पर्वत प्रदेश उत्तराखंड हो या जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, ऐसे सभी राज्यों के चरवाहों की मुसीबतें कमोबेश एक जैसी हैं. हिमालय की ऊंचाइयों पर चरवाहों के ऐसे परिवार वास करते हैं जिन्हें अपने नवजात मेमनों की प्राणरक्षा तक के लिए सरकार का मुंह देखने की मजबूरी है. साल में एक बार होने वाली कैलाश मानसरोवर यात्रा पर
पर्वत प्रदेश उत्तराखंड हो या जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, ऐसे सभी राज्यों के चरवाहों की मुसीबतें कमोबेश एक जैसी हैं. हिमालय की ऊंचाइयों पर चरवाहों के ऐसे परिवार वास करते हैं जिन्हें अपने नवजात मेमनों की प्राणरक्षा तक के लिए सरकार का मुंह देखने की मजबूरी है. साल में एक बार होने वाली कैलाश मानसरोवर यात्रा पर तो सरकार अच्छी खासी रकम खर्च करती है लेकिन चरवाहों की दुर्गति पर मौन साध लेती है. धारचूला (उत्तराखंड) के शीप वूल डेवेलपमेंट बोर्ड के पूर्व सदस्य कुंदन सिंह भंडारी, जो स्वयं इस अन्वाल समुदाय के सदस्य हैं, बताते हैं कि शासकीय लापरवाही और आलस्य के कारण पीढ़ियों से एक परम्परागत कार्य में लगे समुदाय को न केवल आर्थिक-मानसिक हानि हुई है, किसी अवांछित दुर्घटना होने की स्थिति में उनके सामने जीवनयापन का मूलभूत सवाल भी उठ सकता है.
उत्तराखंड की व्यांस घाटी के गांवों में परम्परागत रूप से रं अर्थात शौका जनजाति के लोग रहते आये हैं. ये लोग गर्मियों में अपने गाँव आते हैं और जाड़ों में वापस धारचूला के अपने शीतकालीन घरों में लौट आते हैं. यह अलग बात है कि पलायन के इस दौर में इन गांवों में बहुत कम बाशिंदे बचे हैं. अधिकतर लोग नौकरियों अथवा व्यापार के सिलसिले में बाहर रहते हैं अलबत्ता महत्वपूर्ण त्यौहारों इत्यादि के अवसर पर सभी लोग अपने घरों में आते हैं. इस वर्ष सितम्बर के पहले सप्ताह में बूदी गाँव में हुए किर्जी महोत्सव के लिए भी शासन ने हेलीकाप्टर की सुविधा उपलब्ध कराई.
इस साल अतिवृष्टि की वजह से इस घाटी को जाने वाले महत्वपूर्ण रास्ते जुलाई के महीने से ही बंद पड़े हैं. सामरिक महत्व की महत्वाकांक्षी धारचूला-लिपूलेख सड़क पर पिछले कई दशकों से काम चल रहा है. फिलहाल आम लोगों के आवागमन के सामान्य रास्ते बंद पड़े होने के बावजूद लखनपुर, खानडेरा और नज्यंग जैसी मुश्किल भौगोलिक परिस्थियों वाली जगहों पर सड़क निर्माण कार्य जारी है. फिलहाल लखनपुर से नज्यंग तक के रास्ते में कई ऐसे बिंदु हैं जहाँ से होकर जाने के लिए पैदल आनेजाने वालों और इस घाटी की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाले भेड़-बकरियों-घोड़ों-खच्चरों के लिए कोई ढंग का रास्ता नहीं बचा है. रास्ते की बात की जाय तो पिछले साल दिसंबर से ही इस रास्ते के विकल्प काली नदी के उस तरफ नेपाल से होते हुए बने हुए हैं जो जानमाल की दृष्टि से बेहद खतरनाक हैं. इन्हीं रास्तों से होकर स्कूली बच्चे, बूढ़ी माताएं, बीमार बुजुर्ग, गर्भवती महिलाएं और मवेशी प्राण खतरे में डालकर पिछले दस माह से जैसे तैसे अपना कम चला रहे हैं. प्रशासन की तरफ से दर्ज़नों बार वादे किये जा चुके हैं लेकिन ख़ास कुछ हुआ नहीं है.
