सामान्य तनाव को भी ‘बीमारी’ मान लेने की मानसिक हलचल

सामान्य तनाव को भी ‘बीमारी’ मान लेने की मानसिक हलचल

क्लेयर रॉथ : थेरेपी जारी रखने के लिए लोगों को अक्सर मानसिक स्वास्थ्य के पहचान की जरूरत होती है. कुछ मनोचिकित्सक और मनोविज्ञानी कहते हैं कि यह जरूरत उन्हें समय से काफी पहले, सामान्य तनाव को रोगसूचक मानने के लिए बाध्य कर रही है. कल्पना कीजिए कि आपके पार्टनर का आपसे संबंध टूट जाता है.

क्लेयर रॉथ : थेरेपी जारी रखने के लिए लोगों को अक्सर मानसिक स्वास्थ्य के पहचान की जरूरत होती है. कुछ मनोचिकित्सक और मनोविज्ञानी कहते हैं कि यह जरूरत उन्हें समय से काफी पहले, सामान्य तनाव को रोगसूचक मानने के लिए बाध्य कर रही है. कल्पना कीजिए कि आपके पार्टनर का आपसे संबंध टूट जाता है. आप उदासी और थकान महसूस करते हैं और सामान्य जिंदगी बिताना भारी लगने लगता है. आपके दोस्त आपको किसी से बात करने की सलाह देते हैं.
आप एक साइकोथेरेपिस्ट की तलाश करते हैं. कुछ महीने लगते हैं. लेकिन आखिरकार कोई ना कोई मिल जाता है. शुरुआत में पांच सेशन चलते हैं. सब कुछ ठीक चल रहा होता है- आप अपने बारे में सीख रहे होते हैं और आपको अपनी इस क्षमता पर अच्छा लगता है कि बातचीत के सहयोगी को आप अपनी बातों से आप उदास नहीं कर रहे हैं, यह महसूस नहीं होता.
एकबारगी पांच सत्र निपटते ही, आपका थेरेपिस्ट आपसे कहता है कि कुछ फॉर्म भरने के लिए डॉक्टर के पास जाना होगा. इलाज के पैसों के लिए अपनी स्वास्थ्य बीमा कंपनी के साथ भी आपको कॉन्ट्रेक्ट करना होगा. डॉक्टरों से मिले फॉर्म के साथ, आपके थेरेपिस्ट को अपना विश्लेषण भी साथ में नत्थी करना होगाः यही है रोग की पहचान. आपका थेरेपिस्ट आपमें एक “मेजर डिप्रेसिव डिसऑर्डर” की पहचान करता है. और ये सही है- आप उदासी महसूस कर रहे हैं. आप ठीक से सोते नहीं है, काम में आपका ध्यान नहीं लगता है और शौक पूरा करने में आपकी दिलचस्पी नहीं रहती.
फिर भी, आप असमंजस में हैं. आपका एक हिस्सा तो राहत महसूस करता हैः आपको ये तथ्य अच्छा लगता है कि आप जो महसूस कर रहे हैं उसका नाम दर्ज कर सकते हैं, वो चीज लाखों करोड़ लोग पहले भी महसूस कर चुके हैं और अब चूंकि आपकी समस्या की पहचान हो चुकी है, तो आप उसका समाधान निकालने की कोशिश शुरू करते हैं लेकिन आपका दूसरा हिस्सा सोचता है कि आपका खराब मूड क्या सिर्फ परिस्थितियों की वजह से है. निश्चित रूप से आप अवसाद महसूस करते हैं- लेकिन आपकी जैसी हालत तो किसी और की भी हो सकती है. अगले कुछ हफ्तों में रोग की पहचान आपके दिमाग में खलबली मचाते हुए धंस जाती है.
जर्मनी, अमेरिका, फिनलैंड और यूरोपीय संघ के बहुत से देशों में, सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा के जरिए पुनर्भुगतान वाली थेरेपी हासिल करने के लिए लोगों को डायग्नोसिस चाहिए होता है. कोविड 19 महामारी की शुरुआत से मानसिक स्वास्थ्य उपचार लेने वाले लोगों की संख्या में बड़ा उछाल आया है. हालांकि कई लोग सवाल भी पूछ रहे हैं- किसी किस्म की वातावरण से जुड़ी वजह के चलते होने वाले नियमित अवसाद और एक अवसादी मनोविकार के बीच रेखा कहां है? अपने बारे में हमारी अपनी समझ के बारे में डायग्नोसिस क्या भूमिका निभाता है?
