अस्सी की उम्र में भी थके नहीं हैं सलमान रुश्दी को शरण देने वाले जुझारू जर्मन पत्रकार वालराफ

अस्सी की उम्र में भी थके नहीं हैं सलमान रुश्दी को शरण देने वाले जुझारू जर्मन पत्रकार वालराफ

जर्मनी के सबसे सफल नॉन-फिक्शन लेखक एवं मशहूर खोजी पत्रकार ग्युंटर वालराफ बड़े कॉर्पोरेट घरानों, फैक्ट्रियों और मीडिया संस्थानों में मानवाधिकार हनन के मामलों को उजागर करने के लिए करीब आधी सदी से वह गुप्त रूप से रह रहे हैं. इस महीने एक अक्टूबर को वह 80 साल के हो गए, लेकिन लगता है कि

जर्मनी के सबसे सफल नॉन-फिक्शन लेखक एवं मशहूर खोजी पत्रकार ग्युंटर वालराफ बड़े कॉर्पोरेट घरानों, फैक्ट्रियों और मीडिया संस्थानों में मानवाधिकार हनन के मामलों को उजागर करने के लिए करीब आधी सदी से वह गुप्त रूप से रह रहे हैं. इस महीने एक अक्टूबर को वह 80 साल के हो गए, लेकिन लगता है कि वह अब भी रिटायरमेंट के मूड में नहीं है क्योंकि अपने जन्मदिन के पहले से ही, ग्युंटर वालराफ अपने अगले अभियान की तैयारी में लग गए थे. अभिव्यक्ति की आजादी की वकालत करते हुए वालराफ अपनी लेखन यात्रा को जारी रखे हुए हैं. फिलहाल एक अन्य खोजी रिपोर्ट की तैयारी में लगे वालराफ अपनी आत्मकथा भी लिख रहे हैं और इस वजह से अपना जन्मदिन मनाने के लिए उनके पास बहुत ज्यादा समय नहीं है. अपने गृहनगर कोलोन से निकलने वाले एक बड़े अखबार कोए्ल्नर श्टाट अंत्साइगर से बातचीत में वो कहते हैं, मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं वास्तव में 80 साल का हो जाऊंगा. अभी एक और चीज रह गई है जो मैं करना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि मुझे दो या तीन साल और मिल जाएं. यदि एक साल भी और मिल जाता है तो भी मुझे प्रसन्नता होगी- मैं एक और खुफिया रिपोर्ट की तैयारी में लगा हूं और मुझे उम्मीद है कि मैं ऐसा कर लूंगा.
एक अक्टूबर 1942 को कोलोन के पास बुरशीड में जन्मे वालराफ शुरुआती दौर में किताबें बेचते थे. 1977 में आई उनकी पहली किताब डेय आउफमाखर और 1985 में आई गांत्स उन्टन की वजह से उन्हें पहचान मिली. गांत्स उंटन यानी “लोवेस्ट ऑफ द लो” 1985 में प्रकाशित हुई और महज 22 हफ्तों में यह श्पीगल की बेस्टसेलर सूची में शामिल हो गई. तुर्क मजदूर “अली” के वेश में वालराफ ने डुइसबुर्ग में मैक्डोनाल्ड में, थाइसेन क्रुप स्टीलवर्क्स में और एक परमाणु संयंत्र में एक मजदूर के तौर पर काम किया था.
वालराफ ने उन अमानवीय परिस्थितियों के बारे में विस्तार से लिखा है जिनमें अली को काम करना पड़ा था और जो कभी-कभी जानलेवा तक बन जाती थीं. उनके जर्मन साथियों को उसी समय सुरक्षात्मक कपड़े दिए जाते थे लेकिन उन्हें शून्य से नीचे तापमान में काम करने के दौरान भी ऐसे उपकरण हासिल नहीं थे और परमाणु संयंत्र से निकलने वाले भीषण विकिरणों को भी झेलना पड़ता था. कई बार उन्हें अपने जर्मन साथियों के बीच नस्लवादी गालियां और बेइज्जती का भी सामना करना पड़ता था जो चीख-चीखकर कहते थे, जर्मनी जर्मनवासियों के लिए है. तुर्क लोग बाहर चले जाएं. “लोवेस्ट ऑफ द लो” के हाल ही में प्रकाशित संस्करण में मेली कियाक ने वालराफ की खोज को जर्मन क्रूरता की खोज के रूप में वर्णित किया गया है.
इस किताब को प्रकाशित होने के बाद ही तमाम मुकदमों का सामना करना पड़ा और इसी वजह से वह बहुत जल्द मशहूर हो गई. पुस्तक के कई संस्करण आ चुके हैं. हाल ही में 2022 में भी एक संस्करण आया है. पुस्तक के प्रकाशक कीपेनहॉवर एंड वित्श के मुताबिक जर्मन भाषा और अन्य भाषाओं में अनुवाद के साथ इस पुस्तक की अब तक पचास लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं. जर्मन भाषा में प्रकाशित होने वाली नॉन-फिक्शन पुस्तकों में यह अब तक की सबसे ज्यादा सफल पुस्तकों में से एक है.