व्यांस और धारचूला की अन्य दो घाटियों दारमा एवं चौदांस में रं समुदाय के अलावा जो समुदाय शताब्दियों से जीवनयापन करता आ रहा है, उसे अन्वाल कहा जाता है. अन्वालों के बारे में गूगल वगैरह में कुछ खोजने की कोशिश कीजिये तो कुछ विशेष हासिल नहीं होगा. इन घाटियों की अर्थव्यवस्था के केंद्र में रहा यह समुदाय तमाम तरह की उपेक्षाओं का शिकार रहा है. अन्वाल समुदाय परम्परा से ही भेड़-बकरी पालन का कार्य करता रहा है. यहां इस बात का उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि सदियों तक चले भारत-तिब्बत व्यापार में माल के ढुलान के लिए इन्हीं भेड़-बकरियों का इस्तेमाल किया जाता रहा था. ये बकरियां अपनी पीठों पर बंधे चमड़े के थैलों में, जिन्हें करबच कहा जाता है, आठ से बारह किलो वजन लेकर दुर्गम पहाड़ के संकरे पथरीले रास्तों पर चल सकती हैं. जाड़ों में इन्हीं भेड़-बकरियों की मदद से तिब्बत से लाया गया नमक कुमाऊं-गढ़वाल के गांवों-कस्बों में पहुंचाया जाता था. अन्वाल समुदाय इन घाटियों की अर्थव्यवस्था और सामाजिक तानेबाने का बेहद ज़रूरी हिस्सा बना रहने के बावजूद समाज और शासन के सरोकारों से कटा रहा है. बहुत कम लोग जानते होंगे की इन अन्वालों के अनेक परिवार आज भी अपनी पुश्तैनी व्यवसाय में संलग्न हैं और वर्ष भर अपने पशुओं से साथ घुमंतू जीवन बिताते हैं.
इस साल भी मई-जून के महीने में कोई पच्चीस-तीस अन्वाल परिवार अपनी बकरियों को लेकर कुमाऊँ की तलहटियों के मैदानी चरागाहों से उच्च हिमालयी व्यांस-दारमा घाटियों की तरफ चले गए थे. दिसंबर से ही नज्यंग के पास का रास्ता टूटा हुआ होने की वजह से अपने रेवड़ों को रास्ता पार करवाने में खासी मुश्किलें आईं. बारिश का मौसम आने साथ ही टूटा हुआ रास्ता लगातार और अधिक टूटता रहा और विशेषतः व्यांस घाटी के गांव सामान्य जीवन से कटते चले गए. बूदी से लेकर गुंजी और कुटी तक के इन्हीं गाँवों की ऊंचाइयों पर अपनी भेड़-बकरियों के साथ रह रहे इन अन्वाल परिवारों की परेशानियों का सिलसिला कोई एक महीने पहले शुरु हुआ जब उनके नीचे लौटने का समय आया. अगस्त-सितम्बर का मौसम इन पशुओं के बच्चे पैदा करने का मौसम होता है. नन्हे मेमनों को ऊंचे पहाड़ों की सर्दी से बचाने के लिए उन्हें चौदांस की निचली घाटी में ले जाए जाने का रिवाज रहा है. रास्ता टूटा होने के चलते अब तक ऐसा नहीं हो सका है. लगातार हुई बरसात और बर्फबारी के कारण इन चरवाहों और उनके पशुओं विशेषतः नवजातों का जीवन बहुत सारी समस्याओं से घिर गया है. रास्ता बंद होने के कारण वे ऊंचाइयों पर फंसे जाते हैं और असंख्य निरपराध पशुओं का जीवन संकट में पड़ जाता है.
जम्मू-कश्मीर के बंजारा कबीले बहुत पहले से मौसमी बदलावों के हिसाब से अपनी यात्रा की योजना बना लेते हैं. इससे उन्हें कमाई भी होती है और उनका पेट भी भरता है. हालांकि अब मौसम के तीखे मिजाजों और अचानक आई बाढ़ उनकी सदियों पुरानी प्रवासी परंपरा में बाधा बन रही हैं. बंजारा समुदाय के बहुत से लोग तो चरवाहे की संस्कृति छोड़ने के बारे में सोचने लगे हैं. पहाड़ी इलाकों के बंजारा चरवाहे अक्सर गर्मियों में ऊंची जगहों पर चले जाते हैं, ताकि मवेशियों को चारा मिल सके. ऊंचे इलाकों में आए दिन की भारी बारिश, बाढ़ और बिन मौसम की बर्फबारी ने उनके करीब आधे मवेशियों की जान ले ली. गुज्जर बंजारा समुदाय के 52 साल के रब्बानी कहते हैं, “मैंने कभी इतना बुरा हाल नहीं देखा था.” पिछले साल खराब मौसम के चलते करीब 30 मवेशियों की जान गई थी. मोहम्मद रब्बानी और उनके चरवाहा परिवार ने जब अप्रैल की तपती गर्मी में सालाना सफर के लिए अपना कस्बा छोड़ा था, तो उनके पास 400 भेड़-बकरियां भी थीं. करीब 260 किलोमीटर की यात्रा करके राजौरी के घर में जब यह परिवार वापस आया है, तो उनके पास महज 200 मवेशी ही बचे हैं.
