दुनिया में रक्षा बजट 20 खरब डॉलर (1,620 खरब रुपए) से भी ज्यादा हो गया। दुनिया ने इससे पहले कभी हथियारों एवं अन्य सुरक्षा उपकरणों आदि पर इतना बजट नहीं झोंका था। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिप्री) की एक ताज़ा स्टडी बताती है कि वर्ष 2021 में रक्षा खर्च के सारे रिकॉर्ड टूट गए। मुद्रास्फीति के आधार पर बदलाव के बाद सामने आए आंकड़ों के मुताबिक, 2021 में दुनिया में रक्षा खर्च 0.7 प्रतिशत तक बढ़कर 21.13 खरब डॉलर तक पहुंच गया। इससे साफ है कि कोविड-19 के दोनों वर्षों (2020-21) में भी रक्षा बजट उछाल पर रहा, जबकि उस दौरान अर्थव्यवस्था ढह रही थी और महाशक्तियां सैन्य खर्च को रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचा रही थीं। उन दो वर्षों में सैन्य मद में सबसे ज्यादा दुनिया के पांच देशों अमेरिका, चीन, भारत, ब्रिटेन और रूस ने बजट झोका। अपने रक्षा बजट में 33 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी कर चुका भारत विश्व में तीसरे नंबर पर 76.6 अरब डॉलर (58 खरब रुपए से ज्यादा) खर्च कर रहा है, जो 2020 के मुकाबले 2012 में 0.9 प्रतिशत ज्यादा रहा है।
युद्धों-विश्वयुद्धों के साथ शब्दों की बात करें, सृजन की, कविताओं की तो पोलिश कवि तादेयुश रोज़ेविच की पंक्तियां सारा भेद खोलकर रख देती हैं- ‘शब्दों का इस्तेमाल किया जा चुका है, चुइंगम की तरह उन्हें चबाया जा चुका है, सुन्दर जवान होठों द्वारा सफ़ेद फुग्गों, बुल्लों में बदला जा चुका है….घिसे- बुझे अखबार में लिपटे शब्द अब भी संक्रामक हैं … अब भी उनसे भाप उठती है, अभी तक उनमें गंध है, वे अभी भी चोट पहुँचाते हैं, माथे के भीतर छिपे हुए, छिपे हुए हृदय के भीतर, पवित्र पुस्तकों में छिपे हुए, वे अचानक फूट पड़ते हैं और मार डालते हैं।’ ऐसे में पहले, दूसरे के बाद दुनिया अब तीसरे विश्वयुद्ध की ओर है। प्रश्न उठ खड़ा होता है कि मानवता अपनी खूबसूरत दुनिया को इन सनकी सफ़ेदपोशों के चंगुल से कैसे बचाए! ईरान के कवि सबीर हका की ‘बंदूक’ कविता में चिंता और साफ-साफ सामने आती है कि ‘अगर उन्‍होंने बन्दूक़ का आविष्‍कार न किया होता तो कितने लोग, दूर से ही मारे जाने से बच जाते, कई सारी चीज़ें आसान हो जातीं, उन्‍हें मज़दूरों की ताक़त का अहसास दिलाना भी कहीं ज़्यादा आसान होता।’
आदमी महामारी से मरे, भूख से मरे या जनक्रांतियों में, युद्धों में, कितने लोग विदा हो जाते हैं, इसकी गिनती शोकाकुल करती है। युद्धों का इतिहास दहशत से भर देता है। इन दहशतों के भी सौदागर हैं, जब से दुनिया में युद्ध होते आ रहे हैं। शांति-शांति के शोशे और श्माशानों का जघन्य राग, दोनों के बीच फंसी इंसानियत अपने होने की जितनी कीमत अब तक दे चुकी है, सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, दिल कांप उठता है। आधुनिक विश्व के हर सचेत, इंसाफ़ पसंद नागरिक को यह यक्ष प्रश्न हमेशा विचलित करता है कि युद्ध क्यों होते हैं? हद है कि अब तक के ज्यादातर युद्धों के पीछे उन्हीं शक्तियों का उन्माद रहा है, जिन्हे समय और मानव समाज को सभ्य बनाने का भी जनमत मिलता है। और उन्हीं का आज भी, विश्व मानवता पर आदमखोर प्रभुत्व है। जब उनका क्रूर अट्टहास हुंकारता है कि ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति’, युद्ध के मैदानों से रोबेर्तो फ़ेर्नान्दिस रेतामार जैसे तमाम सृजनधर्मी हमे बार-बार ‘बदलाव’ की ओर आगाह करते हुए पूछते हैं- ‘…शहीद हुए लोगों में से किसकी वजह से मैं ज़िन्दा हूँ (आख़िर मैं किसी और के हाथ से लिख रहा हूँ)।’
