लाइलाज अल्जाइमर की दवा के तीसरे फेज का ट्रायल सफल

लाइलाज अल्जाइमर की दवा के तीसरे फेज का ट्रायल सफल

अल्जाइमर बीमारी में काम आने वाली दवा का तीसरे फेज का ट्रायल सफल रहा है और उसके शुरुआती नतीजे सकारात्मक पाए गए हैं. दवा कंपनियों बायोजन और आईसाई ने पिछले दिनों बताया कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडी दवा लेकानमैब, अपने तीसरे फेज के प्रयोग के दौरान, 18 महीनों बाद संज्ञानात्मक गिरावट को 27 फीसदी काबू करने में

अल्जाइमर बीमारी में काम आने वाली दवा का तीसरे फेज का ट्रायल सफल रहा है और उसके शुरुआती नतीजे सकारात्मक पाए गए हैं. दवा कंपनियों बायोजन और आईसाई ने पिछले दिनों बताया कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडी दवा लेकानमैब, अपने तीसरे फेज के प्रयोग के दौरान, 18 महीनों बाद संज्ञानात्मक गिरावट को 27 फीसदी काबू करने में सफल रही. शोधकर्ता दशकों से अल्जाइमर बीमारी के सटीक उपचार की तलाश करते आ रहे हैं. इस विनाशकारी बीमारी के इलाज के लिए जारी वैश्विक होड़ में नये नतीजे क्या कहते हैं?
अल्जाइमर के शुरुआती लक्षणों से पीड़ित करीब 2000 लोगों ने मार्च 2019 को शुरू हुए ट्रायल में हिस्सा लिया था. आधे प्रतिभागियों को हर सप्ताह लेकानेमैब के दो इंजेक्शन दिए गए, बाकी लोगों को एक प्लेसेबो यानी कामचलाऊ दवा दी गई. शुरुआत और अंत में शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों के डिमेंशिया यानी स्मृति-लोप के लक्षणों की गंभीरता को मापा. 18 महीने बाद, इंजेक्शन पाने वाले समूह को दूसरे ग्रुप के मुकाबले 0.45 अंक कम मिले थे. यानी ये 27 फीसदी की कटौती थी.
एडिनबरा यूनिवर्सिटी के डिमेंशिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में न्यूरोडिजनेरेशन की प्रोफेसर तारा स्पाइर्स-जोन्स कहती हैं, “अगर ये डाटा स्क्रूटनी में पास हो गया तो ये वाकई एक शानदार खबर है.” वो कहती हैं, “भले ही ये कोई ‘उपचार’ नहीं है क्योंकि ये लोगों को वापस सामान्य स्थिति में लौटा नहीं पाता है, लेकिन संज्ञानात्मक गिरावट को थामे रखने यानी होश न खोने की स्थिति को धीमा करने और रोजमर्रा की सामान्य गतिविधियां निभा सकने की क्षमता को संरक्षित रखने में इसका योगदान एक बड़ी जीत कही जाएगी क्योंकि लोग उस सूरत में अल्जाइमर बीमारी के साथ और लंबे समय तक जी पाएंगे.” अल्जाइमर रोग तबाह कर देने वाला है और अभी तक लाइलाज है. ब्राइटफोकस फाउंडेशन के डाटा के मुताबिक, दुनिया भर में 5 करोड़ से ज्यादा लोग इस बीमारी से प्रभावित हैं. ये फाउंडेशन अल्जाइमर्स के वैज्ञानिक शोध को आर्थिक मदद देता है.
पेरिस के पिटे सालपेत्रिए अस्पताल में फिजीशियन और सॉरबॉन यूनिवर्सिटी में न्यूरोलजी के एसोसिएट प्रोफेसर निकोलास विलाइन बताते हैं, “जब आप मरीजों को बताते हैं कि उन्हें अल्जाइमर है तो वे पलटकर पूछते हैं, ‘आप क्या कर सकते हैं? क्या आपके पास कोई इलाज है?’ लेकिन इसकी कोई दवा नहीं है. जाहिर है, हम मदद के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं…लेकिन तब भी, हमारे पास मरीज को सलाह देने के अलावा कुछ और नहीं है.”