रब्बानी याद वो वक्त याद करते हैं, जब उनके परिवार ने अपना सामान बांधकर आरू घाटी से अपना सफर शुरू किया. वो जब मरसार झील तरफ जा रहे थे, तभी भारी आंधी-पानी शुरू हो गई और अचानक बाढ़ आ गई. रब्बानी ने बताया, “मेरे कुछ मवेशी पानी के साथ बह गए और मेरा बेटा भी बुरी तरह घायल हो गया था.” इलाके के बंजारों के साथ काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन गुज्जर बकरवाल यूथ वेलफेयर कॉन्फ्रेंस के प्रमुख जाहिद परवाज चौधरी कहते हैं, “इस साल नुकसान का नया रिकॉर्ड बना है. बंजारों के आधे से ज्यादा मवेशी मर गए हैं. अगर आने वाले वर्षों में इसी तरह जलवायु में बदलाव होता रहा, तो बंजारों के पास अपनी सदियों पुरानी प्रवासी जीवनशैली छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा. इसका असर सांस्कृतिक विरासत और देश की अर्थव्यवस्था पर होगा.”
रब्बानी के साथ 25 साल की रुखसाना बानो का परिवार भी सफर पर निकला था. कश्मीर के ऊंचे इलाकों में इस साल समय से पहले हुई भीषण बर्फबारी ने उनसे उनका बच्चा छीन लिया. दूसरे बच्चे को गर्भ में पालने के साथ ही बानो को भारी बर्फ हटाने में अपने पति की मदद भी करनी पड़ती थी. समय से पहले आई बर्फ रात को उनकी टेंट पर जमा हो जाती थी. कई बार तो बर्फबारी या बारिश इतनी होती थी कि वो अपना टेंट भी नहीं लगा पाते थे और उन्हें बाहर ठंड में सोना पड़ता था. उनकी 80 भेड़ें खराब मौसम की भेंट चढ़ गईं. जब बानो का परिवार आरू घाटी में लौटा, तो उन्हें प्रसव का दर्द शुरू हो गया. भारी बारिश और तेज हवाओं के बीच चार घंटे पैदल यात्रा के बाद ये लोग पास के शहर पहलगाम पहु्ंचे. अस्पताल पहुंचते-पहुंचते उनके बच्चे की मौत हो चुकी थी. दो साल की बेटी के लिए खाना बनाती बानू ने रोते-रोते कहा, “मेरा सबकुछ चला गया, मैं यहीं मर जाना चाहती थी. बिन मौसम की बर्फबारी और बारिश ने पहले ही हमारा आसरा और मवेशी ले लिया था, अब उसने मेरा बच्चा भी छीन लिया. अच्छा है कि हम अपने घर में रहें, बजाय इसके कि खराब मौसम का सामना करें और अपना सब कुछ गंवा दें.”
भारत के मौसम विभाग की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, 1901 में रिकॉर्ड रखना शुरु होने के बाद से पिछला दशक सबसे ज्यादा गर्म था. बढ़ते तापमान के कारण भारत ने बीते 10 सालों में लगातार मौसमी आपदाओं का सामना किया है. अचानक आई बाढ़, आंधी, हिमस्खलन और भूस्खलन कश्मीरी पर्वतों को इलाके के चरवाहों के लिए ज्यादा खतरनाक बना रहा है. गुज्जर बकरवाल समुदाय की जम्मू-कश्मीर की आबादी में करीब 8 फीसदी की हिस्सेदारी है. इसके साथ ही अल्पाइन के चारागाह भी सिमट रहे हैं, जिन पर ये चरवाहे मवेशियों को चराने के लिए निर्भर हैं. चौधरी का कहना है कि सरकार इन लोगों की बहुत कम मदद कर रही है. ऐसे बहुत से परिवार हैं, जिनके सारे मवेशी खराब मौसम के चलते मर गए और उनके पास कोई आय का जरिया नहीं है.