हमारे पुरखे और बड़े-मनीषी कह गए हैं, जीवन एक युद्ध-स्थल है। जीवन भी एक युद्ध जैसा होता है। युद्ध की बातें करते हुए हमे यह जान लेना भी जरूरी होगा कि ‘जीवन जीने लायक हो, युद्ध हो ही नहीं, क्या हमे कोई ऐसी भी राह दिखा गया गया है’? आज भी जो हमें राह दिखा रहे, वे हर ख़ासोआम से ज्यादा गमगीन हैं, अपने-अपने समय के सच से विचलित, किंकर्तव्यविमूढ़ हैं कि किधर जाएं, किस राह ले जाकर हिफ़ाजत से सहेज ले जाएं विश्व मानवता को, आने वाली सदियों के लिए। संभव हो पाएगा क्या? उत्तर दैत्यों के दिमाग में विश्राम पर है। दुनिया में शस्त्र-कारोबार का अपना एक भयानक इतिहास है, जिसके बूते तमाम समृद्ध सभ्यताओं को कुचला जाता रहा है। यह जानना भी सबसे महत्वपूर्ण होगा कि युद्ध किस तरह जन-जीवन, अर्थव्यवस्था और इंसानियत को तहस-नहस कर देता है। बमबारी से हजारों लोग जान से हाथ धो बैठते हैं, सुंदर इमारतें, बाँध, सिनेमाघर, संग्रहालय, अस्पताल, रेलवे स्टेशन, कल-कारखाने, शिक्षण संस्थान आदि सब नष्ट हो जाते हैं। हरे-भरे खेत बंजर भूमि बन जाते हैं। चारो तरफ से आम जनजीवन अकाल के खोह में धकेल दिया जाता है। युद्ध के इसी निर्दयी, क्रूर सच को सविस्तार रेखांकित करती है पुस्तक ‘शब्द-शब्द परमाणु’।
इस किताब के आख़िरी पन्नों में लोर्का, ब्रेख्त, पाब्लो, नाज़िम, मिगुएल, इल्या कामिन्सकी, हो ची मिन्ह, येहूदा आमिखाई, आदम ज़गायेव्स्की, सिनान अन्तून, विस्साव शिम्बोर्स्का, हालीना, ग्युण्टर ग्रास के शब्दाभास भी इसलिए कि हमारे सुधी पाठक भी, उनके शब्दों की तरह शिद्दत से विश्व मानवता का चेहरा नोच रहे जंगली अभिजातों की समय रहते रही शिनाख़्त कर सकें। यह शिनाख़्त ज़रूरी क्यों है, क्योंकि प्रथम विश्वयुद्ध में नौ करोड़ से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी, और; जिनमें कुल 8 लाख में से 47,746 भारतीय सैनिक भी मारे गए और 65,000 घायल हो गए थे, छह वर्षों तक जारी रहे दूसरे विश्व युद्ध में भी पांच करोड़ से ज्यादा लोग मारे गए थे। यह तादादा कोई मामूली नहीं, और अब; तीसरे विश्वयुद्ध के अंदेशों के बीच यूक्रेन-रूस संघर्ष में मारे गए लोगों के बारे में एक चुनौती स्वतंत्र सटीक गणना की भी है। आदिम बर्बरता के विरुद्ध लिखित-संकलित, चाहे जैसी भी, ‘शब्द-शब्द परमाणु’ की उपस्थिति उन सबके लिए, जिन्हे किसी भी तरह के युद्धों से घृणा है, जिनके अपने युद्धों, नरसंहारों में अथवा महाशक्तियों के विध्वंसकारी षड्यंत्रों में मारे गए या मारे जा रहे हैं, यह उनका भी आईना, जिन्होंने पूंजी की अंधी भूख में स्वयं को पहचानने से इनकार कर दिया है। इल्या कामिन्सकी के शब्दों में कि- ‘जब वे दूसरे लोगों के घरों पर बमबारी कर रहे थे, हमने ऐतराज़ किया मगर ज़रा, हमने उनका विरोध किया मगर ज़रा…।’