अभी तक, इस बीमारी को रोकने या उसे सही करने के लिए कोई इलाज उपलब्ध नहीं हैं. इस ट्रायल के नतीजे भले ही उत्साहजनक हैं, लेकिन वे प्रारंभिक हैं और उनका पीयर रिव्यू यानी विशेषज्ञों से समीक्षा अभी नहीं हुई है. शोधकर्ता इस बात से आगाह कराते हैं कि इस बारे में और शोध किए बिना नतीजों का डंका पीटना सही नहीं होगा. लंदन के क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी में वोल्फसन इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन हेल्थ में मानद सलाहकार न्यूरोलजिस्ट और वरिष्ठ लेक्चरर चार्ल्स मार्शल कहते हैं, “बताए गए फायदे काफी कम हैं और मस्तिष्क में सूजन और रक्तस्राव (ब्लीडिंग) जैसे तमाम दुष्प्रभावों के जोखिम के मद्देनजर देखे जाने चाहिए.” मार्शल शोध में शामिल नहीं थे.
अल्जाइमर बीमारी के शोध से जुड़े समुदायों में इस नयी दवा ने जो उत्साह पैदा किया है उसकी एक वजह उस सिद्दांत का एक संभावित पुष्टीकरण है जिसके तहत माना जाता है कि ये बीमारी, एमिलॉयड-बीटा नाम के प्रोटीन से सीधे तौर पर जुड़ी है. नाम के आखिर में मोनोक्लोनल एंटीबॉडी यानी “मैब” लगाने वाली तमाम दवाओं की तरह, लेकानेमैब एक एंटीबॉडी है और खासतौर पर एमिलॉयड-बीटा प्रोटीन को लक्षित करती है. वायरस जैसे बाहरी पदार्थों से जुड़कर, एंटीबॉडी रोगाणुओं के खिलाफ हमारी प्रतिरोध प्रणाली की प्रतिक्रिया में यह एक अहम भूमिका निभा सकती है.
मनुष्य शरीर स्वाभाविक तौर पर एमिलॉयड-बीटा प्रोटीन बना लेता है- ये इंसानी क्रोमोसोम 21 के एक जीन में निबद्ध होता है. क्रोमसोम 21, इंसानी देह में मौजूद 23 जोड़े क्रोमसोम में से एक है. जब इनमें से बहुत ज्यादा प्रोटीन, मस्तिष्क में जमा हो जाते हैं तो वे प्लैक बना सकते हैं जिनके बारे में कई शोधकर्ताओं का मानना है कि वे अल्जाइमर्स से होने वाले नुकसान का कारण हो सकते हैं. लेकानेमैब के बारे में कहा जाता है कि वो इन प्लैकों की सफाई कर देती है.
लेकिन कुछ शोधकर्ताओं को एमिलॉयड-बीटा प्रोटीन और अल्जाइमर्स के बीच संबंध को लेकर पक्का यकीन नहीं है. न्यूरोलॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर विलाइन कहते हैं कि, “एमिलॉयड की परिकल्पना को लेकर बहुत सारे साक्ष्य उपलब्ध हैं लेकिन कुछ लोग मानते हैं कि एमिलॉयड ही अल्जाइमर्स में हर चीज का जिम्मेदार होता है, जबकि मेरे जैसे कुछ लोग मानते हैं कि एमिलॉयड महत्वपूर्ण हैं लेकिन दूसरे फैक्टर भी काम करते हैं.”
सितंबर 2016 में बायोजन ने एडुकानुमैब नाम की दवा का तीसरे चरण का क्लिनिकल ट्रायल शुरू किया था. वो भी एमिलॉयड-बीटा प्रोटीन को टार्गेट करती है. मार्च 2019 में ये ट्रायल रोक दिया गया था. बायोजन की प्रेस रिलीज के मुताबिक वो ट्रायल इसलिए रद्द किया गया क्योंकि शोधकर्ताओं को लगा कि अध्ययन उनके प्रमुख लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएंगे.
ट्रायल क्यों रोक दिया गया, उसकी वजहें अब भी अस्पष्ट हैं. लेकिन महीनों बाद, कंपनी को अमेरिका के फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) की ओर से एडुकानुमैब के लिए त्वरित मंजूरी हासिल हो गई. लेकिन यूरोपियन मेडिसिन्स एजेंसी (ईएमए) ने दवा को रिजेक्ट कर दिया. अल्जाइमर्स और डिमेंशिया पर मायो क्लिनिक के शोधकर्ता डेविड नॉपमैन और उनके सहयोगियों के नवंबर 2020 में प्रकाशित एक लेख में के मुताबिक मंजूरी के कदम को जस्टीफाई करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य मौजूद नहीं थे.
लेकानेमैब दवा के ट्रायल के नतीजों की प्रतिक्रिया में, क्वीन्स यूनिवर्सिटी बेलफास्ट में वृद्धावस्था औषधि से जुड़े प्रोफेसर पीटर पासमोर कहते हैं, “एफडीए से सिद्धांत के आधार पर और बगैर कोई क्लिनिकल लाभ दिखाए स्वीकृत कर दी गई एडुकानुमैब की तुलना में, लेकानेमैब दवा लगता है कुछ क्लिनिकल फायदे दिखाती प्रतीत होती है.”

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