हालांकि कई मौकों पर इस पुस्तक की इस बात के लिए भी आलोचना हुई कि यह तो महज एक “तुर्की अतिथि मजदूर” का आख्यान भर है. यानी एक ऐसा व्यक्ति जो पढ़ा-लिखा नहीं है और जो सिर्फ कम वेतन वाले क्षेत्र में काम कर सकता है. लेकिन मेली कियाक ने बाद में अपनी पुस्तक फ्रॉउजाइन (बिईंग ए वुमन) में लिखा कि “लोवेस्ट ऑफ द लो” तुर्की के एक व्यक्ति के बारे में नहीं है बल्कि जर्मन समाज के बारे में है. यह न सिर्फ अली के बारे में है बल्कि शोषण के बारे में है जो कि समाज के हर वर्ग में है. 1985 में उनकी शोधपरक खोजी रिपोर्ट्स ने पश्चिमी जर्मन समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया. थाइसेन क्रुप ने कई अस्थाई कर्मचारियों को स्थाई अनुबंध दे दिया और प्रवासी मजदूरों के प्रति नस्लवाद पर होने वाली बहस में मूलभूत परिवर्तन आने लगा. “लोवेस्ट ऑफ द लो” के प्रकाशन के बाद जर्मन समाज अब यह दिखावा नहीं कर सकता था कि उसके यहां नस्लवाद की समस्या नहीं थी.
वालराफ को इससे पहले भी इसी तरह की प्रसिद्धि मिल चुकी थी, जब 1970 के दशक में आपराधिक तरीकों को लेकर की गई उनकी रिपोर्ट्स को बिल्ड अखबार ने लीड स्टोरी के तौर पर छापा और वो उस समय की बेस्टसेलर बन गई. उनके खिलाफ मुकदमों ने एक कानूनी विवाद को जन्म दिया जो आगे चलकर जर्मन उच्च न्यायालय तक पहुंचा. इस मामले में कोर्ट ने वालराफ के पक्ष में आदेश दिया जिसे बाद में “लेक्स वालराफ” के नाम से जाना गया, जिसके तहत कहा गया कि जर्मनी में पत्रकारों को अंडरकवर या जासूसी तरीके से जांच करने का कानूनी अधिकार है. तब से लेकर अब तक वालराफ खोजी पत्रकार के तौर पर अपनी यात्रा को जारी रखे हुए हैं.
निजी टीवी चैनल आरटीएल ने उनकी कई पुरस्कृत खोजी रिपोर्टों को प्रसारित किया है, जो उन्होंने “टीम वालराफ” के अपने सहयोगियों के साथ बनाई हैं. उदाहरण के तौर पर डिलीवरी के काम में लगे श्रमिकों की दशा, ग्रीस में शरणार्थियों की स्थिति और कॉल सेंटर्स में काम करने वाले लोगों की दशा के बारे की गई रिपोर्ट्स शामिल हैं. वालराफ हमेशा ऐसे लोगों के मुखर समर्थक रहे हैं, जिन्हें किसी भी तरह का खतरा रहा है. 1993 में उन्होंने भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी को शरण देने की पेशकण की. ईरान के धार्मिक नेता आयतुल्ला खुमैनी ने जब रुश्दी को मारने के लिए फतवा जारी किया तो खतरे की वजह से उनका घर से निकलना मुश्किल हो गया.
तब ग्युंटर वालराफ ने कोलोन स्थित अपने घर में रुश्दी को रखा, जहां रुश्दी पहले तो बगीचे के साये में सोते थे और उसके बाद छत पर. राइन किनारे में स्थित एक छोटे गांव उंकल की ओर जाते वक्त रुश्दी और वालराफ थोड़ी देर के लिए अपनी सुरक्षा को हटवाने में सफल रहे. जर्मन पब्लिक रेडियो स्टेशन एसडब्ल्यूआर के साथ बातचीत में वालराफ याद करते हैं कि कैसे एक अरब वेटर रुश्दी को किनारे ले गया और उन्हें थोड़ा और सतर्क रहने की सलाह दी. उसी साल न्यूयॉर्क में सलमान रुश्दी पर चाकू से हुए हमले के बाद वालराफ हैरान रह गए. उन्होंने मांग की कि उनके इस पुराने मित्र को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया जाए. हमले के बाद वालराफ ने कहा, हमले के बाद आई प्रतिक्रियाओं से पता चलता है कि दुनिया में ऐसे लोकतांत्रिक लोगों की कोई कमी नहीं है, जो कि आजादी के लिए खड़े हो सकें.

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