‘संवाददाता’ : यह तो भला कौन कहे कि जर्नलिज्म के छात्रों अथवा नई पीढ़ी के पत्रकारों के लिए यह कोई ऐसी किताब है, जो समाचार जगत के हर हासिल का निष्कर्ष हो, लेकिन इसे बुनते समय ध्यान मुख्यतः विश्वविद्यालयों के भिन्न-अभिन्न पाठ्यक्रमों और पत्रकारिता विभागाध्यक्षों के लगभग एक-जैसे उन महत्वपूर्ण अभिमत पर केंद्रित रहा कि मुद्दत से मीडिया के छात्रों और प्रशिक्षुओं के लिए ‘संवाददाता’ जैसी एक पुस्तक हो, जिसमें रिपोर्टिंग के विविध विषय एवं अधिकांश पक्ष, सविस्तार एक साथ तत्वतः संकलित हों। ‘संवाददाता’, सूचना-संवाहक। सामग्री-चयन एवं लेखन के दौरान मेरे लिए दूसरा विचारणीय विंदु रहा, विभिन्न प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में कार्यरत रहते हुए स्वयं के वे अनुभव, निष्कर्ष और एक प्रश्न कि पत्रकारों की नई पीढ़ी पहले की तरह क्यों नहीं? शहरों, महानगरों की परिधि लांघते हुए दुर्गम स्थानों तक, गांव-गांव मीडिया क्षेत्र जिस वेग से विस्तारित होता जा गया है, क्या उस अनुपात में सुयोग्य संवाददाता (रिपोर्टर) का संस्थानों में अभाव नहीं महसूस किया जा रहा है? क्या अयोग्यता के इस प्रश्न को प्रशिक्षण संस्थानों के मत्थे मढ़कर संपादक प्रतिष्ठान स्वयं अनुत्तरित हो सकता है? इसलिए यह सुपरिचित-प्रतिष्ठित मीडिया विद्वानों के विचारों से समृद्ध यह पुस्तक ‘संवाददाता’ नए रिपोर्टर्स के लिए भी उतनी ही उपयोगी हो सकती है, जितनी कि जर्नलिज्म के छात्रों के लिए।
पत्रकारिता के छात्रों, नयी पीढ़ी के पत्रकारों, किंचित मीडिया विद्वानों के बीच भी एक और प्रश्न उल्लेखनीय हो सकता है कि इतना विशद विषय रिपोर्टिंग ही क्यों? इस प्रश्न का समाधान पुस्तक पढ़ने के बाद ही पाया जा सकता है। पुस्तक के बाईस अध्यायों में रिपोर्टिंग के उन समस्त सूचना-तत्वों और व्यावहारिक पक्षों को सहेजने का प्रयास किया गया है, जिनसे जर्नलिज्म के छात्रों एवं नई पीढ़ी के पत्रकारों को अपनी राह आसान करने में मदद मिल सके। तथ्यात्मक दृष्टि से विषय-केंद्रित मीडिया मनीषियों के विचार प्राथमिकता से प्रस्तुत करने का उद्देश्य इतना भर है कि पत्रकारिता में रिपोर्टिंग जैसे बुनियादी कार्य-दायित्व पर तरह-तरह की जिज्ञासाओं का समाधान भरसक आधा-अधूरा न रह जाए। रिपोर्टिंग के पाठ्यक्रम तक पहुंचने से पहले, पढ़ाई और पेशे में काम आने वाली ऐसी तमाम ज़रूरी बातों से आमना-सामना कराती है यह किताब।
मीनाक्षी गिगि दुरहम और डगलस एम केलनर के शब्दों में ‘शासक वर्ग ऐसे बुद्धिजीवियों और संस्कृति नियंताओं को काम में लगाता है जो प्रभुत्वशाली संस्थाओं और जीवन शैलियों का महिमामंडन करने वाले विचारों की उत्पत्ति करते हैं। ये बुद्धिजीवी साहित्य, प्रेस, फिल्म और टेलीविजन जैसे माध्यमों में शासक वर्गीय विचारों का प्रोपेगैंडा करते हैं।’ प्रश्न है कि समकालीन मीडिया आज कहां खड़ा है और वह अपने किन प्राथमिक उद्देश्यों और जरूरतों के लिए किधर जा रहा है। इसी क्रम में जाने-माने मीडिया चिंतक नोम चोम्स्की प्रतिप्रश्न करते हैं, आज मुख्यधारा के मीडिया के निर्माण तत्व और प्रकृति क्या है? मीडिया का अध्ययन करते समय एक सुनियोजित जांच प्रक्रिया से गुजरना चाहिए, जिसमें कल के वक्तव्य को आज के परिप्रेक्ष्य में पिरोया गया हो। मीडिया, किसी स्कॉलरशिप के अध्ययन या बुद्धिजीवियों के जर्नल से अलग नहीं है। अगर मीडिया अथवा किसी संस्थान को समझना है तो उसका अवलोकन करते समय इसके आंतरिक संस्थागत संरचना से सवाल करना होगा। आज के मीडिया का मिज़ाज समझने के लिए किसी सधे शोध वैज्ञानिक की तरह सूचना के प्रमुख स्रोतों से वाकिफ होना होगा।
तभी तो पत्रकारिता के छात्रों और नए पत्रकारों को मीडिया चिंतक जॉन पिल्जर के विचारों से भी अवगत होना चाहिए। वह कहते हैं, आज मुझे पत्रकारिता के बारे में, पत्रकारिता द्वारा युद्ध के बारे में, प्रोपेगंडा और चुप्पी तथा इस चुप्पी को तोड़ने के बारे में बातें करनी चाहिए। आज कारपोरेट प्रायोजित मीडिया-पाखंड के समय में नई पीढ़ी के पत्रकारों को यह जानना ज्यादा जरूरी लगता है कि उनके आगे आने वाले समय की राह कितनी असमतल हो सकती है, यह संभवतः रिपोर्टिंग का सबसे ज्यादा काम आने वाले हुनर हो सकता है। ‘संवाददाता’ का यह जरूरी निमित्त भी है।

Posts Carousel

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked with *

Latest Posts

Follow Us