जम्मू-कश्मीर के आदिवासी मामलों के विभाग ने इस मामले पर काफी कोशिशों के बाद भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है. हालांकि इस साल प्रवास का मौमस शुरू होते वक्त राज्य सरकार ने कहा था कि वह ऊंचे इलाके में जा रहे चरवाहों के लिए परिवहन का प्रबंध करेगी, ताकि वो वहां जल्दी पहुंच सकें और समय से पहले बर्फबारी शुरू होने की स्थिति में मवेशियों को चरने के लिए ज्यादा समय मिले. चौधरी का कहना है कि परिवहन की व्यवस्था से फायदा होगा, लेकिन उन्हें ऊंचे इलाकों में मवेशियों को सुरक्षित रखने के लिए जगह की भी जरूरत है, ताकि चारे के मौसम में हालात बिगड़ने पर वो वहां सुरक्षित रह सकें. चौधरी का कहना है कि पहाड़ों में असली समस्या तब शुरू होती है, जब संचार या परिवहन का कोई जरिया नहीं रहता. इन इलाकों में चरवाहे का काम इतना मुश्किल हो गया है कि बहुत से परिवार अब अपने घर पर रहकर मजदूरी करने के बारे में सोचने लगे हैं. सरकार की मदद ही इन्हें इस काम से जोड़े रख सकती है.
हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक रूप से निवास करने वाली जनजातियों में से गद्दी जनजाति की एक बड़ी जनसंख्या है. गद्दी जनजाति की विशिष्ट भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, रीति-रिवाज और पहनावे के कारण अपनी अलग-पहचान है. गद्दी जनजातियों का मुख्य व्यवसाय भेड़-बकरी पालन है और वे अपनी आजीविका कमाने के लिए भेड़, बकरी, खच्चरों और घोड़ों को भी बेचते हैं. यह जनजाति पुराने दिनों में खानाबदोश थी लेकिन बाद में उन्होंने पहाड़ों के ऊपरी भाग में अपने कबीले बनाना शुरू किया. वे गर्मी के मौसम के दौरान चराई के लिए अपने पशुओं को लेकर ऊपरी पहाडिय़ों में चढ़ाई करते हैं और सर्दियों में नीचे उतर आते हैं, वे अपनी भेड़-बकरियों की सुरक्षा के लिए कुत्ते भी पालते हैं जो उन्हें खदेडक़र एक जगह पर इकठ्ठा करने में पारंगत होते हैं, अब गद्दी समुदाय के लोगों ने भी अपनी आजीविका कमाने के लिए कई अन्य व्यवसायों को अपनाना शुरू कर दिया है. ये लोग अब भार उठाकर भी अपनी आजीविका चलाते हैं.
गद्दी भेड़ की ऊन और बकरी के बाल से बना ऊनी पाजामा (पतलून), लंबे कोट, ढोरु (ऊनी साड़ी), टोपी और जूते पहनते हैं, वे भेड़ की ऊन का प्रयोग शॉल, कंबल और कालीन बनाने में करते हैं, वे परंपरागत शैली में अपने घरों में बुनाई करते हैं. गद्दी महिलाएं पत्थर, सोने और चांदी से बने आभूषणों की शौकीन होती हैं. गद्दी बेहद ईमानदार माने जाते हैं. वे बहुत मेहनत से काम करते हैं और वे स्नेही और नर्म स्वभाव के होते हैं.
ये लोग मौसमी उतार-चढ़ाव का सामना करने के सर्दी गर्मी के हिसाब से अपनी जगह बदलते रहते हैं. गर्मियों में ऊपर घास के मैदानों बुग्याल की तरफ चले जाते हैं. इनमें से बहुत सारे हरे-भरे चरवाहों की तलाश में 19वीं सदी में जम्मू कश्मीर से उत्तर प्रदेश की पहाड़ियों से आए हैं. यहां के भोटिया और किन्नरी समुदाय के चरवाहे मौसमी बदलाव के हिसाब से खुद को ढाल लेते हैं. जब एक चरवाहा की हरियाली खत्म हो जाती है तो इस्तेमाल के काबिल नहीं रह जाती तो वह किसी और चरागाह की तरफ चला जाता है। इस आवाजाही से चरागाह जरूर से ज्यादा इस्तेमाल से भी बच जाती है और उनमें दोबारा हरियाली व जिंदगी भी लौट आती है।
भारत और चीन के बीच सीमा वास्तविक है, यानी न तो कंटीले तार और न ही कोई दीवा. दूर-दूर तक फैले सिर्फ़ बंजर मैदान और कहीं-कहीं हल्की-फुल्की घास भी दिख जाती है और ये घास के मैदान ही हैं, एलएसी के पास रहने वाले भारतीय गांव वालों के पशुओं की लाइफ़ लाइन. विगत माह अगस्त में भारतीय चरवाहों को अपने पशु चराने के लिये चीनी पीएलए के साथ विवाद हो गया. चीनी पीएलए ने भारतीय चरवाहों को पशुओं को चराने से रोक दिया. किसी तरह का फेसऑफ, धक्कामुक्की या बैनर ड्रिल की नौबत नहीं आई और इस विवाद को स्थानीय कमांडर स्तर पर बातचीत से सुलझा लिया गया. चीनी और भारत के बीच इस तरह की विवाद कोई नया नहीं है. पारंपरिक चरागाह में भारतीय चरवाहों के पशुओं को चराने को लेकर विवाद होता रहा है.