कई मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक, रोग की पहचान बताने के लिए जोर देने पर बीमा कंपनियों की आलोचना करते हैं. उसकी वजह से लोग सामान्य तनाव को भी रोगसूचक बना बैठते हैं. लिवरपूल यूनिवर्सिटी में क्लिनिकल साइकोलजी के प्रोफेसर पीटर किंडरमैन कहते हैं कि उसकी वजह से, “मनुष्य अनुभव का गलत अनुवाद हो जाता है.” यानी अनुभव का गलत अर्थ निकाल लिया जाता है.
किंडरमैन कहते हैं, “होता यह है कि हमारे पार्टनर हमसे धोखा करते हैं तो हम अवसाद में आ जाते हैं. मदद की तलाश करते हैं और डॉक्टर लोग कहते हैं, ‘नहीं, तुम गलत हो, यह मामला सामान्य, समझ में आने वाला सदियों पुराना आवसाद का नहीं है जिसके कारण समझ में आते हैं. असल में तुम गलत हो- ये एक प्रमुख अवसादी मनोविकार है, जिसका उपचार अब हम करेंगे और बीमा कंपनी को इसका बिल भेजेंगे.” किंडरमैन कहते हैं कि कई देशों में, थेरेपी के मरीजों को तभी देखभाल हासिल हो सकती है जब वे डायग्नोसिस को स्वीकार कर लें. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मरीजों में विकार की पहचान कर लेने भर का मतलब ये नहीं कि वे बीमार हैं या वे हमेशा बीमार रहेंगे या उनमें कोई दिमागी खराबी है. वो कहते हैं, “आपके तनाव या साइकोथेरेपी की प्रैक्टिस या कुदरत से इसका कोई लेनादेना नहीं है. ये वाणिज्यिक फैसले होते हैं जिन्हें लोग एक खास ढंग से सेवा प्रदान करने के लिए करते हैं.”
स्पेनी मनोचिकित्सक एडुआर्ड वीएटा न्यूरोबायोलॉजी और बाइपोलर डिसऑर्डर में विशेषज्ञ हैं. वो किंडरमैन से सहमत हैं कि डायग्नोसिस हमेशा जरूरी नहीं होता है. खासकर मानसिक तनाव के उन मामलों में जो भयंकर नहीं होते हैं. वीएटा कहते हैं कि मामूली स्थितियों में, डायग्नोसिस की जरूरत मानसिक स्वास्थ्य सेवा देने वालों को एक “सामान्य प्रतिक्रिया या स्थिति पर दवाई चालू कर देने पर मजबूर कर देती है जिस पर किसी ठप्पे की यूं कोई जरूरत नहीं होती.” फिर भी वीएटा गंभीर मानसिक तनाव की स्थिति में डायग्नोसिस को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हैं.
वीएटा कहते हैं कि बाइपोलर डिसऑर्डर या शिजोफ्रेनिया जैसी स्थितियों में, रोग की पहचान, क्वालिटी कंट्रोल की तरह काम करती है. एक बार लोगों का डायग्नोसिस हो जाए तो वे इंटरनेट पर जाकर उसी स्थिति वाले दूसरे लोगों के बारे में पढ़ सकते हैं. या किसी दूसरे मनोचिकित्सक या फिजीशियन से भी राय ले सकते हैं कि क्या वे डायग्नोसिस और उस लिहाज से चल रहे इलाज से भी सहमत हैं या नहीं. वीएटा कहते हैं कि कुछ मनोचिकित्सक इसे अनदेखा नहीं करते हैं, लेकिन उन्हें लगता है कि कुछ मरीज अगर इंटरनेट पर अपनी बीमारी की पहचान के बारे में खोजबीन करते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं.