दरअसल, तिब्बत के पठार और लद्दाख के इन ठंडे मरुस्थल में सदियों से यहां के जनजातीय लोग रहते हैं, जोकि अपने पशुओं को उन मैदान में चराते हैं, लेकिन पिछले कई दशकों से चीन-तिब्बत के इलाक़े में पड़ने वाले चरागाह में स्थानीय लोगों, जोकि अपने पशुओं को चराया करते हैं, उन्हीं चरवाहों के भेष में चीन अपने सैनिकों और जासूसों को भेजता रहा है. चीनी चरवाहों की मदद से भारतीय इलाकों में अपनी गतिविधियों को अंजाम देता आया है और भारतीय इलाक़े में अपने चरवाहों को भेजकर उन चरागाहों पर अपना दावा भी ठोंकता रहा है, लेकिन अब भारत ने चीन की इस हरकतों का उसी की भाषा में जवाब देने की तैयारी कर ली है.
अब भारतीय सेना एलएसी के क़रीब अपने चरागाहों पर चीनी घुसपैठ और दावे के ख़त्म करने के लिए भारतीय चरवाहों को ज़रूरी सुविधाओं से लैस कर रही है. जानकारी के मुताबिक़, एलएसी के क़रीब के छोटे गांवों तक बिजली और सड़क के अलावा पानी की व्यवस्था भी सरकार की तरफ़ से की जा रही है, लेकिन सबसे बड़ी समस्या है उस इलाके में मवेशियों को चराने के जो मैदान हैं, वह अब सिकुड़ते जा रहे हैं. जलवायु परिवर्तन की वजह से नहीं, बल्कि वहां पर भारत और चीन के बीच जारी विवाद के चलते.. लेकिन अब भारतीय सेना एलएसी के पास रहने वाले चरवाहों की मदद कर रही है, ताकि वह एलएसी के पास के उन चरागाहों तक अपने जानवरों को ले जा सकें, जो भारत के दावे के क्षेत्र में हैं. सुरक्षा के अलावा वो इन्हें जरूरी मदद भी दे रही है.
सूत्रों की मानें तो सेना एलएसी के पास इन चरवाहों को उनके पारंपरिक चरागाह पर लौटने में मदद कर रही है. भारतीय सेना चरवाहों के लिए मेडिकल कैंप का आयोजन करती है और उनके जानवरों के लिए अलग से मेडिकल कैंप लगाया जाता हैं. किसी स्वास्थ्य इमरजेंसी के वक्त हैलिकॉप्टर के ज़रिए भी उनकी मदद की जाती है. साथ ही चरवाहों के बीच आपदा के दौरान राशन बांटने के साथ ही भारतीय सेना हर मुश्किल घड़ी में इनके साथ खड़ी रहती है.
चीन अपने कब्जे वाले इलाक़े में मवेशियों को चराने के लिए छोड़ देते हैं और उनके मेवाशी भारतीय इलाक़े तक पहुंच जाते हैं और उनके साथ उनके चरवाहे अपने मवेशियों के साथ उन इलको में टिक जाते हैं और फिर चीन उन पर दावा ठोक देता है कि ये इलाक़ा उनका है और उनके लोग सदियों से वहां अपने पशुओं को चराते आए हैं, लेकिन विवाद के चलते भारतीय सेना भारतीय चरवाहों को एलएसी के क़रीब अपने पशुओं को चराने के लिए जाने नहीं देते, बल्कि कुछ दूसरे चरागाह को चिहिन्हत किया गया है, जोकि काफी दूरी पर है, लेकिन जब से दोनों देशों के बीच तनाव कम हुआ है फिर से चरवाहे अपने चरागाहों तक जाने दिया जा रहा है.
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