वो कहते हैं, “लोगों को हक है और ये अच्छी बात है, बशर्ते ये सनक या जुनून जैसा ना बन जाए. वैसे ये अच्छा है कि लोग सचेत और सूचित रहें और उन सवालों का जवाब पाने की कोशिश करें जो किसी खास तकलीफ के समय उभर आते हैं.” रोग की पहचान गंभीर मनोवैज्ञानिक तनाव से जूझ रहे लोगों को उपचार का एक बेहतर और तयशुदा तरीका मुहैया कराती है. वीएटा के मुताबिक ये लक्षित साइकोथेरेपी से हो सकता है या दवाओं से या दोनों से.
यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट टिल वाइक्स इस बात से सहमत हैं कि डायग्नोसिस, व्यक्ति के तनाव को समझने में मदद कर सकता है. कानों में आवाज गूंजने जैसे साइकोसिस के मामलों से जूझ रहे मरीजों का उपचार करने वाले विशेषज्ञ वाइक्स कहते हैं, “यह कुछ लोगों को सावधानीपूर्वक विचार करने लायक बना देता है कि वे अपनी जिंदगी को कैसे एडजस्ट करें और अपने बारे में सोचें और उस डायग्नोसिस के साथ कैसे रहें या उसके सबसे खराब हिस्सों को झेल सकें.” लेकिन वो कहते हैं कि लोगों को जारी उपचार तक पहुंच हासिल कराने से पहले डायग्नोसिस कराने की जरूरत नहीं होनी चाहिए.
वीएटा ने ये गौर किया कि सिद्धांत रूप से रोग की पहचान का अभ्यास लाभकारी हो सकता है, लेकिन व्यवहारिक रूप से ये चीज हमेशा कारगर नहीं रहती है. शिजोफ्रेनिया या बाइपोलर विकार से जुड़े सामाजिक कलंक या शर्म के चलते भी लोग उपचार से परहेज कर सकते हैं या उसे खारिज कर सकते हैं. वीएटा कहते हैं, “रोग की पहचान उपयोगी है. अगर इसमें शर्म या लांछन जैसी चीज न जुड़ी हो तो ये अनिवार्य तौर पर अच्छी है.” वाइक्स का कहना है कि कुछ रोगों की पहचान से जुड़ी शर्म या लांछन से शुरुआती हस्तक्षेप क्लिनिकों में कुछ मानसिक स्वास्थ्य कल्याण प्रदाता अपनी प्रैक्टिस के तरीके को बदल देते हैं. वाइक्स कहते हैं, “कुछ डॉक्टर शिजोफ्रेनिया शब्द का इस्तेमाल कभी करते ही नहीं है. क्योंकि उन्हें लगता है उससे मरीज डर जाएगा.”
वाइक्स के मुताबिक ब्रिटेन में उपचार के लिए लोगों को डायग्नोसिस की जरूरत नहीं होती है, तो वहां थेरेपिस्ट उन लोगों की मदद कर पाते हैं जो शिजोफ्रेनिया या साइकोसिस जैसी स्थितियों में डायग्नोसिस की दहलीज पर नहीं पहुंच पाते हैं, लेकिन दूसरी कई समस्याओं के लिए निश्चित रूप से उन्हें मदद की जरूरत होती है. वाइक्स कहते हैं कि उनके लिए इलाज वास्तविक शिजोफ्रेनिया की नौबत आने ही नहीं देता या उसे टाल देता है. है. “या वो उन्हें उन सेवाओं के लिए तैयार कर देता है ताकि जब विकार पैदा हो तो वे उन सेवाओं या सहायताओं को आसानी या सहजता से स्वीकार कर सकें. ” उस किस्म का सपोर्ट उन देशों में संभव नहीं है जहां स्वास्थ्य देखरेख के लिए डायग्नोसिस की जरूरत होती है. उसकी वजह से लोग, रोग की गलत पहचान के डर के चलते उसे पूरी तरह खारिज कर सकते हैं. वाइक्स कहते हैं, “लोग भरसक उनसे परहेज करेंगे. और फिर परिवार भी हर मुमकिन परहेज करने की कोशिश करेंगे. अगर आप बिना रोग की पहचान के हेल्थ केयर हासिल कर सकते हैं तो आप वास्तव में फंस जाते हैं. क्योंकि अगर आपको डायग्नोसिस नहीं चाहिए और सिर्फ मदद चाहिए, तो आप स्वास्थ्य कल्याण सेवाओं के पास नहीं जाएंगे, जो आप पर किसी बीमारी का ठप्पा लगा सकती है.”

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